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वैयावृत्त्य

संकलन : प्रो. जगरूपसहाय जैन
सम्पादन : प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन

वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा में निमित्त बनकर अपने अंतरंग मे उतरना ही सबसे बडी सेवा है।

वैयावृत्त्य का अर्थ है सेवा, सुश्रुषा, अनुग्रह, उपकार। सेवा की चर्चा करते ही हमारा ध्यान पडोसी की ओर चला जाता है। “बचाओ” शब्द कान मे आते ही हम देखने लग जाते हैं कि किसने पुकारा है, कौन अरक्षित है और हम उसकी मदद के लिये दौड पडते हैं। किंतु अपने पास में जो आवाज उठ रही है उसकी ओर आज तक हमारा ध्यान नहीं गया। सुख की खोज मे निकले हुए पथिक की वैयावृत्त्य आज तक किसी ने नहीं की। सेवा तभी हो सकती है जब हमारे अन्दर सभी के प्रति अनुकम्पा जागृत हो जाये। अनुकम्पा के अभाव मे न हम अपनी सेवा कर सकते हैं और न दूसरों की ही सेवा कर सकते हैं।

सेवा किसकी? ये प्रश्न बडा जटिल है। लौकिक दृष्टि से हम दूसरों की सेवा भले कर लें किंतु पारमार्थिक क्षेत्र मे सबसे बडी सेवा अपनी ही हो सकती है। आध्यात्मिक दृष्टि से किसी अन्य की सेवा हो ही नहीं सकती। भगवान का उपकार भी उसी को हो सकता है जो अपना उपकार करने मे स्वयं अपनी सहायता करते हैं। दूसरों का सहारा लेने वाले पर भगवान भी अनुग्रह नहीं करते। सेवा करने वाला वास्तव में अपने मन की वेदना मिटाता है। यानी अपनी ही सेवा करता है। दूसरों की सेवा अपनी ही सुख शांति की बात छिपी रहती है।

मुझे एक लेख पढने को मिला। उसमे लिखा था कि इंग्लैण्ड का गौरव उसके सेवकों मे निहित है। किंतु सच्चा सेवक कौन है? तो एक व्यक्ति कहता है कि “ चाहे सारी सम्पत्ति चली जाये, चाहे हमें सूर्य का आलोक भी हमें प्राप्त न हो किंतु हम अपने देश के श्रेष्ठ कवि शेक्सपियर को किसी कीमत पर नहीं छोड सकते। वह देश क सच्चा सेवक है।” कहा भी है ‘जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि’। ठीक है, कवि गूढ तत्व का विश्लेषण कर सकता है लेकिन एक काम तो वो नहीं कर सकता, वह ‘निजानुभवी’ नहीं बन सकता। ऐसा कहा जा सकता है कहा जा सकता है कि “जहां न पहुंचे कवि वहां पहुंचे निजनुभवी”। भारत देश अनुभव को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है। कवि और चित्रकार प्रकृति के चित्रण में सक्षम हैं किंतु यही मात्र हमारा लक्ष्य नहीं है। स्वानुभव ही गति है और हमारा लक्ष्य भी है। स्वानुभव बनने के लिये स्व-सेवा अनिवार्य है। स्वयं-सेवक बनो ‘पर’ कभी सेवक मत बनो। मात्र भगवान के सेवक भी स्वयं-सेवक नही बन पाते। ‘खुदा का बन्दा’ बनना आसान है, किंतु ‘खुद का बन्दा’ बनना कठिन है। खुद के बन्दे बनो।

भगवान की सेवा आप क्या कर सकेंगे? वे तो निर्मल और निराकार बन चुके हैं। उनके समान निर्मल और निराकार बनना ही उनकी सच्ची सेवा है। हम शरीर की तडपन तो देखते हैं किंतु आत्मा की पीडा नहीं पहचान पाते। यदि हमारे शरीर में कोई रात को सुई चुभो दे तो तत्काल हमारा समग्र उपयोग उसी स्थान पर केन्द्रित हो जाता है। हमें बडी वेदना होती है किंतु आत्म-वेदना को आजत्क अनुभव नहीं किया। शरीर की सरांध का हम इलाज करते हैं किंतु अपने अंतर्मन की सरांध/उत्कट दुर्गन्ध को हमने कभी असह्य माना ही नहीं। आत्मा बसी हुई इस दुर्गन्ध को निकालने का प्रयास जी वैयावृत्य का मंगलाचरण है।

हमारे गुरुवर आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने ‘कर्तव्यपथ प्रद्रशक’ नाम से अपने ग्रंथ में एक घटना का उल्लेख किया है। एक जज साहब कार में जा रहे हैं अदालत की ओर। मार्ग में देखते हैं एक कुत्ता नाली में फँसा हुआ है। जीवेषणा है उनमें किंतु प्रतीक्षा है कि कोई आ जाये और कुत्ते को कीचड से निकाल दे। जज साहब कार रुकवाते हैं और पहुँच जाते हैं उस कुत्ते के पास। उनके दोनो हाथ नीचे झुक जाते हैं और पहुँच जाते हैं कुत्ते के पास। उनके दोनो हाथ झुक जाते हैं और झुक कर उस कुत्ते को सडक पर ला कर खडा कर देते हैं। बाहर निकलते ही कुत्ते ने जोर से एकबार शरीर जोर से झाडा और पास खडे जज साहब के कपडों पर ढेर सारा कीचड लग गया। सारे कपडे पर कीचड के धब्बे लग गये। किंतु जज साहब घर नहीं लौटे। उन्हीं वस्त्रों में पहुँच गये अदालत में। सभी चकित हुए। किंतु जज साहब के चेहरे पर अलौकिक आनन्द की अद्भुत आभा खेल रही थी। वे बडे शांत थे। लोगों के बार-बार पूछने पर बोले, “मैंने अपने हृदय की तडपन मिटाई है, मुझे बहुत शांति मिली है”।

वास्तव में, दूसरे की सेवा कर में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा हम कर ही नहीं सकते। दूसरे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं। उन निमित्तों के सहारे अपने अंतरंग में उतरना, यही सबसे बडी सेवा है। वास्तविक सुख स्वावलम्बन में है। आरम्भ में छोटे-छोटे बच्चों को सहारा देना होता है किंतु बडे होने पर उन बच्चों को अपने पैरों पर बिना किसी दूसरे के सहारे के खडा होने की शिक्षा देनी होगी। आप हमसे कहें कि महाराज आप उस कुत्ते को कीचड से निकालेंगे या नहीं; तो हमें कहना होगा कि हम उसे निकालेंगे नहीं, हाँ उसको देख कर अपने दोषों का शोधन अवश्य करेंगे। आप सभी को देख कर भी हम अपना ही परिमार्जन करते हैं क्योंकि हम सभी मोह-कर्दम में फँसे हुए हैं। बाह्य कीचड से अधिक घातक यह मोह-कर्दम है।

आपको शायद याद होगा हाथी का किस्सा जो कीचड में फँस गया था। वह जितना निकलने का प्रयास करता उतना ही कीचड में धँसता जाता था। उसके निकलने का एक ही मार्ग था कि कीचड सूरज के आलोक में सूख जाये। इसीतरह आप भी संकल्पों-विकल्पों के दल-दल में फँस रहे हो। अपनी ओर देखने का अभ्यास करो, तब अपने आप ही ज्ञान की किरणों से यह मोह की कीचड सूख आयेगी। बस, अपनी सेवा में जुट जाओ, अपने आप को कीचड से बचाने का प्रयास करो। भगवान महावीर ने यही कहा है-“सेवक बनो स्वयं के” और खुदा ने भी यही कहा है “खुद का बन्दा बन”। एक सज्जन जब भी आते हैं एक शेर सुना कर जाते हैं, हमे याद हो गया-

अपने दिल में डूबकर पा ले, सुरागे जिन्दगी।
तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन, अपना तो बन॥

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