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जैन भजन – जिया कब तक उलझेगा संसार विकल्पों में

महाकवि राजमल जी  (पवैया, भोपाल) द्वारा रचित जैन भजन

जिया कब तक उलझेगा ,संसार विकल्पों में।
जिया कब तक उलझेगा ,संसार विकल्पों में।
कितने भव बीत चुके ,संकल्प-विकल्पों में।
जिया कब तक उलझेगा ,संसार विकल्पों में।

उड़-उड़ कर यह चेतन ,गति-गति में जाता है।
रागों में लिप्त सदा ,भव-भव दुःख पाता है।।

पल भर को भी न कभी ,निज आतम ध्याता है।
निज तो न सुहाता है ,पर ही मन भाता है।।
यह जीवन बीत रहा ,झूठे संकल्पों में।

जिया कब तक उलझेगा ,संसार विकल्पों में।
कितने भव बीत चुके ,संकल्प-विकल्पों में।

निज आत्मस्वरूप लखों ,तत्त्वों का कर निर्णय ।
मिथ्यात्व ही छूट जाए ,समकित प्रगटे निजमय ।।

निज परिणति रमण करे ,हो निश्चय रत्नत्रय ।
निर्वाण मिले निश्चित, छूटे भव दुःख भयमय ।।
सुख ज्ञान अनंत मिले ,चिन्मय की गल्पों में।

जिया कब तक उलझेगा ,संसार विकल्पों में।
कितने भव बीत चुके ,संकल्प-विकल्पों में।

शुभ-अशुभ विभाव तज़ो ,हैं हेय अरे आस्रव ।
संवर का साधन ले ,चेतन का कर अनुभव ।।

शुद्धात्म का चिन्तन ,आनंद अतुल अभिनव।
कर्मों की पगध्वनि का ,मिट जायेगा कलरव ।।
तू सिद्ध स्वयं होगा ,पुरुषार्थ स्वकल्पों में।

जिया कब तक उलझेगा ,संसार विकल्पों में।
कितने भव बीत चुके ,संकल्प-विकल्पों में।

नर रे नर रे नर रे ,तू चेत अरे नर रे।
क्यों मूढ़ विमूढ़ बना, कैसा पागल खर रे।।

अन्तर्मुख हो जा तू ,निज का आश्रय कर रे।
पर अवलंबन तज रे ,निज में निज रस भर रे।।
पर परिणति विमुख हुआ ,तो सुख पल अल्पों में।

जिया कब तक उलझेगा ,संसार विकल्पों में।
कितने भव बीत चुके ,संकल्प-विकल्पों में।

तू कौन कहाँ का है ,अरु क्या है नाँव अरे ।
आया है किस घर से ,जाना किस गाँव अरे ।।

सोचा न कभी तूने ,दो क्षण की छाँव अरे ।
यह तन तो पुद्गल है ,दो दिन की ठाँव अरे।।
तू चेतन द्रव्य सबल ,ले सुख अविकल्पों में।

जिया कब तक उलझेगा ,संसार विकल्पों में।
कितने भव बीत चुके ,संकल्प-विकल्पों में।

यदि अवसर चूका तो , भव-भव पछताएगा।
फिर काल अनंत अरे ,दुःख का घन छाएगा ।।

यह नरभव कठिन महा ,किस गति में जाएगा।
नरभव भी पाया तो ,जिनश्रुत ना पायेगा।।
अनगिनत जन्मों में अनगिनत कल्पों में।

जिया कब तक उलझेगा ,संसार विकल्पों में।
कितने भव बीत चुके ,संकल्प-विकल्पों में।

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