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गुरुवाणी

गुरुवाणी

सम्पादन: प्रीति जैन, जयपुर

आज हम एक पवित्र आत्मा की स्मृति के उपलक्ष्य में एकत्रित हुए हैं। भिन्न-भिन्न लोगों ने इस महान आत्मा का मूल्यांकन भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किया है। लेकिन सभी अतीत में झांक रहे हैं। महावीर भगवान अतीत की समृति मात्र से हमारे हृदय में नहीं आयेंगे। वास्तव में देखा जाये तो महावीर भगवान एक चैतन्य पिण्ड हैं, वे कहीं गये नहीं हैं, वे प्रतिक्षण विद्यमान हैं किंतु सामान्य आँखें उन्हें देख नहीं पातीं।

देश के उत्थान के लिये, सामाजिक विकास के लिये और जितनी भी समस्याएँ हैं उन सभी के समाधान के लिये आज अनुशासन को परम आवश्यक माना जा रहा है। लेकिन भगवान महावीर ने अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन को श्रेष्ठ माना है। अनुशासन चलाने के भाव में मैं बडा और दूसरा छोटा इस प्रकार का कषाय भाव विद्यमान है लेकिन आत्मानुशासन में अपनी ही कषायों पर नियंत्रण आवश्यक है। आत्मानुशासन में छोटे-बडे की कल्पना नहीं है। सभी के प्रति समता का भाव है।

अनादि काल से इस जीव ने कर्तव्य-बुद्धि के माध्यम से विश्व के ऊपर अनुशासन चलाने का दम्भ किया है, उसी के परिणामस्वरूपयह जीव चारों ओर गतियों में भटक रहा है। चारों गतियों में सुख नहीं है, शांति नहीं है, आनन्द नही है, फिर भी इन्हीं गतियों में सुख-शांति और आनन्द की गवेषणा कर रहा है। वह भूल गया है कि दिव्य घोषणा है संतों की, कि सुख-शांति का मूल स्त्रोत आत्मा है। वहीं इसे खोजा और पाया जा सकता है। यदि दुःख का, अशांति और आकुलता का कोई केन्द्र बिन्दु है तो वह भी स्वयं की विकृत दशा को प्राप्त आत्मा ही है। विकृत-आत्मा स्वयं अपने ऊपर का अनुशासन चलाना नहीं चाहता, इसी कारण विश्व में सब ओर अशांति फैली हुई है।

भगवान महावीर का दर्शन करने के लिये भौतिक आँखें काम नहीं कर सकेंगी, उनकी दिव्य ध्वनि सुनने, समझने के लिये ये कर्ण प्रयाप्त नहीं है। ज्ञान चक्षु के माध्यम से ही हम महावीर भगवान की दिव्य छवि का दर्शन कर सकते हैं। भगवान महावीर का शासन रागमय शासन नहीं रहा, वह वीतरागमय शासन है। वीतरागता बाहर से नहीं आती, उसे अन्दर से जागृत करना पडता है। यह वीतरागता ही आत्म-धर्म है। यदि हम अपने ऊपर शासन करना सीख जायें, आत्मानुशासित हो जायें तो यही वीतराग आत्मधर्म, विश्व धर्म बन सकता है।

भगवान पार्श्वनाथ के समय ब्रह्मचर्य की अपेक्षा अपरिग्रह को मुख्य रखा गया था। सारी भोग-सामग्री परिग्रह में आ ही जाती है। इसलिये अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया गया। वह अपरिग्रह आज भी प्रासंगिक है। भगवान महावीर ने उसे अपने जीवन के विकास में बाधक माना है। आत्मा के दुःख का मूल स्त्रोत माना था। किंतु आप लोग परिग्रह के प्रति बहुत आस्था रखते हैं। परिग्रह छोडने को कोई तैयार नहीं है। उसे कोई बुरा नहीं मानता। जब व्यक्ति बुराई को अच्छाई के रूप में स्वीकार कर लेता है तब उसे उस व्यक्ति का सुधार, उस व्यक्ति का विकास असम्भव हो जाता है। आज दिशाबोध परमावश्यक है। परिग्रह के प्रति आसक्ति कम किये बिना वस्तु स्थिति ठीक प्रतिबिम्बित नहीं हो सकती।

“सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः” की घोषणा सैद्धांतिक भले ही हो किंतु प्रत्येक कार्य के लिये यह तीनों बातें प्रकारांतर से अन्य शब्दों के माध्यम से हमारे जीवन में सहायक सिद्ध होती हैं। आप देखते हैं कि कोई भी, सहज ही किसी को कह देता है या मां अपने बेटे को कह देती है कि बेटा, ‘देख’ यह दर्शन का प्रतीक है, ‘भाल’ यह विवेक का प्रतीक है अर्थात सम्यकज्ञान का प्रतीक है और ‘चलना’ यह सम्यक चरित्र का प्रतीक है। इस तरह ये तीनों बातें सहज ही प्रत्येक कार्य के लिये आवश्यक है।

आप संसार के विकास के लिये चलते हैं तो उसी ओर देखते हैं, उसी को जानते हैं। महावीर भगवान आत्मविकास की बात करते हैं। उसी ओर देखते हैं, उसी को जानते हैं और उसी की प्राप्ति की ओर चलते हैं। इसलिये भगवान महावीर का दर्शन ज्ञेय पदार्थों को महत्व नहीं देता अपितु ज्ञान को महत्व देता है। ज्ञेय पदार्थों से प्रभावित होने वाला वर्तमान भौतिकतावाद भले ही आध्यात्म की चर्चा कर ले किंतु आध्यात्म को प्राप्त नहीं का सकता। ज्ञेयतत्त्व का मूल्यांकन आप कर रहे हैं और सारा संसार ज्ञेय बन सकता है किंतु मूल्यांकन करने वाला किस जगह बैठा है, उसे देखने की बहुत आवश्यकता है, आध्यात्म का प्रारम्भ उसी से होगा।

आपकी घडी की कीमत है। आपकी खरीदी हुई हर एक वस्तु की कीमत है किंतु कीमत करने वाले की क्या कीमत है। अभी यह जानना शेष है। जिसने इसको जान लिया उसने भगवान महावीर को जान लिया। अपने शुद्ध आत्म-तत्त्व को जान लिया। अपने आप को जान लेना ही हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यही आध्यात्म की उपलब्धि है। जहाँ आत्मा जीवित है, वहीं ज्ञेय-पदार्थों का मूल्यांकण भी सम्भव है।

शुद्ध आत्मतत्त्व का निरीक्षण करने वाला व्यक्ति महान और पवित्र होता है। उसके कदम बहुत धीमे-धीमे उठते है किंतु ठोस उठते है, उनमें बल होता है, उनमें गाम्भीर्य होता है, उसके साथ विवेक जुडा रहता है। विषय कषाय उससे बहुत पीछे छूट जाता है।

जो व्यक्ति वर्तमान में ज्ञानानुभूति में लीन है, वह व्यक्ति आगे बहुत कुछ कर सकता है किंतु आज व्यक्ति अतीत की स्मृति में उसी की सुरक्षा में लगा है या फिर भविष्य के बारे में चिंतित है कि आगे क्या होगा। इस प्रकार वह वर्तमान पुरुषार्थ को खोता जा रहा है। वह भूल रहा है कि वर्तमान से ही भूत और भविष्य निकलने वाले हैं। अनागत भी इसी में से आयेगा और अतीत भी इसी से ढलकर निकल चुका है। जो कुछ कार्य होता है वह वर्तमान में होता है और विवेकशील व्यक्ति ही उसका सम्पादन कर सकता है। भविष्य की ओर दृष्टि रखने वाला आकांक्षा और आशा में जीता है, अतीत में जीना भी बासी खाना है। वर्तमान में जीना ही वास्तविक जीना है।

अतीत ‘भूत’ के रूप में वक्ति को भयभीत करता है और भविष्य की आशा ‘तृष्णा’ बनकर नागिन की तरह खडी रहती है जिससे व्यक्ति निश्चिंत नहीं हो पाता। जो वर्तमान में जीता है वह निश्चिंत होता है, वह निडर और निर्भीक होता है। साधारण सी बात है जिस व्यक्ति के कदम वर्तमान में अच्छे नहीं उठ रहे हैं उसका भविष्य अन्धकारमय होगा ही। कोई चोरी करता रहे और पूछे कि मेरा भविष्य क्या है? तो भैया चोरी करने वालों का भविष्य क्या जेल में व्यतीत नहीं होगा, यह एक छोटा सा बच्चा भी जानता है। यदि हम भविष्य उज्ज्वल चाहते हैं तो वर्तमान में रागद्वेष रूपी अपराध को छोडने का संकल्प लेना होगा।

अतीत में कोई अपराध हो गया कोई बात नहीं। स्वीकार भी कर लिया। दण्ड भी ले लिया। अब आगे प्रायश्चित करके भविश्य के लिये अपराध नहीं करने का संकल्प ले लेता है वह ईमानदार कहलाता है।

वह अपराध अतीत का है वर्तमान का नहीं। वर्तमान यदि अपराधमुक्त है तो भविश्य भी उज्ज्वल हो सकता है। यह वर्तमान पुरुषार्थ का परिणाम है। भगवान महावीर यह कहते हैं कि डरो मत! तुम्हारा अतीत पापमय रहा है, किंतु यदि वर्तमान सच्चाई के लिये है तो भविष्य अवश्य उज्ज्वल रहेगा। भविष्य में जो व्यक्ति आनन्द पूर्वक, शांतिपूर्वक जीना चाहते हैं उसे वर्तमान के प्रति सजग रहना पडेगा।

पाप केवल दूसरों की अपेक्षा से ही नहीं होता। आप अपनी आत्मा को बाहरी अपराध से सांसारिक भय के कारण भले ही दूर रख सकते हैं किंतु भावों से होने वाले पाप हिंसा, झूठ, चोरी आदि हटाये बिना आप पाप से मुक्त नहीं हो सकते। भगवान महावीर का जोर भावों की निर्मलता पर है, जो स्वाश्रित है। आत्मा में जो भाव रहेगा वही तो बाहर भी कार्य करेगा। अन्दर जो गन्दगी फैलेगी वह अपने आप बाहर आयेगी। बाहर फैलने वाली अपवित्रता के स्त्रोत की ओर देखना आवश्यक है। यही आत्मानुशासन है जो विश्व में शांति और आनन्द फैला सकता है।

जो व्यक्ति कषाय के वशीभूत होकर स्वयं शासित हुए बिना विश्व के ऊपर शासन करना चाहता है, वह कभी सफलता नहीं पा सकता। आज प्रत्येक प्राणी राग, द्वेष, विषय-कषाय और मोह मत्सर को संवरित करने के लिये संसार की अनावश्यक वस्तुओं का सहारा ले रहा है। यथार्थतः देखा जाये तो इन सभी को जीतने के लिये आवश्यक पदार्थ एक मात्र अपनी आत्मा को छोड कर और दूसरा नहीं। आत्मबल तत्त्व का आलम्बन ही एकमात्र आवश्यक पदार्थ है क्योंकि आत्मा ही परमात्मा के रूप में ढलने की योग्यता रखता है।

इस रहस्य को समझना होगा कि विश्व को संचालित करने वाला कोई एक शासनकर्ता नहीं है और न ही हम उस शासन के नौकर-चाकर है। भगवान महावीर कहते हैं प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है। परमात्मा की उपासना करके अनन्त आत्माएं स्वयं परमात्मा बन चुकी हैं और आगे भी बनती रहेंगी। हमारे अन्दर जो शक्ति राग, द्वेष और मोह रूपी विकारों के कारण तिरोहित हो चुकी हैं उस शक्ति को उद्घाटित करने के लिये और आत्मानुशाषित होने के लिये समता भाव की अत्यंत आवश्यकता है।

वर्तमान में समता का अनुसरण न करते हुए हम उसका विलोम परिणमन कर रहे हैं। समता का विलोम है तामस। जिस व्यक्ति का जीवन वर्तमान में तामसिक तथा राजसिक है, सात्विक नहीं है, वह व्यक्ति भले ही बुद्धिमान हो, वेदपाठी हो तो भी तामसिक प्रवृत्ति के कारण कुपथ की ओर बढता रहेगा। यदि हम अपनी आत्मा को राग, द्वेष, मोह, मद, मत्सर से कलंकित हो चुकी है, विकृत हो चुकी है, उसका संशोधन करने के लिये महावीर भगवान की जयंति मनाते हैं तो यह उपलब्धि होगी। केवल लम्बी-चौडी भीड के समक्ष भाषण आदि के माध्यम से प्रभावना होने वाली नहीं। प्रभावना उसके द्वारा होती है जो अपने मन के ऊपर नियंत्रण करता है और सम्यग्ज्ञान रूपी रथ पर आरूढ हो कर मोक्षपथ पर यात्रा करता है। आज इस रथ पर आरूढ होने की तैयारी होनी चाहिये।

राग की उपासना करना अर्थात राग की ओर बढना एक प्रकार से भगवान महावीर के विपरीत जाना है। यदि भगवान महावीर की ओर, वीतरागता की ओर बढना हो तो धीरे धीरे राग कम करना होगा। जितनी मात्रा में आप राग छोडते हैं, जितनी मात्रा में स्वरूप का दृष्टिपात आप करते हैं, समझिये उतनी मात्रा में आप आज भी महावीर भगवान के समीप हैं, उनके उपासक हैं। जिस व्यक्ति ने वीतराग पथ का आवलम्बन किया है उस व्यक्ति ने ही वास्तव में भगवान महावीर के पास जाने का प्रयास किया है। वही व्यक्ति आत्म-कल्याण के साथ-साथ विश्व कल्याण कर सकता है।

आप आज ही संकल्प कर लें कि हम अनावश्यक पदार्थों को, जो जीवन में किसी प्रकार से सहयोगी नहीं हैं, त्याग कर देंगे। जो आवश्यकताएँ हैं उनको भी कम करते जायेंगें। आवश्यकता से अधिक नहीं रखेंगे। भगवान महावीर का हमारे लिये यही दिव्य सन्देश है कि जितना बने, उतना अवश्य करना चाहिये। यथाशक्ति त्याग की बात है। जितनी आपकी शक्ति है, उतनी ऊर्जा और बल है तो कम से कम वीतरागता की ओर कदम बढाइए। सर्वाधिक श्रेष्ठ यह मनुष्य का पर्याय है। जबतक मनुष्य पर्याय के माध्यम से आप संसार की ओर बढने का इतना प्रयास कर रहे हैं तो यदि चाहें तो आध्यात्म की ओर बढ सकते हैं। शक्ति नहीं है ऐसा कहना ठीक नहीं है।

“संसार सकल त्रस्त है, पीडित व्याकुल विकल/इसमें है एक कारण/हृदय से नहीं हटाया विषय राग को/ हृदय में नहीं बिठाया वीतराग को/जो शरण, तारण-तरण”। दूसरे पर अनुशासन करने के लिये तो बहुत परिश्रम उठाना पडता है, पर आत्मा पर शासन करने के लिये किसी परिश्रम की आवश्यकता नहीं है। एकमात्र संकल्प की आवश्यकता है। संकल्प के माध्यम से मैं समझता हूँ आज का हमारा जीवन जो कि पतन की ओर है, वह उत्थान की ओर, पावन बनने की ओर जा सकता है। स्वयं को सोचना चाहिये कि अपनी दिव्य शक्ति का हम कितना उपयोग कर रहे हैं।

आत्मानुशासन से मात्र अपनी आत्मा का ही उत्थान नहीं होता अपितु बाहर जो भी चैतन्य है, उन सभी का भी उत्थान होता है। आज भगवान का जन्म नहीं हुआ था, बल्कि राजकुमार वर्धमान का जन्म हुआ था। जब स्वयं उन्होने वीतरागता धारण कर ली, वीतराग-पथ पर आरूढ हुए और आत्मा को स्वयं जीता, तब भगवान महावीर बने। आज मात्र भौतिक शरीर का जन्म हुआ था। आत्मा तो अजन्मा है। वह तो जन्म-मरण से परे है। आत्मा निरंतर परिमनशील शाश्वत द्रव्य है। भगवान महावीर जो पूर्णता में ढल चुके हैं उन पवित्र दिव्य आत्मा को मैं बार बार नमस्कार करता हूँ। “यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर। हरी भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर”।

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