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भारतीयता के पक्षधर अद्वितीय संत विद्यासागर

– निर्मलकुमार पाटोदी

भारत के इतिहास में जब भी संकट, विघ्न, बाधाएँ उत्पन्न हुई हैं, तब समाधान के लिए किसी युगपुरुष का अवतरण हुआ है। वर्तमान में इसी परंपरा में विलक्षण संत कन्नड़ भाषी, कवि, लेखक, प्रकाण्ड पण्डित, अध्यात्म वेत्ता, कठोर आत्म तपस्वी और परमउपकारी विद्यासागर हमारे बीच में हैं। वे हैं तो दिगंबर मुनि, आचार्य, लेकिन जैन समाज ही नहीं अजैन समाज के लोग भी उनके प्रति अगाध श्रद्धाभाव रखते हैं। आपकी वाणी को सभी समुदाय के लोग पवित्र वचनों की तरह आत्मसात करते हैं। आपसे मिलने प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, शंकराचार्य और हर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र की विभिन्न विचारधार की सुविज्ञ हस्तियाँ पहुँचती रही हैं।

दिव्यमूर्ति विद्यासागर का कहना है कि भारतीय संस्कृति को नज़र अंदाज कर विदेशी संस्कृति की तरफ़ दौड़ लगाई जा रही है। यह जानते हुए कि विदेशी संस्कृति को अपनाकर जीवन का उद्धार नहीं किया जा सकता। विदेशी संस्कृति सम्मानपूर्वक जीने की सीख नहीं देती है, बल्कि भारतीय संस्कारों का पतन कराने में अहम भूमिका निभाती है। हम भविष्य में ज्ञान बढ़ाना चाहते हैं, परंतु अतीत की तरफ नहीं देखते। शिक्षा एक संकेत है, जिसके चारों कोणों को जानना आवश्यक है। आंखें हैं, परंतु फिर भी देख नहीं पा रहे हैं। शिक्षा सूत्रों को खोलने की ओर इंगित करती है। उन्हें देख नहीं रहे हैं। शिक्षक गाइड नहीं हो सकता। मूल्य की ओर बढ़ने की ज़रूरत है। सत्य यह है कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ही ज्ञात नहीं हो पा रहा है। संकेत दिशा सूचक है। जिसे श्रुत ज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान के बिना श्रुत ज्ञान की कोई अवधारणा नहीं है। हेय और उपादेय जाग्रत होता है श्रुतज्ञान के माध्यम से। विषय तीन होते हैं-कर्ता, कार्य और कर्म। शिक्षा में इन तीनों का समावेश ज़रूरी है। आज भी शिक्षा की सही दिशा का निर्धारण नहीं हो पा रहा है।

आत्म कल्याणी और भारतीय संस्कृति के पोषक संत शिरोमणि विद्यासागर को पक्का विश्वास है कि स्वराज्य को दशा और दशा को बदलना है, तो शिक्षा, भाषा, न्याय और सरकार ये चारों एक-दूसरे के पूरक हैं। इनमें वांछित सुधार करने से वांछित परिवर्तन नहीं हो सकेगा। चारों क्षेत्रों में स्वाधीनता के मूल्यों की आवश्यकता के अनुसार समग्र सुधार करना होगा, तब ही भारत, भारतीय और भारतीयता से देश साक्षात्कार कर सकेगा। आंग्ल भाषा भारत देश की संस्कृति, इतिहास, जीवनदर्शन को नष्ट कर हमारे स्वाभिमान, गौरव एवं आस्था को नष्ट कर रही है। साहित्य, संस्कृति एवं समाज का दर्पंण होता है। अंग्रेज़ी के कारण सब नष्ट हो रहा है। अपनी विशिष्ट शैलि में सम्बोधित करते हुए- “भारतीयों सुन रहे हो ना, ये स्वाभिमान की बात है। स्वाभिमान का अर्थ समझते हो?”

ये अभिमान की बात नहीं है, मर्यादा की बात है। हमने कायिक और वाचनिक स्वतंत्रता ही नहीं ली अपितु मानसिक स्वतंत्रता भी ली है। जिस कारण अपनी सांस्कृतिक धरोहर को पुन: जीवित कर ली। संस्कृति भाषा से संबंध रखती है। हमारा वैचारिक आदान-प्रदान, शिक्षण, पठन-पाठन, चिन्तन-मनन, लेखन-वाचन सब कुछ स्वभाषा में होना चाहिए। पूरा देश अंग्रेज़ी के मामले में सर्वसम्मत नहीं है, फिर भी सर्वतंत्र पर उसने अपना अधिकार जमा रखा है। इससे देश का स्वाभिमान कैसे बढ़ सकता है? आप माँ-पिता के साथ किस भाषा में बात करते हैं? परिवार के साथ आप किस भाषा में बात करते हैं? अपनी भावाभिव्यक्ति किस भाषा भाषा में करते हैं? मातृभाषा के बिना तो कर ही नहीं सकते। करते हैं तो आप घर के सदस्य कैसे माने जा सकते हैं। इंग्लिश सीख लेने से क्या आप इंग्लिश में रोते हो या इंग्लिश में हंसते हो?

आज पूरे देश के शहरों में जहां भी जाओ भारतीय भाषाओं का लोप किया जा रहा है। सब जगह। इंग्लिश-इंग्लिश का बोलबाला हो गया है। महिलाएं भी सँस्कार खो बैठी हैं। वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा सब समाप्त हो गया है। क्या इसका नाम स्वतंत्रता है? …मैं इसको स्वतंत्रता नहीं मानता, मैं इसका समर्थक न था, न हूं, न रहूंगा। यदि मेरी बात अच्छी लगती हो, तो आप लोगों को इस दिशा में अभियान चालू कर देना चाहिए। यह कोई देशद्रोह नहीं होगा बल्कि देश की संस्कृति को सुरक्षित रखने का पवित्र अभियान होगा। स्वतंत्रता का झूठा अभिमान मत करो, किंतु मर्यादा सिखाने वाली संस्कृति को सुरक्षित करने का स्वाभिमान जागृत करो, यही एक मात्र देशभक्ति है। भाषा के माध्यम से भावों का आदान-प्रदान होता है। ऐसे भावों का प्रचार-सम्प्रेषण करें जिससे भारत में भारत वापस लौट आयें। भाषा की स्वतंत्रता जब तक नहीं तब तक देश की उन्नति आप नहीं कर सकते। आज देशी-विदेशी विद्वानों ने, दार्शनिकों ने, वैज्ञानिकों ने कहा है-जिस राष्ट्र में अपनी भाषा नहीं उसका कभी भी ठीक से विकास नहीं हुआ, ‘न भूतों, न भविष्यति।”

परम उपकारी संत विद्यासागर का स्पष्ट मानना है कि शिक्षा को सुलभ और भारतीय परंपरा के अनुरूप बनाने से ही राष्ट्र की तस्वीर को बेहतर बनाया जा सकेगा। आपका मानना है शिक्षा भारत मेंभारतीय भाषाओं के माध्यम से अनिवार्य होना चाहिए, तब ही भारत की तस्वीर बदल सकती है।

श्रमण संस्कृति के उपासक विद्यासागर कहना है कि शिक्षा की कोई सीमा नहीं होती, परंतु सीमा के बिना असीमित तक नहीं पहुंच सकते। राग, द्वेष और मोह छोड़ने के लिए आपको कोई रोकेगा नहीं। तब भी आप

तीन लोक को जान सकेंगे। लक्ष्य तक क़दम बढ़ने के पहले क्रम की ओर जाना होगा। जब भूख मिटानी होती है, तो हम भोजन करते हैं। क्रम से करते हैं। पुरुषार्थ अपव्यय में जा रहा है, फिर भी लक्ष्य तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। विपरित दिशा वाला जब आक्रमण करता है, तो अपने बचाव में प्रयत्न करना पड़ता है। ऐसे ही जीवन में एक हाथ में तलवार और एक में ढाल है। अपनी स्वतंत्रता की पहचान केवल ध्वजारोहण से नहीं हो सकती है। लोकतंत्र की मज़बूती से ही स्वतंत्रता सुरक्षित रह सकती है। सही दिशा में जब तक क़दम नहीं उठाएंगे, तब तक व्यवस्थाओं में परिवर्तन नहीं आ सकता है। महाभारत में गीता का प्रसंग यही सीख देता है कि रणभूमि में उतरे बिना विजयी नहीं हुआ जा सकता है। धर्म, अर्थ और काम के पुरुषार्थ से ही आप यशस्वी बन सकते हो।

निष्काम तपोमूर्ति विद्यासागर का कहना है कि नीति गुरु के कान को भी मोड़ सकती है क्योंकि नीति ही उठाती है और गिराती है। अब सिर्फ शोध की बात मत करों। द्रव्य का अर्थ केवल धन नही होता है। सिर्फ तीन घण्टे में विद्यार्थी की सम्पूर्ण परीक्षा नहीं हो सकती है। माता-पिता की आज्ञा का पालन

करके ही वह सफल हो सकता है। मन और तन दोनों को हवा की जरुरत होती है, परंतु हवा सकारात्मक होना चाहिए। मन के लड्डुओं खाए जा रहे हैं और उपवास की बात की जा रही है। मन को हवा से बचाने की जरुरत है। नीति से जो च्युत हो जाता है, उसके कान पकड़ने के लिए नीति की ही जरुरत होती है। मेरे गुरु ज्ञानसागर जी ने कहा था मैं भारत के रथ को देखना चाहता हूँ। प्रतिभा रथ के रूप में हमें सम्पन्न संस्कारों से युक्त भारत देखना है। भारत गुरु से लघु इसलिए हुआ, क्योंकि वह संस्कारों से विमुख हो गया है। भविष्य की बातें करते

हैं, वर्तमान की ओर दृष्टि नहीं जा रही है। ऐसा कर्त्तव्य करों कि संसार का तीर बन जाओ, इस धरती के वीर बन जाओ। सब छोड़ देना, नीति और न्याय को नहीं छोड़ना। तब ही भारत को शिखर पर पहुँचाया जा सकता है।

युगदृष्टा विद्यासागर का मानना है कि मानव का दिल और दिमाग़ ठिकाने पर रहेगा, तब आणविक शक्ति उसके विरुद्ध नहीं होगी। ऐसे ही नीति और न्याय को कायम रखोगे, तो दुनिया की कोई शक्ति भारत काकुछ बिगाड़ नहीं पाएगी। निकट देखने के लिए दूरदृष्टि की जरुरत है, दूरबीन की नही। आचार संहिता बनने के बाद उसका उल्लंघन ठीक नहीं होता है। धरती का स्वभाव देखो, वह अहिंसा है। शिक्षा का हित और अहित नहीं है, आगे बढ़ने का साधन है। एक आंख एक हाथ से काम हो सकता है, परंतु एक पंख से उड़ान नहीं भरी जा सकती है। जब दोनों पंख काम करते हैं, तब ही उड़ान प्रारंभ होती है। कोष के अभाव में राजा का कोई अस्तित्व नहीं होता है। शब्दकोश के अभाव में कवि का अस्तित्व नहीं होता है। ग्राम में जो संग्राम हो रहा है, उस पर विराम लगाओ। जनता को उसके अधिकारों से वंचित नहीं रखों।

युगांतकारी संत विद्यासागर का चिंतन है कि ज्ञान मेरा स्वभाव है, पर जब सामने कुछ होता है तब जान पाता हूं। विचारों के लिए वस्तु चाहिए। कुछ कमी हो तो उसकी पूर्ति ज्ञान के माध्यम से कर सकते हैं।

प्रयोग के अभाव में ज्ञान जाग्रत नहीं होता। जो है उसका अभाव नहीं होता। जो नहीं है, उसका उत्पाद नहीं होता। ज्ञान रा घाना पड़ना ही अज्ञानता होता है। हमने प्रकाश को काम में लिया है। प्रकाश के बारे में कुछ

नहीं किया। अज्ञानता में अपने अस्तित्व को भूल जाते हैं। दुनिया को देखोगे, तो ‘ मैं’ को नहीं देखोगे और ‘मैं’ को देखोगे तो दुनिया नहीं दिखाई देगी। अपनी दृष्टि नासा पर रखोगे, तो आपको निंद्रा नहीं आएगी।

नासा का मतलब है कि किसी आशा पर दृष्टि रखोगे, तो कुछ नहीं मिलेगा। ज्ञान एक गुण है, जो कभी कर्ता नहीं बनता है। शक्ति काम में लायी जाती है, वह काम नहीं करती है। हम अधूरा जीवन जी रहे हैं।जीवन की कला को सीखना होगा। जीवन में प्रयोगों को प्राथमिकता देना चाहिए। प्रयोगधर्मी बनना टचाहिए। प्राणों के अंत तक आपको शिक्षा का प्रयोग करना है। विदेश को छोड़ कर अपने तक आना होगा। भाषा को भावों के माध्यम से दिल तक और प्राणों तक ले जाएं। पढ़ना-लिखना बाहर तक रह जाता है। भीतर जाने के लिए सुनने की कला सीखनी होगी। शब्दों को सुन कर ही भीतर की यात्रा हो सकती है। आत्मा मरती नहीं है, परंतु पल-पल आत्मा को मार रहे हैं। जीवन के मूल्यांकन के लिए प्रबंध शोध की जरुरत है।

विश्वविद्यालय खोलने से पहले अपने मन को खोलो। भीतर की तरंग को खोलो। देश को छोड़ कर विदेश जा रहे हैं। यह वरदान नहीं है, अभिशाप साबित हो रहा है। राष्ट्रीय पक्ष से नीति बनाओ। पक्ष को छोड़ो, पक्षपात को छोड़ो। मैं इसी का पक्षधर हूँ। पंख होते हुए उड़ान भूल गए। ज्ञान के रहते हुए भी अज्ञान की दशा को प्राप्त हो गए। सब मिल कर उड़ान भरो। आप तो सोने की चिड़िया हो। अब जो तरंग उठी है उसे और तेज़ी से उठाओ। हमें रणनीति और राजनीति से ऊपर उठकर प्राचीन भारत की नीति को अपनाने की जरुरत है। विचार करिए आज भारत के ९० प्रतिशत इंजीनियर बेकार हैं। यह सुनकर बुरा लगता है। ७३ वर्षों में भी हमें जो होना चाहिए, कुछ कर नहीं पा रहे है। आज की शिक्षा कठिन दौर से गुज़र रही है। निरुद्देश्य शिक्षा कोई मूल्य नहीं रखती है। वह तो ऋण को ही बढ़ाने वाली है।

जबकि रोजगार की प्राप्ति नहीं हो रही है। सोचने की जरुरत है हम ऋणी क्यों होते जा रहे हैं? वास्तविक उन्नति तक क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं? परलोक को स्वीकार कर रहे हैं, इहलोक को नहीं देख पा रहे हैं। विदेशी भाषा और शिक्षानीति पर चल कर गर्त में जाने का रास्ता हम ख़ुद ही बना रहे है। शिक्षा तो दिशाबोध है इष्ट की प्राप्ति के लिए, परंतु अनिष्ट की ओर बढ़ रहे हैं। आप कर्ता हैं, कार्य की दिशा में बढ़े, कर्म को प्रधानता दें। सही दिशा और सही शिक्षा नीति के लिए संशोधन हो। विद्यालय का वास्तविक अर्थ जाने। आज विकास के नाम पर अंधानुकरण चल रहा है। जिसे भेड़ चाल कहा जाता है। भारतीय युवा विदेशी सभ्यता को अपनाने के लिए कसरत कर रहे हैं, जो कि मात्र पतन का कारण है।

सरल आत्मानुभवी विद्यासागर ने जनवरी माह की पहली तारीख़ को विदेशी सभ्यता से दूर रहने की सीख देते हुए व्यक्त किया कि तारीख़ नहीं भारतीय तिथि को मानकर मुहूर्त के अनुसार माँगलिक कार्य किये जाते हैं।

भारतीयता के पोषक विद्यासागर का कहना है कि भारत का नया साल जनवरी से प्रारंभ नहीं होता है, बल्कि चैत्र महिने से होता है। लेकिन विदेशी संस्कृति का भारतीय लोगों के दिलोदिमाग़ में स्थान बना लेने के कारण ही जनवरी की एक तारीख को ही नए साल का आग़ाज़ मानकर ख़ुशियाँ मना लेते हैं। हमारा नया साल चैत्र माह के प्रारंभ होते ही शुरू हो जाता है। नये साल की खुशी चैत्र माह से मनानी चाहिए, विदेशी जनवरी पर नहीं। लेकिन सब कुछ विपरित हो रहा है। आवश्यकता यह है कि भारतीय विदेशी संस्कृति को तिलांजलि देकर देशी संस्कृति को अपनाये। तभी जीवन में उम्मीदों की बयार बहने के साथ सफलता मिलेगी।

१३५ बाल ब्रह्मचारी मुनि और १७२ आर्यिका माताओं के गुरु विद्यासागर का मानना है संस्कारों की प्रथम पाठशाला माता और पिता होते हैं। द्वितीय गुरु और तृतीय गुरुकुल। माता-पिता के संस्कारों से बालक की नींव मज़बूत होती है। गुरु आधार शिला हैं और गुरुकुल सम्पूर्णता की ओर ले जाता है। कभी भारत शिक्षा का ऐसा केंद्र था, जहाँ दुनिया भर के लोग शिक्षा प्राप्त करने के लिए लालायित रहते थे। आज ठीक उसके विपरित भारत का भाग्य विधाता युवा अपनी मौलिक शिक्षा को छोड़ कर परदेश की ओर रुख़ कर रहा है। स्वतंत्रता के बाद हमारे संस्कारों की बुनियाद ही चरमरा गयी है। गुरु, गुरुकुल और माता-पिता के संस्कारों की बुलंद इमारत भरभरा कर धरासयी हो चुकी है। ये चिंतन, मनन, शोध और अनुसंधान का विषय है।

सदगुरु विद्यासागर का कहना है कि आज के अर्जुन को गांडिव उठाने की ज़रूरत है। शिक्षा लक्ष्य तक पहुँचने का एक संकेत है। प्यासे की प्यास जल की धारा से मिटाई जा सकती है। मातृभाषा वो जलधार है, जो शिक्षा की प्यास को मिटा सकती है। भाषा तो औषधि का काम करती है। लोककल्याण के भावक विद्यासागर का मानना है कि विद्यालय, विद्यार्थी के समग्र विकास, सामाजिक, राष्ट्रीय प्रगति, सभ्यता व संस्कृति के उत्थान के केन्द्र होते हैं। अनेक विश्व प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र भारत भूमि पर संचालित थे।

तप: पूत का चिंतन है कि शिक्षा के प्राचीन ज्ञान-केन्द्र, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वालभी, सौमपुरा, ओडांदपुरी में ज्ञानार्जन के लिए विदेशों से विद्यार्थी आते थे, ज्ञान की उस प्राचीन विशेषता को पुनर्जीवित करना होगा। शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से दी जाय। दुनिया की भाषाओं के ज्ञान के लिए हमारी भाषाओं के ज्ञान की खिड़कियां खुली रहे। संविधान सम्मत अधिकारिक राजभाषा हिंदी एवं प्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा, प्रशासन और न्याय के क्षेत्र में समुचित महत्व दिया जाय। आपका उदघोष है-“अपना देश अपनी भाषा”, “इण्डिया हटाओ-भारत लौटाओ”। गुरुकुलों के प्राकृतिक परिसरों में ज्ञानी-ध्यानी, तपस्वी, कला-कौशल में निपुण गुरुओं के मार्गदर्शन में शिष्य-शिष्याएँ में छुपी अनंत संभावनाओं को प्रकट करते थे।

सदगुरु विद्यासागर की असीम अनुकंपा और दूरदृष्टि से कन्या आवासीय शिक्षण संस्थान पल्लवित, पुष्पित व फलित हो रहे हैं। जहाँ शिक्षा अर्थोपार्जन का साधन नहीं अपितु ज्ञान दान की पावन प्रक्रिया है। मनुष्य बुद्धि व गुणों के विकास और संस्कारों के संवर्धन से मानव बने और भारत प्रतिभा में निमग्न हो।जिनका ध्येय स्वस्थ्य तन, स्वस्थ्य मन, स्वस्थ्य वचन, स्वस्थ्य धन, स्वस्थ्य वन, स्वस्थ्य वतन, स्वस्थ्य चेतन है। महागुरु के आशीर्वाद के

के प्रसाद से गुरुकुल व गुरु-शिष्य परंपराओं की अनूठी परछाईं है-“‘प्रतिभा-स्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ।” जहां बालिकाओं का जीवन संवारने के लिए :-” जीवन का निर्वाह नहीं निर्माण” सूत्र को लक्ष्य करके जबलपुर (मध्यप्रदेश), चन्द्रगिरी, (छत्तीसगढ़), रामटेक,(नागपुर-महाराष्ट्र), पपौरा (टीकमगढ़-मध्यप्रदेश) और इंदौर (मध्यप्रदेश) में आपके मार्गदर्शन से बालब्रह्मचारिणी विदुषी प्रशिक्षित शिक्षिकाएं कन्याओं के उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु निष्काम, निस्वार्थ अहर्निश सेवाभाव से शिक्षा प्रदान करने का दायित्व परिपूर्ण कर रही हैं। सीबीएसई से मान्यता प्राप्त शिक्षा के ये सँस्थान आज के आधुनिक परिवेश में प्राचीन गुरुकुलों की स्मृति को पुनर्जीवित कर रहे हैं।

दूरदृष्टा योगीश्वर के आशीर्वाद से सन् १९९२ से युवकों के लिए “श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण सँस्थान” जबलपुर में संचालित है। यहाँ के लगभग पांच सौ युवक मध्यप्रदेश सरकार में सेवारत हैं। दिल्ली में यूपीएससी एवं आईएएस के लिए ‘अनुशासन’, इंदौर में “आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास”, ‘प्रतिभा-प्रतिक्षा’ तथा भोपाल में ‘अनुशासन सँस्थान’ जो संघ व न्यायिक सेवा परीक्षाओं की तैयारी हेतु संचालित है।

निर्मलकुमार पाटोदी
विद्या-निलय, ४५, शांति निकेतन
(बॉम्बे हॉस्पिटल के पीछे),
इंदौर-४५२ ०१० (मध्यप्रदेश)
सम्पर्क : ७८६९९-१७०७०
मेल: nirmal.patodi@gmail.com

 

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