आचार्यश्री समयसागर जी महाराज इस समय डोंगरगढ़ में हैंयोगसागर जी महाराज इस समय चंद्रगिरि तीर्थक्षेत्र डोंगरगढ़ में हैं Youtube - आचार्यश्री विद्यासागरजी के प्रवचन देखिए Youtube पर आचार्यश्री के वॉलपेपर Android पर आर्यिका पूर्णमति माताजी डूंगरपुर  में हैं।दिगंबर जैन टेम्पल/धर्मशाला Android पर Apple Store - शाकाहारी रेस्टोरेंट आईफोन/आईपैड पर Apple Store - जैन टेम्पल आईफोन/आईपैड पर Apple Store - आचार्यश्री विद्यासागरजी के वॉलपेपर फ्री डाउनलोड करें देश और विदेश के शाकाहारी जैन रेस्तराँ एवं होटल की जानकारी के लिए www.bevegetarian.in विजिट करें

परिचय

Acharya Vidyasagar Maharaj
संत कमल के पुष्प के समान लोकजीवन रूपी वारिधि में रहता है, संचरण करता है, डुबकियाँ लगाता है, किंतु डूबता नहीं। यही भारत भूमि के प्रखर तपस्वी, चिंतक, कठोर साधक, लेखक, राष्ट्रसंत आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के जीवन का मंत्रघोष है।
विद्यासागरजी का जन्म कर्नाटक के बेलगाँव जिले के गाँव चिक्कोड़ी में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा), संवत्‌ २००३ को हुआ था। श्री मल्लप्पाजी अष्टगे तथा श्रीमती अष्टगे के आँगन में जन्मे विद्याधर (घर का नाम पीलू) को आचार्य श्रेष्ठ ज्ञानसागरजी महाराज का शिष्यत्व पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। राजस्थान की ऐतिहासिक नगरी अजमेर में आषाढ़ सुदी पंचमी विक्रम संवत्‌ २०२५ को लगभग २२ वर्ष की आयु में संयम धर्म के परिपालन हेतु उन्होंने पिच्छी कमंडल धारण करके मुनि दीक्षा धारण की थी। नसीराबाद (अजमेर) में गुरुवर ज्ञानसागरजी ने शिष्य विद्यासागर को अपने करकमलों से मृगसर कृष्णा द्वितीय संवत्‌ २०२९ को संस्कारित करके अपने आचार्य पद से विभूषित कर दिया और फिर आचार्यश्री विद्यासागरजी के निर्देशन में समाधिमरण हेतु सल्लेखना ग्रहण कर ली।
विद्यासागरजी में अपने शिष्यों का संवर्धन करने का अभूतपूर्व सामर्थ्य है। उनका बाह्य व्यक्तित्व सरल, सहज, मनोरम है किंतु अंतरंग तपस्या में वे वज्र से कठोर साधक हैं। कन्नड़ भाषी होते हुए भी विद्यासागरजी ने हिन्दी, संस्कृत, कन्नड़, प्राकृत, बंगला और अँग्रेजी में लेखन किया है। उन्होंने ‘निरंजन-शतकं’, ‘भावना-शतकं’, ‘परीषह-जय-शतकं’, ‘सुनीति-शतकं’ व ‘श्रमण-शतकं’ नाम से पाँच शतकों की रचना संस्कृत में की है तथा स्वयं ही इनका पद्यानुवाद भी किया है। उनके द्वारा रचित संसार में सर्वाधिक चर्चित, काव्य प्रतिभा की चरम प्रस्तुति है- ‘मूकमाटी’ महाकाव्य। यह रूपक कथा काव्य, अध्यात्म, दर्शन व युग चेतना का संगम है। संस्कृति, जन और भूमि की महत्ता को स्थापित करते हुए आचार्यश्री ने इस महाकाव्य के माध्यम से राष्ट्रीय अस्मिता को पुनर्जीवित किया है। उनकी रचनाएँ मात्र कृतियाँ ही नहीं हैं, वे तो अकृत्रिम चैत्यालय हैं। उनके उपदेश, प्रवचन, प्रेरणा और आशीर्वाद से चैत्यालय, जिनालय, स्वाध्याय शाला, औषधालय, यात्री निवास, त्रिकाल चौबीसी आदि की स्थापना कई स्थानों पर हुई है और अनेक जगहों पर निर्माण जारी है। कितने ही विकलांग शिविरों में कृत्रिम अंग, श्रवण यंत्र, बैसाखियाँ, तीन पहिए की साइकलें वितरित की गई हैं। शिविरों के माध्यम से आँख के ऑपरेशन, दवाइयों, चश्मों का निःशुल्क वितरण हुआ है। ‘सर्वोदय तीर्थ’ अमरकंटक में विकलांग निःशुल्क सहायता केंद्र चल रहा है। जीव व पशु दया की भावना से देश के विभिन्न राज्यों में दयोदय गौशालाएँ स्थापित हुई हैं, जहाँ कत्लखाने जा रहे हजारों पशुओं को लाकर संरक्षण दिया जा रहा है। आचार्यजी की भावना है कि पशु मांस निर्यात निरोध का जनजागरण अभियान किसी दल, मजहब या समाज तक सीमित न रहे अपितु इसमें सभी राजनीतिक दल, समाज, धर्माचार्य और व्यक्तियों की सामूहिक भागीदारी रहे।

आचार्यश्री प्रतिदिन प्रातःकाल ‘जयधवला’ पुस्तक सातवीं संघस्थ साधुओं के लिए एवं अपरान्ह काल ‘प्रवचनसार’ का स्वाध्याय श्रावकजनों को कराते हैं। प्रत्येक रविवार एवं विशिष्ट पर्व के दिनों में आचार्यश्री का सार्वजनिक प्रवचन मध्याह्न ३ बजे से होता है।

‘जिन’ उपासना की ओर उन्मुख विद्यासागरजी महाराज तो सांसारिक आडंबरों से विरक्त हैं। जहाँ वे विराजते हैं, वहाँ तथा जहाँ उनके शिष्य होते हैं, वहाँ भी उनका जन्म दिवस नहीं मनाया जाता। तपस्या उनकी जीवन पद्धति, अध्यात्म उनका साध्य, विश्व मंगल उनकी पुनीत कामना तथा सम्यक दृष्टि एवं संयम उनका संदेश है।

वचनामृतों से जनकल्याण में निरत रहते हुए व साधना की उच्चतर सीढ़ियों पर आरोहण करते हुए आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज समग्र देश में पद-विहार करते हैं। भारत-भूमि का कण-कण तपस्वियों की पदरज से पुनीत हो चुका है। इस युग के तपस्वियों की परंपरा में आचार्यश्री विद्यासागरजी अग्रगण्य हैं। वीतराग परमात्मा बनने के मार्ग पर चलने वाले इस पथिक का प्रत्येक क्षण जागरूक व आध्यात्मिक आनंद से भरपूर होता है। उनका जीवन विविध आयामी है। उनके विशाल व विराट व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष उनकी कर्मस्थली है।

पदयात्राएँ करते हुए उन्होंने अनेक मांगलिक संस्थाओं, विद्या केन्द्रों के लिए प्रेरणा व प्रोत्साहन का संचार किया है। उनके आगमन से त्याग, तपस्या व धर्म का सुगंधित समीर प्रवाहित होने लगता है। लोगों में नई प्रेरणा व नए उल्लास का संचरण हो जाता है। असाधारण व्यक्तित्व, कोमल, मधुर और ओजस्वी वाणी व प्रबल आध्यात्मिक शक्ति के कारण सभी वर्ग के लोग आपकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। कठोर तपस्वी, दिगम्बर मुद्रा, अनन्त करुणामय हृदय, निर्मल अनाग्रही दृष्टि, तीक्ष्ण मेधा व स्पष्ट वक्ता के रूप में उनके अनुपम व्यक्तित्व के समक्ष व्यक्ति स्वयं नतशिर हो जाते हैं।

कर्नाटक प्रांत के बेलगाँव जिले के सदलगा गाँव के धर्मवत्सल श्रावक श्री मल्लप्पाजी अष्टगे तथा श्रीमती श्रीमंतीजी अष्टगे को उनके माता-पिता होने का सौभाग्य मिला। यह दम्पति अक्किवाट स्थित श्री भट्टारक ‘विद्यासागर’ की समाधि के दर्शन को जाया करते हैं। आचार्यश्री विद्यासागरजी का नाम उक्त दम्पति ने उन्हीं भट्टारक के नाम पर ‘विद्याधर’ रखा। अल्पवय में ही इनकी आध्यात्मिक अभिरुचि परिलक्षित होने लगी थी। खेलने की उम्र में भी वीतरागी साधुओं की संगति इन्हें प्रिय थी। मात्र ९ वर्ष की बाल्यावस्था में आचार्यश्री शांतिसागरजी महाराज के प्रवचन सुनकर इन्होंने आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का संकल्प कर लिया था। जिस उम्र में अन्य बालक बालमित्रों के साथ खेल में समय बिताया करते हैं, तब ये मंदिर में, प्रवचन में, चिंतन में लीन रहते थे। मानो मुनि दीक्षा के लिए मनोभूमि तैयार हो रही थी। ज्ञानावरणीय कर्म का प्रबल क्षयोपशम था, संयम के प्रति अंत:प्रेरणा तीव्र थी, अतः किशोरवय में ही आपने जयपुर में विद्यमान आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज से ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया।
ज्ञानार्जन के लिए वे आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज के समीप १९६७ ई. में मदनगंज किशनगढ़ (अजमेर) राजस्थान पहुँचे। मूलाचार में वर्णित मुनि-आचार की मूर्तिमन्त प्रतिमा आचार्यश्री ज्ञानसागरजी मुनि महाराज वस्तुतः ज्ञान के अगाध सागर ही थे। शास्त्रीय पद्धति के अनेक संस्कृत महाकाव्यों के प्रणेता तथा जैन दर्शन के वे महान वेत्ता थे। विद्याधर ब्रह्मचारी को योग्य गुरु व गुरु को योग्य शिष्य की प्राप्ति हुई। आपकी अप्रतिम योग्यता को देखकर आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने आपको न केवल हिन्दी, संस्कृत, न्याय दर्शन आदि विषयों की शिक्षा दी, अपितु विक्रम संवत्‌ २०२५ की आषाढ़ शुक्ल पंचमी, रविवार (३० जून, १९६८ ई.) को दिगम्बर मुनि-दीक्षा भी प्रदान कर दी। बहुत शीघ्र ही मार्गशीर्ष कृष्णा दूज, बुधवार संवत्‌ २०२९ (२२ नवम्बर १९७२ ई.) को आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने उन्हें अपने आचार्य-पद से विभूषित किया और स्वयं आचार्यश्री विद्यासागरजी के निर्देशन में सल्लेखना ग्रहण की। आचार्यश्री विद्यासागरजी ने भी अत्यंत तन्मयता व तत्परता से अपने गुरु के समाधिमरण में सहयोग दिया व उल्लेखनीय वैयावृत्ति भी की। वह ज्ञात इतिहास की संभवतः प्रथम घटना थी, जब किसी भी जैनाचार्य ने शिष्य को अपने जीवनकाल में ही स्वकर-कमलों से आचार्य-पद का संस्कार-आरोपण किया था।

आचार्यश्री की प्रेरणा से उनके परिवार के छः सदस्यों ने भी जैन साधु के योग्य संन्यास ग्रहण किया। उनके माता-पिता के अतिरिक्त दो छोटी बहनों व दो छोटे भाइयों ने भी आर्यिका एवं मुनिदीक्षा धारण की।

आचार्यश्री विद्यासागरजी का बाह्य व्यक्तित्व भी उतना ही मनोरम है, जितना अंतरंग, तपस्या में वे वज्र से कठोर हैं, पर उनके मुक्त हास्य और सौम्य मुखमुद्रा से कुसुम की कोमलता झलकती है। वे आचार्य कुन्दकुन्द और समन्तभद्र की परम्परा को आगे ले जाने वाले आचार्य हैं तथा यशोलिप्सा से अलिप्त व शोर-शराबे से कोसों दूर रहते हैं। शहरों से दूर तीर्थों में एकान्त स्थलों पर चातुर्मास करते हैं। आयोजन व आडम्बर से दूर रहने के कारण प्रस्थान की दिशा व समय की घोषणा भी नहीं करते हैं। वे अपने दीक्षार्थी शिष्यों को भी पूर्व घोषणा के बिना ही दीक्षा हेतु तैयार करते हैं। हाथी, घोड़े, पालकी व बैण्ड-बाजों की चकाचौंध से अलग सादे समारोह में दीक्षा का आयोजन करते हैं।

इस युग में ऐसे संतों के दर्शन अलभ्य-लाभ है। आचार्यश्री जैसे तपोनिष्ठ व दृढ़संयमी हैं, वैसी ही उनकी शिष्यमण्डली भी है। धर्म के पथ पर उग आई दूब को उखाड़ फेंकने में यह शिष्य-मंडली अवश्य समर्थ होगी। केवल कथनी में धर्मामृत की वर्षा करने वालों की भीड़ के कारण धर्म के क्षेत्र में दुःस्थिति बनी हुई है। आचार्यश्री विद्यासागरजी जैसे संत इस दुःस्थिति में आशा की किरण जगाते हैं।

योगी, साधक, चिन्तक, आचार्य, दार्शनिक आदि विविध रूपों में उनका एक रूप कवि भी है। उनकी जन्मजात काव्य प्रतिभा में निखार संभवतः उनके गुरुवर ज्ञानसागरजी की प्रेरणा से आया।

आपका संस्कृत पर वर्चस्व है ही, शिक्षा कन्नड़ भाषा में होते हुए भी आपका हिन्दी पर असाधारण अधिकार है। हिन्दी में आपने दो प्रकार की रचनाएँ की हैं – पहली प्राचीन आचार्यों की रचनाओं का पद्यात्मक अनुवाद। योगसार, इष्टोपदेश, समाधितन्त्र, एकीभाव स्तोत्र, कल्याणमंदिर स्तोत्र, पात्रकेसरी स्तोत्र, आत्मानुशासन (गुणोदय), समणसुत्तं (जैन गीता), समयसार (कुन्दकुन्द का कुन्दन), समयसार कलश (निजामृतपान), रत्नकरण्ड श्रावकाचार (रयण-मंजूषा), स्वयंभू स्तोत्र (समन्तभद्र की भद्रता), द्रव्यसंग्रह, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, नन्दीश्वर भक्ति, गोमटेश थुदि (गोमटेश अष्टक) अष्टपाहुड, द्वादश-अनुप्रेक्षा, देवागम स्तोत्र आदि का पद्यमय विभिन्न छन्दों में कमनीय शैली में अनुवाद किया है।

उनके सारे महाकाव्यों में अनेक सूक्तियाँ भरी पड़ी हैं, जिनमें आधुनिक समस्याओं की व्याख्या तथा समाधान भी है, जीवन के सन्दर्भों में मर्मस्पर्शी वक्तव्य भी है। सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक क्षेत्रों में व्याप्त कुरीतियों का निदर्शन भी है। आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज वीतराग, निस्पृह, करुणापूरित, परीषहजयी समदृष्टि-साधु के आदर्श मार्ग के लिए परम-आदर्श हैं, उनके चरणों में कोटिशः नमन।

आत्म विद्या के पथ-प्रदर्शक : जैनाचार्य विद्यासागर

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