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दीपावली पूजन – सम्पूर्ण जैन विधि

लेखक: पं. श्री नाथूलाल जी शास्त्री

नवीन बही मुहूर्त
पूजा के पश्चात हर बही में केशर से साथिय मांड कर निम्न प्रकार लिखें तथा एक- एक कोरा पान रखे।

श्री
श्री श्री
श्री श्री श्री
श्री श्री श्री श्री
श्री श्री श्री श्री श्री

श्री ऋषभ देवाय नमः।। श्री महावीराय नमः।। श्री गौतम-गणधरायनमः।। केवलज्ञान लक्ष्म्यै नमः।। श्री जिन सरस्वत्यै नमः।। श्री शुभ मिति कार्तिक बदी 30…….. ।।

………वार्।। दिनांक …/…/19ई. को शुभ बेला में दुकान श्री

की                 बही का मुहूर्त किया

यह विधि हो जाने के बाद विधि करनेवाले, दुकान के मुख्य सजन को बही में लच्छ बान्ध कर हाथ में बही देवें और पुश्प क्षेपे।
इसके बाद घर के प्रमुख महाशय नीचे लिखा हुआ पद्य व मंत्र पढकर शुभकामना करें और फूलमाला पहिनाकर पुष्प क्षेपण करें।

पद्य

आरोग्य बुद्धि धन धान्य समृद्धि पावें।
भय रोग शोक परिताप सुदुर जावें।
सद्धर्म शास्त्र गुरु भक्ति सुशांति होवे।

व्यापार लाभ कुल वृद्धि सुकीर्ती होवे।।

श्री वर्द्धमान भगवान सुबुद्धि देवें।
सन्मान सत्यगुण संयम शील देवें।।
नव वर्ष हो यह सद सुख शांति दाई।
कल्याण हो शुभ तथा अति लाभ होवे।।

पूजा प्रारम्भ

अर्हंतो भग्वंत इन्द्रमहिताः सिद्धीश्वराः।
आचार्या जिन शासनोन्नतिकराःपूज्या उपाध्यायकाः।।
श्रीसिद्धांतसुपाठ का मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः।
पंचैते परमेष्ठि नः प्रतिदिनं कुर्वंतु नः मंगलम्।।
ओं जय जय जय नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु।

णमो अरहंताणं, ण्मो सिद्धाणं, णमो आइरियणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। चतत्तारि मंगलम, अरिहंता मंगलम, सिद्धा मंगलम, साहू मंगलम्। केवलि पण्णत्तोधम्मो मंगलम्। चत्तारि लोगुत्तम, अरिहंतालोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तम। केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमा, चत्तारिसरणं पव्वज्जामि , सहूशरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि।  ऊँअनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः

(यह पढ कर पुष्पांजलि क्षेपित करें)

बिनायक यंत्र पूजा अर्ध्य

अच्छाम्भः शुचि चन्दनाक्षत सुमै-नैर्वेद्य कैश्चारुभिः।

दीपैर्धूप फलोत्तमैः समुदितैरेभिः सुपात्रस्थितैः।।

अर्हत्सिद्ध सुसूरिपाठक मुनीन लोकोत्तमान मंगलान्।
प्रत्यूहौधनिवृत्तये शुभकृतः, सेवे शरण्यानहम्।।
ऊँ ह्रीं श्री शरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यः अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।

देव शास्त्र-गुरु पूजा का अर्ध्य

जल परम उज्जवल गन्ध अक्षत- पुष्प चरु धरुँ।

वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरुँ।।

इह भाँति अर्ध्य चढाय नित भवि करत शिव पंकति मचूँ।
अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निर्ग्रंथ नित पूजा रचूँ।।
वसुविधि अर्ध्य संजोय कै, अति उछाहमन कीन्।
जासों पूजों परम पद, देवशास्त्र-गुरु तीन्।।
ऊँ श्री देवशास्त्र गुरुभ्यो अनर्ध्यपद प्राप्तये अर्ध्यम निर्पामीति स्वाहा।

बीस महाराज का अर्ध्य

जल फल आठों द्रव्य संभार, रत्न जवाहर भर भर थार्।
नमूँ कर जोड, नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।।
पाँचों मेरु विदेह सुथान, तीर्थंकर जिन बीस महान।
नमूँ कर जोड नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।।

ऊँ ह्रीं श्री विदेहक्षेत्रस्य सीमन्धरादि विद्यमांर्विर्शति तीर्थंकरेभ्यो अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा नमूँ कर जोड, नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।।

सिद्ध पर्मेष्ठी का अर्ध्य

जल फल वसु वृन्दा, अरघ अमन्दा, जजत अनन्दा के कन्दा।
मेटे भवफन्दा, सब दु:ख दन्दा, हीराचन्दा तुम बन्दा।।
त्रिभुवन के स्वामी, त्रिभुवन, नामी, अंतरजामी अभिरामी।
शिवपुर विश्रामी, निज निधिपामी सिद्धजजामी सिरनामी।।
ऊँ ह्रीं श्री अनाहत परक्रमाय सर्वकर्म विनिर्मुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।

चौबीस महाराज का अर्ध्य

फलफल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों।
तुमको अरपों भवतार, भवतरि मोक्ष वरों।।
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द कन्द सही।

पदजजत हरत भव फन्द, पावक मोक्षमही।।

अंतरायकर्म नाशार्थ अर्ध्य

लाभ की अंतराय के वस जीवसु न लहै।
जो करै कष्ट उत्पात सगरे कर्मवस विरथा रहै।।
नहीं जोर वाको चले इक छिन दीन सौ जग में फिरै।
अरिहंत सिद्ध अधर धरिकै लाभ यौ कर्म कौ हरै।।
ऊँ ह्रीं लाभांतरायकर्म रहिताभ्याम अहर्तसिद्ध परमेष्ठिभ्याम अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पांजलिं क्षिपेत

श्री महावीर जिनपूजा
(कविवर वृन्दावन कृत)

श्रीमतवीर हरै भवपीर सुखसीर अनाकुलताई।

के हरि अंक अरीकर दंक नये हरि पंकति मौलिसुहाई।।

मैं तुमको इत थापत हों प्रभु भक्ति समेत हिये हरखाई।

हे करुणाधन धारक देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहिं आई।।

ऊँ ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्राय पुष्पांजलिः।

क्षीरोदधि सम शुचि नीर, कंचन भृग भरों।
प्रभुवेग हरो भव्पीर, यातैंधार करों।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।

जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।

ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

मलयागिर चन्दन सार, केसर संग धसों।
प्रभु भव आताप निवार, पूजत हिय हुलसों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।

ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय चन्दनम निर्वपामीति स्वाहा।

तन्दुलसित शशिसम शुद्ध लीनों थार भरी।
तसु पुंज धरों अविरुद्ध, पावों शिव नगरी।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।

ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा।

सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे।

सो मंथन भंजन हेत, पूजों पद थारे।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।

ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।

रस रज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी।

पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी।।

श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।

ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा।

तम खन्डित मन्डित नेह, दीपक जोवत हों।
तुम पदतर हे सुख गेह, भ्रमतम खोवत हों।।

श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।

जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।

ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय दीपम निर्वपामीति स्वाहा।

हरि चन्दन अगर कपूर चूर सुगन्ध करा।
तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।

जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।

ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय धूपम निर्वपामीति स्वाहा।

रितुफल कल वर्जित लाय, कंचन थार भरों।
शिवफलहित हे जिनराय, तुम ढिग भेंट धरों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।

ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय फलम निर्वपामीति स्वाहा।

जल फल वसु सजि हिम थार, तनमन मोद धरों।
गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।

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