परम पूज्य 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के गुरुदेव |
परम पूज्य 108 आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज का अर्घ वैराग्य मूर्ति देख के मन शान्त होता। जो भेद-ज्ञान स्वयमेव सु जाग जाता।। विश्वास है वरद हस्त हमें मिला है। संसार चक्र जिसमें भ्रमता नहीं है।। ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य ज्ञान सागराय अनर्ध्यपद प्राप्तर्य अर्ध्य नि0 स्वाहा। |
परम पूज्य 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज पूजन |
श्री विद्यासागर के चरणों में झुका रहा अपना माथा। जिनके जीवन की हर चर्यावन पडी स्वयं ही नवगाथा।। जैनागम का वह सुधा कलश जो बिखराते हैं गली-गली। जिनके दर्शन को पाकर के खिलती मुरझायी हृदय कली।। ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र अवतर सम्बोषट आव्हानन।अत्र तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भवः भव वषद सन्निध्किरणं। सांसारिक विषयों में पडकर, मैंने अपने को भरमाया। इस रागद्वेष की वैतरणी से, अब तक पार नहीं पाया।। तब विद्या सिन्धु के जल कण से, भव कालुष धोने आया हूँ। आना जाना मिट जाये मेरा, यह बन्ध काटने आया हूँ।। जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्व स्वाहा।क्रोध अनल में जल जल कर, अपना सर्वस्व लुटाया है। निज शान्त स्वरूप न जान सका, जीवन भर इसे भुलाया है।। चन्दन सम शीतलता पाने अब, शरण तुम्हारी आया हूँ। संसार ताप मिट जाये मेरा, चन्दन वन्दन को जाया हूँ।। संसार ताप विनाशनाय चन्दनं निर्व स्वाहा।जड को न मैंने जड समझा, नहिं अक्षय निधि को पह्चाना। अपने तो केवल सपने थे, भ्रम और जगत को भटकाना।। चरणों में अर्पित अक्षय है, अक्षय पद मुझको मिल जाये। तब ज्ञान अरुण की किरणों से, यह हृदय कमल भी खिल जाये।। अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं निर्व स्वाहा।इस विषय भोग की मदिरा पी, मैं बना सदा से मतवाला। तृष्णा को तृप्त करें जितनी, उतनी बढती इच्छा ज्वाला।। मैं काम भाव विध्वंस करू, मन सुमन चढाने आया हूँ। यह मदन विजेता बन ना सकें, यह भाव हृदय से लाया हूँ।। कामवाण विनाशनाय पुष्पं निर्व स्वाहा।इस क्षुदा रोग की व्याथा कथा, भव भव में कहता आया हूँ। अति भक्ष-अभक्ष भखे फिर भी, मन तृप्त नहीं कर पाया हूँ।। नैवेद्य समर्पित कर के मैं, तृष्णा की भूख मिटाउँगा। अब और अधिक ना भटक सकूँ, यह अंतर बोध जगाउँगा।। क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य निर्व स्वाहा।मोहान्ध्कार से व्याकुल हो, निज को नहीं मैंने पह्चाना। मैं रागद्वेष में लिप्त रहा, इस हाथ रहा बस पछताना।। यह दीप समर्पित है मुनिवर, मेरा तम दूर भगा देना। तुम ज्ञान दीप की बाती से, मम अन्तर दीप जला देना।। मोहांधकार विनाशनाय दीपम् निर्व स्वाहा। इस अशुभ कर्म ने घेरा है, मैंने अब तक यह था माना। भोगों को इतना भोगा कि, खुद को ही भोग बना डाला। जग के वैभव को पाकर मैं, निश दिन कैसा अलमस्त रहा। |
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