सम्पादन: प्रीति जैन, जयपुर
आजतक जिन लोगों ने अपनी आत्मा को पवित्र-पावन बनाया है ये सभी सिद्ध भगवान अपरिग्रह महाव्रत का आधार लेकर आगे बढे हैं। उन्होंने मन-वचन-काय से इस महाव्रत की सेवा की है। अपरिग्रह- यह शब्द विधायक नहीं है, निषेधात्मक शब्द है। उपलब्धि दो प्रकार से हुआ करती है और प्ररूपणा भी दो प्रकार से हुआ करती है- एक निषेधामुखी और दूसरी विधिमुखी। परिग्रह के आभाव का नाम है अपरिग्रह। परिग्रह को अधर्म माना गया है। इसलिये अपरिग्रह स्वतः ही धर्म की कोटि में आता है। इस अपरिग्रह धर्म का परिचय, इसकी अनुभूति, इसकी उपलब्धि आज तक पूर्णतः हमने की नहीं क्योंकि जब तक बाधक कारण विद्यमान हैं तबतक साध्य की प्राप्ति संभव नहीं है। जैसे धर्म और अधर्म साथ नहीं रह सकते। अन्धकार और प्रकाश एक साथ नही रह सकते। इसी प्रकार परिग्रह के रहते जीवन में अपरिग्रह की अनुभूति नहीं हो सकती। परिग्रह को भगवान महावीर ने पाँच पापों का मूल कारण माना है। संसार के सारे पाप इसी परिग्रह से उत्पन्न होते हैं। हमारा आत्मतत्त्व स्वतंत्र होते हुए भी एकमात्र इसी परिग्रह की डोर से बंधा है। परिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति इस ओर इशारा करती है जो विचारणीय है। परि आसमंतात ग्रहणाति आत्मानं इति परिग्रहः- जो आत्मा को सब ओर से घेर लेता है, जकड देता है वह परिग्रह है। आत्मा जिससे बन्ध जाता है उसका नाम परिग्रह है।
मात्र बाह्य वस्तुओं के ग्रहण का नाम परिग्रह नहीं है। मूर्छा ही परिग्रह है। बाह्य पदार्थों के प्रति जो अटेचमेंट है, लगाव है उसके प्रति जो रागानुभूति है, उसमें जो एकत्व की स्थापना का भाव है वह परिग्रह है। जहाँ आप रह रहे हैं वहीं पर अर्हंत परमेष्ठी भी है, साधु परमेष्ठी भी है, वहीं पर और भी पुनीत आत्माएँ रह रही हैं किंतु वही स्थान आपके लिये दुःख का कारण बन जाता है और वही उन आत्माओं को जरा भी प्रभावित नहीं करता, सुख-दुख का कारण नहीं बनता। वास्तव में, पदार्थ दुख-सुख का कारण नहीं है अपितु उसके प्रति जो मूर्छा भाव है, जो ममत्व है वही दुःख का कारण है। इसी का नाम परिग्रह है।
विशालकाय हाथी को कोई बाँध नहीं सकता। वह स्वयं बँध जाता है, उसकी मूर्छा उसे स्वयं बन्धन में डाल देती है। इसी प्रकार तीन लोक को जानने की अनन्त शक्ति और अनंत-आलोक जिस आत्मा के पास विद्यमान है वह आत्मा भी मूर्छित है, सुप्त है जिसने उसकी वह अनंत शक्ति भूलुण्ठित हो रही है। आप चार पापों के प्रति अत्यंत सावधान हैं। आप हिंसा से परहेज करते हैं, झूठ से बचते है, ‘चोरी नहीं करूँगा’ ऐसा संकल्प ले सकते हैं और लौकिक ब्रह्मचर्य के प्रति भी आपकी स्वीकृति है किंतु परिग्रह को आप विशेष रूप से सुरक्षित रखे हुए हैं। वह पाप मालूम ही नहीं पडता।
आज हिंसा करने वाले का कोई आदर नहीं करता, झूठ बोलने वाले और चोरी करने वाले का भी अनादर ही होता है, लेकिन परिग्रही का आज भी अनादर हो रहा है। जितना परिग्रह बढता है वह उतना ही बडा आदमी माना जा रहा है, जो कि धर्म के लिये सत्य नहीं है। धर्म कहता है कि परिग्रही का समर्थन सारे पापों का समर्थन है। आप धर्म चाहते हैं किंतु परिग्रह को छोडना नहीं चाहते। इससे यही प्रतीत होता है कि आप अभी धर्म को नहीं चाहते। धर्म तो अपरिग्रह में है।
मूर्छा रूपी अग्नि के माध्यम से आपकी आत्मा तप्त है, पीडित है और इसी के माध्यम से कर्म के बन्धन में जकडा हुआ है। आत्मा की शक्ति इसी के कारण समाप्त हो गयी है। वह अनंत शक्ति पूर्णतः कभी समाप्त नहीं हो सकती लेकिन मूर्छा के कारण सुप्त हो जाती है। जैसे आकाश में बादल छा जाते है तो सूरज ढँक जाता है। प्रकाश तो होता है, दिन उग आता है लेकिन सूरज दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार मूर्छा के बादलों में ढँका आत्मा दिखाई नहीं देता। आत्म दर्शन के लिये स्वयं को अपरिग्रह से मुक्त करना अनिवार्य है।
दिखता है बाहर से कि आप परिग्रह से नहीं चिपके किंतु अन्दर से कितने चिपके हैं यह आप स्वयं ही समझ सकते हैं। लगभग 15-16 वर्ष पुरानी घटना है। मैं एक आम्र के वृक्ष के नीचे बैठा था। वृक्ष में आम लगे थे। बच्चे आम तोडने के लिये पत्थर फेंक रहे थे। मैं भी बच्चों के साथ हो लिया। गृहस्थ अवस्था की बात है। एक-एक कर के कई पत्थर फेंके परंतु आम नहीं गिरा, आम की एक कोर टूट कर गिर गयी। यह शायद आम की सूचना थी कि मैं टूटने वाला नहीं हूँ। फिर जिसने भी पत्थर फेंका, एक कोर ही आ गयी, पर पूरा आम कोई नहीं टूटा। पर्याप्त था मेरे लिये यह बोध जो उस आम की ओर से प्राप्त हुआ था। बाहरी पदार्थों के प्रति अंतरंग में जितनी मूर्छा होगी, हमारी पकड भी उतनी ही मजबूत होगी। पदार्थों को छोडना उतना ही मुश्किल होगा। पदार्थ कदाचित हटा भी लिये जायें तो भी हमारा मन वहीं जा कर चिपक जायेगा। तो पहली बात यही है कि भीतरी पकड ढीली पडनी चाहिये।
थोडी देर मैं उसी आम के वृक्ष के नीचे रुका तो उसी समय थोडा सा हवा को झोंका आया और पका हुआ आम आ कर चरणो में गिर गया। उसकी सुगन्धि फैलने लगी, हरा नहीं था पीला था, कडा नहीं था मुलायम था, चूस कर देखा तो मीठा था। आनन्द की अनुभूति हुई। मैं सोंचने लगा कि इस आम को गिरने के लिये हवा का झोंका भी पर्याप्त था क्योंकि यह वृक्ष से जो संबन्ध था उसे छोडने के लिये तैयार हो गया। आपने अनुभव किया कि उस आम ने वृक्ष से सब बन्धन तोड दिया, ऊपर से दिखता था कि संबन्ध जुडा हुआ किंतु जरा सा इशारा पाकर वह वृक्ष से पृथक हो गया। तो दूसरी बात यह मिली कि जो जितना भीतर से असम्पृक्त होगा वह बाहर से जुडा होकर भी इशारा पाते ही मुक्त हो जायेगा। इस तरह जब कोई मुक्त होता है तो उसकी सुगन्ध, उसकी मिठाई आनन्ददायक होती है।
यह तो समय पर एकाध आम पकने की घटना हुई। लेकिन पकने की योग्यता आते ही पूर्णतः पकने से पूर्व यदि कोई होशियार माली उसे सावधानी से तोड लेता है तो भी उसे पाल में आसानी से पकाया जा सकता है। आप समझ गये होंगे सारी बात, पर भैय डरो मत, मैं जबर्दस्ती आपको पकाने की बात नहीं कहूँगा। आपका डण्ठल अभी मजबूत है। इतना अवश्य है कि अपरिग्रह की बात समझ में आ जाये तो सम्भव है कुछ समय में पक सकते हैं। अर्थात पदार्थों के प्रति मूर्छा कम होने के उपरांत यदि उन्हें छोड दिया जाये तो छूटना संभव है। समय से पहले भी यह घटना घट सकती है। अविपाक निर्जरा के माध्यम से साधक इसी प्रकार समय से पूर्व कर्मों को झडा देता है और परिग्रह से मुक्त होकर मोक्षमार्गी होकर आत्म-कल्याण कर लेता है।
आप लोगों ने अपनी निजी सत्ता के महत्व को भुला दिया है। इसी कारण निधि होते हुए भी लुट गयी है। आप आनंद की अनुभूति चाहते हैं लेकिन वह कहीं बाहर से मिलने वाली नहीं है। वह आनन्द, वह बहार अपने अन्दर है। जैसे बसन्त की बहार बाहर नहीं है वह अन्दर ही है लेकिन जो अन्धा हो उसे चारों ओर बहार होते हुए भी दिखाई नहीं देती। उसी प्रकार उपयोग में जो एक प्रकार का अन्धापन छाया है, मूर्छा छायी है वह मूर्छा टूट जाये तो वहीं पर बसंत की बहार है अर्थात आत्मा का आनन्द वहीं पर है।
एक किंवदंती है। एक बार भगवान ने भक्त की भक्ति से प्रभावित होकर उससे पूछा कि तू चाहता क्या है? भक्त ने उत्तर दिया कि मैं और कुछ अपने लिये नहीं चाहता, बस यही चाहता हूँ कि दुखियों के दुःख दूर हो जायें। भगवान ने कहा, तथास्तु! ऐसा करो जो सबसे अधिक दुःखी है उसे यहाँ लेकर आना। भक्त ने स्वीकार कर लिया। भक्त बहुत खुश हुआ कि इतने दिनों की भक्ति के उपरांत यह वरदान मिल गया। बहुत अच्छा हुआ। अब मैं एक-एक कर के सारी दुनिया को सुखी कर दूंगा। भक्त, दुखी की तलाश करता है। एक-एक व्यक्ति से पूछता है। सब यही कहते हैं कि और तो सब ठीक है बस एक कमी है। कोई पुत्र की कमी बताता, तो कोई धन की, कोई मकान या दुकान की कमी बता देता है पर मुझे पूर्ण कमी है ऐसा किसी ने नहीं बताया।
चलते चलते उसने देखा कि एक कुत्ता नाली में पडा तडप रहा है, वह मरणोन्मुख है। उसने जाकर पूछा कि क्यों, क्या हो गया? कुत्ता कहता है कि मैं बहुत दुःखी हूँ। भगवान का भजन करना चाहता हूँ। भक्त ने सोंचा यह बहुत दुःखी है। इसे ले चलना चाहिये। उसने कहा कि तुम दुःख से मुक्ति चाहते हो तो चलो, तुम स्वर्ग चलो, वहाँ सुख ही सुख है। मैं तुम्हें वहाँ लेकर चलता हूँ। कुत्ते ने कहा बहुत अच्छा! यह बताओ वहाँ मिलेगा क्या क्या? सभी सुख सुविधाओं के बारे में पूछने के उपरांत कुत्ते ने आश्वस्त हो कर कहा चलो चलते हैं किंतु एक बात और पूछनी है कि स्वर्ग में ऐसी नाली मिलेगी या नहीं? भक्त हँसने लगा और कहा कि ऐसी नाली स्वर्ग में तो नहीं है। तब फौरन वह कुत्ता बोला कि नाली नहीं है तो फिर क्या फायदा! मुझे यहीं रहने दो, यहाँ ठंडी-ठंडी लहर आती है।
अब विचार कीजिये। कैसी मूर्छा है? पाप-प्रणाली अर्थात पाप रूपी नाली को कोई छोडना नहीं चाहता। सबके मुख से यही वाणी सुनने को मिलती है कि यहाँ से छुटकारा मिल जाये पर मांग यही है कि हम यहीं पर बने रहें। सभी सुख चाहते हैं लेकिन परिग्रह छोडना नहीं चाहते। आचार्यों ने, विद्वानों ने कहा है कि ‘घर कारागृह, वनिता बेडी परिजन हैं रखवारे” अर्थात घार कारागृह के समान है, गृहणी बेडी है बन्धन है और जो परिवार-जन हैं वे रखवाले हैं। आप कहीं जायें तो वे पूछ लेते हैं कि कहाँ जा रहे हैं आप? कब तक लौटेंगे? इस प्रकार यह मोहजाल है, उसमें आत्मा जकडती चली जाती है और जाल में फँस कर जीवन समाप्त हो जाता है।
मूर्छा का उदाहरण रेशम का कीडा है, जो अपने मुँह से लार उगलता रहता है और उस लार के माध्यम से वह शरीर को स्वयं आवेष्टित करता चला जाता है। वह लार रेशम की तरह काम करती है जिसके लिये रेशम के कीडे को अपनी जिंदगी से हाथ धोना पडता है। यह उसकी ही गलती है उसका ही दोष है। वह चाहे तो उससे बाहर आ सकता है। लेकिन लार इकट्ठी करने का मोह नहीं छूटता और जीवन नष्ट हो जाता है। संसारी आत्मा भी प्रत्येक समय रागद्वेष , मोह, मद, मत्सर आदि के माध्यम से स्वयं के परिणामों को विकृत बनाता रहता है जिसके फलस्वरूप अनंत कर्म वर्गणायें आकर चिपकती चली जाती हैं और बन्धन की परम्परा अक्षुण्ण चलती रहती है।
आत्मा को न कोई दूसरा सुखी बना सकता है, न कोई दूसरा इसको दुःखी बना सकता है। यह स्वयं ही अपने परिणामों के द्वारा सुखी बन सकता है और स्वयं ही दुःखी बना हुआ है। यह अजर है, अमर है, इसे मिटाने वाला कोई नहीं है। यह चाहे तो रागद्वेष, मोह को मिटाकर अपने संसार को मिटा सकता है और अपने शाश्वत स्वाभाव में स्थित होकर आनन्द पा सकता है। यह संभाव्य है। उन्नति की गुंजाइश है किंतु उन्नति चाहना बहुत कठिन है। आप प्रत्येक पदार्थ को चाह रहे हैं किंतु निजी पदार्थ की चाह आज तक उद्भूत नहीं हुई। मोह की मूर्छा बहुत प्रबल है। पर ध्यान रहे जड पदार्थ हैं और आप चेतन हैं, मोह आपको प्रभावित नहीं करता किंतु आप स्वयं मोह से प्रभावित होते हैं।
आत्मा की अनंत शक्ति को जागृत करके आप चाहें तो अतीत में बन्धे हुए मोह कर्म को क्षण भर में हटा सकते हैं। आप सोंचते हैं कि कर्म तो बहुत दिन के हैं और इनको समाप्त करना बहुत कठिन है, परंतु ऐसा नहीं है। एक प्रकाश की किरण अनंतकाल से संचित अन्धकार को मिटाने के लिये पर्याप्त है। ‘मोह’ बलवान नहीं है यह आपकी कमजोरी है, ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत”। आप कमजोर पड जाते हैं तो कर्म बलवान मालूम पडने लगते हैं। आपके मकान की दीवार से हवा टकराती हुई जा रही है किंतु कोई असर नहीं होता। यदि उस दीवार पर आप थोडी चिकनाई लगा दें तो वहाँ हवा के साथ-साथ आयी हुई धूलि चिपकना प्रारम्भ हो जायेगी। इसप्रकार हमारे परिणामों की विकृति के कारण नित्य नये कर्म बँधे रहते हैं और परम्परा चलती रहती है। हम यदि अपने भावों की सम्भाल करें तो संतति को तोड सकते हैं।
तेली के बैल को कोल्हू से बाँध दिया जाता है, आँखें बन्द कर दी जाती हैं। बैल सोचता रहता है कि सुबह से लेकर शाम हो गयी मेरा सफर चल रहा है, शाम को कोई अच्छा स्थान मिल ही जायेगा, बहुत चल चुका हूँ। जब शाम को पट्टी हटती है तो पता चलता है मैं तो वहीं हूँ जहाँ सुबह था। इसी प्रकार हमारी दशा है। यदि सावधान नहीं होंगे तो मोह की परम्परा कोल्हू के बैल की तरह निरंतर चलती रहेगी और हम संसार में वहीं घूमते रह जायेंगे। अगर गौर से देखें तो अर्जित कर्म बहुत सीमित है और संकल्प अनंत हैं। तेरे-मेरे का संकल्प यदि टूट जाये तो कर्म हमारा बिगाड नहीं सकते। “तूने किया विगत में कुछ पुण्य पाप, जो आ रहा है उदय में स्वमेव आप। होगा ना बन्ध तबलौं जबलौं न राग, चिंता नहीं उदय से बन वीतराग”। अज्ञान की दशा में मोह के वशीभूत होकर जो कर्म किया है उसका उदय चल रहा है, किंतु उदय मात्र अपने लिये बंधकारक नहीं है अपितु उदय से प्रभावित होना, हर्ष विषाद करना बन्धकारक है। उस उदय से प्रभावित होना हमारी कमजोरी है। यदि हम उदय से प्रभावित न हों तो उदय आकर जा रहा है।
मोह का कार्य भोगभूमि की जुडवाँ संतान जैसा है। जब तक मोह सत्ता में है तबतक उसका कोई प्रभाव उपयोग पर नहीं है किंतु जब उदय में आता है उस समय रोगी-द्वेषी संसारी प्राणी उससे प्रभावित हो जाता है। इसलिये वह कर्म अपनी संतान छोडकर चला जाता है। भोग-भूमि में पल्योपम आयु तक स्त्री-पुरुष के जोडे भोग में लगे राते हैं किंतु संतान की प्रप्ति नहीं होती। जीवन के अंत में मरण से पूर्व वे नियम से जुडवाँ संतान को छोड कर चले जाते हैं। यह क्रम चलता रहता है। जिनेन्द्र भगवान का उपदेश इतना ही संक्षेप में है कि राग करने वाला बन्धन में पडता है द्वेष करने वाला भी बन्धन को प्राप्त होता है किंतु वीतरागी को कोई नहीं बाँध सकता।
सुख-दुख मात्र मोहनीय कर्म की परिणति है। मोह के कारण ही हम स्वयं को सुखी दुखी मान लेते हैं। “मैं सुखी दुखी मैं रंक राव। मेरे गृह धन गोधन प्रभाव। मेरे सुअ तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण”। यह मोह या अज्ञानता ही संसार का कारण है। जीव रंक राव आदि रूप नहीं है फिर भी इस रूप स्वयं को मानता चला जा रहा है। ‘पर’ में सुख मानना ही परिग्रह को अपनाना है और ‘स्व’ में सुख मानना ही परिग्रह से मुक्त होना है।
अरब देश से कुछ श्रीमान यहाँ भ्रमण हेतु यहाँ आये, ऐसा कहीं किसी से सुना था। वे यहाँ किसी रेस्टहाउस में ठहर गये। वहाँ उनका सब प्रकार का प्रबन्ध था। गर्मी का मौसम था इसलिये दिन में तीनबार स्नान की व्यवस्था थी। अरब देशों में पानी की बडी कमी रहती है। यहाँ इतना पानी देख कर उनमें से एक व्यक्ति को बडा आश्चर्य हुआ। उसने टूंटी को थोडा घुमाया तो तेजी से पानी आता देखकर सोंचने लगा कि अरे! यह तो बहुत अच्छा है कि टूंटी से पानी आता है। उसने नौकर को बुला कर पूछा कि ऐसी टूंटी और मिल जायेंगी। नौकर ने कहा हाँ मिल जायेगी। पर आप क्या करेंगे? व्यक्ति बोला पानी के काम आयेगा। नौकर समझ गया व्यक्ति धोखे में है। उसने कहा टूंटी महंगी मिलेगे, हमारे पास और भी है पर प्रत्येक का सौ रुपया लगेगा।
उस व्यक्ति ने 10-20 टूंटी खरीद कर रख ली। रात में जब साथी सो गये तो उसने चुपके से एक टूंटी निकाली और घुमाया पर उसमें से पानी नहीं निकला। उसने सोंचा क्या बात हो गयी? दूसरी टूंटी को परखा फिर वही बात। उसका साथी पास में लेटा-लेटादेख रहा था। उसने कहा ये क्या पागलपन कर रहे हो? वह व्यक्ति बोला मेरे साथ धोखा हो गया है। टूंटी से पानी आता देख कर मैंने सोंचा कि अपने यहाँ पानी की कमी है, टूंटी खरीद लें तो वहाँ पर भी पानी ही पानी हो जायेगा। तब उसके साथी ने समझाया कि भैया, टूंटी में पानी थोडे ही है, पानी तो टंकी में था। पानी टूंटी में नहीं है, टूंटी से होकर आता है।
इसी प्रकार सुख शरीर में नहीं है, बाहरी किसी सामग्री में नहीं है। आप टूंटी वाले की अज्ञानता पर हँस रहे हैं। आपने भी तो टूंटियाँ खरीद रखीं हैं इस आशा से कि उससे सुख मिलेगा। प्रत्येक व्यक्ति ने कुछ ना कुछ खरीद रखा है, उसके माध्यम से सुख चाहता है, शांति चाहता है। मकान एक टूंटी है, फ्रिज एक टूंटी है। आप लोगों ने टूंटी खरीदने में ही अपना जीवन व्यतीत कर दिया। इसमें सुख थोडे ही आने वाला है। यदि सुख आना होता तो आ जाता आजतक। आप दूसरों के जीवन की ओर मत देखो। हमारा जीवन कितना मोह ग्रस्त है यह देखो। सुख अपने भीतर है। सुख इन बाह्य वस्तुओं में नहीं है। सुख का जो सरोवर अन्दर लहर रहा है उसमें कूद जाओ। अंत में आपको यही कहना चाहूँगा कि यह स्वर्णिम अवसर है मानव के लिये, उन्नत्ति की ओर जाने के लिये। आप सब बाह्य उपलब्धि को छोडकर एक बार मात्र अपनी निज-सत्ता का अनुभव करें इसी से सुख और शांति की उपलब्धि हो सकती है। दुनिया में अन्य कोई भी वस्तु सुख शांति देने वाली नहीं है। सुख शांति का एकमात्र स्थान परिग्रह से रहित आत्मा है।
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