संत न होते जगत में तो जल जाता संसार। सुख शांति होती नही मचता हाहाकार।। |
“जाकी रही भावना जैसी गुरुमूरत तिन दीखही तैसी” |
सरल, सहज, यथाजात, मुद्राधारी, बालकवत, निर्विकार, दिगम्बर जैन साधुओं को देखने मात्र से विभिन्न मनुष्यों में विभिन्न प्रकार के मनोभाव, शंका, कुशंका, तर्क-वितर्क उठना स्वाभाविक है । उनके विभिन्न प्रकार के मनोभाव एवं शंकाओं के समाधान के लिए तर्क पूर्ण नैतिक एवं आध्यात्मिक द्रष्टिकोण से हमें निम्न सत्य तथ्य पर विचार करना चाहिए। |
दिक्+अम्बर = दिगम्बर अर्थात दिक् = दिशा, अम्बर = वस्त्र। ‘दिक् एवं अम्बरं यस्य सः दिगम्बरः।’जिनका दिक् अर्थात दिशा ही वस्त्र हो वह दिगम्बर। दिगम्बर का अर्थ यह भी उपलक्षित है जो अंतरंग-बहिरंग परिग्रह से रहित है वो निर्ग्रन्थ है। निर्ग्रन्थता का अर्थ जो क्रोध, मान, माया, लोभ, अविद्या, कुसंस्कार काम आदि अंतरंग ग्रंथि तथा धन धान्य, स्त्री, पुत्र सम्पत्ति, विभूति आदि बहिरंग ग्रंथि से जो विमुक्त है उसको निर्ग्रन्थ कहते हैं। |
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ये संत अपनी आत्म शक्ति को बढ़ाकर तपस्या करके संसार के जन्म मरण से मुक्त होकर परमात्मा शक्ति को पाते हैं। तो चलें! आयें हम भी इनके चरणों में नमस्कार कर कुछ क्षण सुख और शान्ति को पा लेवें। इन दिगम्बर साधु का सत्संग करोड़ों अपराधों को हर लेता है। |
कहा भी है : एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध। |
जैनियों की बड़ी खराब आदत है वैदिक धर्म के संतो द्वारा कही गई पंक्तियों में छेड़छाड़ करने की
उदाहरण
जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी
गोस्वामी तुलसीदास