आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने हायकू सन् 1996 में गिरनारजी यात्रा (तारंगाजी) के दौरान लिखना प्रारंभ किया।
दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज इन दिनों (Japanese Haiku, 俳句 ) जापानी हायकू (कविता) की रचना कर रहे हैं | हाइकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। महाकवी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लगभग 500 हायकू लिखे हैं, जो अप्रकाशित हैं। कुछ हायकू इस प्रकार हैं :-
१ – जुड़ो ना जोड़ो, जोड़ा छोड़ो जोड़ो तो, बेजोड़ जोड़ो।
२ – संदेह होगा, देह है तो देहाती ! विदेह हो जा |
३ – ज्ञान प्राण है, संयत हो त्राण है , अन्यथा श्वान|
४ – छोटी दुनिया, काया में सुख दुःख, मोक्ष नरक |
५ – द्वेष से बचो, लवण दूर् रहे, दूध न फटे |
६ – किसी वेग में, अपढ़ हो या पढ़े, सब एक हैं |
७ – तेरी दो आँखें, तेरी ओर हज़ार, सतर्क हो जा |
८ – चाँद को देखूँ, परिवार से घिरा, सूर्य सन्त है |
९ – मैं निर्दोषी हूँ, प्रभु ने देखा वैसा, किया करता।
१० – आज्ञा का देना, आज्ञा पालन से है, कठिनतम।
११ – तीर्थंकर क्यों, आदेश नहीं देते, सो ज्ञात हुआ।
१२ – साधु वृक्ष है, छाया फल प्रदाता, जो धूप खाता।
१३ – गुणालय में, एकाध दोष कभी, तिल सा लगे।
१४ – पक्ष व्यामोह, लौह पुरुष के भी, लहू चूसता।
१५ – पूर्ण पथ लो, पाप को पीठ दे दो, वृत्ति सुखी हो।
१६ – भूख मिटी है, बहुत भूख लगी, पर्याप्त रहें।
१७ – टिमटिमाते, दीपक को भी देख, रात भा जाती।
१८ – परिचित भी, अपरिचित लगे, स्वस्थ्य ध्यान में (बस हो गया)।
१९ – प्रभु ने मुझे, जाना माना परन्तु, अपनाया ना।
२० – कलि न खिली, अंगुली से समझो, योग्यता क्या है ?
२१ – आँखें लाल है, मन अन्दर कौन दोनों में दोषी?
२२ – इष्ट-सिध्दि में, अनिष्ट से बचना, दुष्टता नहीं।
२३ – सामायिक में, कुछ न करने की, स्थिति होती है।
२४ – मद का तेल, जल चुका सो बुझा , विस्मय दीप।
२५ – ध्वजा वायु से, लहराता पै वायु, आगे न आती।
२६ – ज्ञेय चिपके, ज्ञान चिपकाता सो, स्मृति हो आती।
२७ – तैराक बना, बनूँ गोताखोर सो, अपूर्व दिखे।
२८ – वर्षा के बाद, कड़ी मिट्टी सी माँ हो, दोषी पुत्र पे।
२९ – कछुवे सम, इन्द्रिय संयम से, आत्म रक्षा हो।
३० – डूबना ध्यान, तैरना स्वाध्याय है, अब तो डूबो।
३१ – गुरु मार्ग में, पीछे की वायु सम, हमें चलाते।
३२ – संघर्ष में भी, चंदन सम सदा, सुगन्धि बाटूँ।
३३ – प्रदर्शन तो, उथला है दर्शन, गहराता है।
३४ – योग साधन, है उपयोग शुद्धि, साध्य सिद्ध हो।
३५ – योग प्रयोग, साधन है साध्य तो, सदुपयोग।
३६ – धर्म का फल, बाद में न अभी है, पाप का क्षय।
३७ – पर पीड़ा से, अपनी करुणा सो, सक्रिय होती।
३८ – सीना तो तानो, पसीना तो बहा दो, सही दिशा में।
३९ – प्रश्नों से परे, अनुत्तर है उन्हें , मेरा नमन।
४० – फूल खिला पै, गंध न आ रही सो, काग़ज़ का है।
४१ – सरोवर का, अन्तरंग छुपा है ? तरंग वश।
४२ – मान शत्रु है, कछुवा बनूँ बचूँ, खरगोश से।
४३ – हायकू कृति, तिपाई सी अर्थ को, ऊँचा उठाती।
४४ – अधूरा पूरा, सत्य हो सकता है, बहुत नहीं।
४५ – भूख लगी है, स्वाद लेना छोड़ दें, भर लें पेट।
४६ – ज्ञानी कहता, जब बोलूँ अपना, स्वाद छूटता।
४७ – गुरू ने मुझे, प्रकट कर दिया, दीया दे दिया।
४८ – नीर नहीं तो, समीर सही प्यास, कुछ तो बुझे।
४९ – निजी प्रकाश, किसी प्रकाशन में, कभी दिखा है।
५० – जितना चाहो, जो चाहो जब चाहो, क्यों कभी मिला।
५१ – वैधानिक तो, पहले बनो फिर, धनिक बनो।
५२ – टिमटिमाते, दीप को भी पीठ दे, भागती रात ।
५३ – रोगी की नहीं, रोग की चिकित्सा हो, अन्यथा भोगो।
५४ – देखा ध्यान में, कोलाहल मन का, नींद ले रहा।
५५ – मिट्टी तो खोदो, पानी को खोजो नहीं, पानी फूटेगा।
५६ – सुनना हो तो, नगाड़े के साथ में, बाँसुरी सुनो।
५७ – मलाई कहाँ, अशान्त दूध में सो, प्रशान्त बनो।
५८ – कब पता न, मरण निश्चित है, फिर डर क्यों ?
५९ – भरा घट भी, खाली सा जल में, सो हवा से बचो।
६० – नौ मास उल्टा, लटका आज तप (रहा पेट में) कष्टकर क्यों?
६१ – मोक्षमार्ग तो, भीतर अधिक है, बाहर कम।
६२ – गूँगा गुड़ का, स्वाद क्या नहीं लेता ? वक्ता क्यों बनो?
६३ – कमल खिले, दिन के ग्रहण में, करबद्ध हों।
६४ – पैर उठते, सीधे मोही के भी पै, उल्टे पड़ते।
६५ – भूत सपना, वर्तमान अपना, भावी कल्पना।
६६ – काले मेघ भी, नीचे तपी धरा को, देख रो पड़े।
६७ – घी दूध पुन:, बने तो मुक्त पुन:, हम से रागी।
६८ – उससे डरो, जो तुम्हारे क्रोध को, पीते ही जाते।
६९ – शून्य को देखूँ, वैराग्य बढ़े-बढ़े, नेत्र की ज्योति।
७० – पौधे न रोपे, छाया और चाहते, निकम्मे से हो। (पौरुष्य नहीं)
७१ – उनसे मत, डरो जिन्हें देख के, पारा न चढ़े।
७२ – क्या सोच रहे, क्या सोचूँ जो कुछ है, कर्म के धर्म।
७३ – तुम्बी तैरती, औरों को भी तारती, छेद वाली क्या ?
७४ – आलोचन से, लोचन खुलते हैं, सो स्वागत है।
७५ – दुग्ध पात्र में, नीलम सा जीव है, तनु प्रमाण ।
७६ – स्वानुभव की, समीक्षा पर करें, तो आँखें सुने।
७७ – स्वानुभव की, प्रतिक्षा स्व करे तो, कान देखता।
७८ – मूल बोध में, बड़ की जटायें, सी, व्याख्यायें न हो।
७९ – मन अपना, अपने विषय में, क्यों न सोचता ?
८० – स्थान समय, दिशा आसन इन्हें , भूलते ध्यानी।
८१ – चिन्तन न हो, तो चिन्ता मत करो, चित्स्वरूपी हो।
८२ – एक आँख भी, काम में आती पर, एक पंख क्या ?
८३ – नय-नय है, विनय पुरोधा (प्रमुख) है, मोक्षमार्ग में।
८४ – सम्मुख जा के, दर्पण देखता तो (दर्पण में देखा पै) मैं नहीं दिखा।
८५ – पाषाण भीगे, वर्षा में हमारी भी, यही दशा है।
८६ – आपे में न हो (नहीं), तभी तो अस्वस्थ हो, अब तो आओ।
८७ – दीप अनेक, प्रकाश में प्रकाश, एक मेक सा।
८८ – होगा चाँद में, दाग चाँदनी में ना, ताप मिटा लो ।
८९ – प्रतिशोध में, ज्ञानी भी अन्धा होता, शोध तो दूर।
९० – निद्रा वासना, दो बहनें हैं जिन्हें, लज्जा न छूती।
९१ – जिस बोध में, लोकालोक तैरते,उसे नमन।
९२ – उजाले में हैं, उजाला करते हैं, गुरु को वंदू ।
९३ – उन्हें जिनके, तन-मन नग्न हैं, मेरे नमन।
९४ – शिव पथ के, कथक वचन भी, शिरोधार्य हो।
९५ – व्यंग का संग, सकलांग से नहीं, विकलांग से।
९६ – कुछ न चाहूँ, आप से आप करें, बस ! सद्ध्यान।
९७ – बड़ तूफाँ में, शीर्षासन लगाता, बेंत झुकता।
९८ – आशा जीतना, श्रेष्ठ निराशा से तो, सदाशा भली।
९९ – समानान्तर, दो रेखाओं में मैत्री, पल सकती।
१०० – प्राय: अपढ़, दीन हों,पढ़े मानी, ज्ञानी विरले।
१०१ – कच्चा घड़ा है, काम में न लो, बिना, अग्नि परीक्षा।
१०२ – पक्षी कभी भी, दूसरों के नीड़ों में, घुसते नहीं।
१०३ – तरंग देखूँ, भंगुरता दिखती, ज्यों का त्यों ‘तोय’।
१०४ – बिना प्रमाद, श्वसन क्रिया सम, पथ पे चलूँ।
१०५ – दृढ़-ध्यान में, ज्ञेय का स्पन्दन भी, बाधक नहीं।
१०६ – शब्द पंगु हैं, जवाब न देना भी, लाजवाब है।
१०७ – पराश्रय से, मान बोना हो, कभी, दैन्द्य-लाभ भी।
१०८ – वक़्ता व श्रोता, बने बिना, गूँगा सा, निजी-स्वाद ले।
१०९ – नियन्त्रण हो, निज पे, दीप बुझे, निजी श्वांस से।
११० – अपना ज्ञान, शुध्द-ज्ञान न, जैसे, वाष्प, पानी न।
१११ – औरों को नहीं, प्रभु को देखूँ तभी, मुस्कान बाटूँ।
११२ – अपमान को, सहता आ रहा है, मान के लिए।
११३ – मान चाहूँ ना, पै अपमान अभी, सहा न जाता।
११४ – यशोगन्ध की, प्यासी नासा स्वयं तू, निर्गन्धा है री !
११५ – दमन, चर्म-, चक्षु का हो, नमन, ज्ञान चक्षु को।
११६ – गाय बताती, तप्त-लोह पिण्ड को, मुख में ले ‘सत्’।
११७ – कुछ स्मृतियाँ, आग उगलती, तो, कुछ सुधा सी।
११८ – मरघट में, घूँघट का क्या काम?, घट कहाँ है ?
११९ – पुण्य-फूला है, पापों का पतझड़, फल अनंत। (अमाप)
१२० – गन्ध सुहाती, निम्ब -पुष्पों की, स्वाद।, उल्टी कराता।
१२१ – युवा कपोल, कपोल-कल्पित है, वृध्द-बोध में।
१२२ – लोहा सोना हो, पारस से परन्तु, जंग लगा क्या ?
१२३ – गुणी का पक्ष,लेना ही विपक्ष पे, वज्रपात है।
१२४ – बिना डाँट के, शिष्य और शीशी का, भविष्य ही क्या ?
१२५ – प्रकाश में ना…, प्रकाश को पढ़ो तो, भूल ज्ञात हो।
१२६ – देख सामने, प्रभु के दर्शन हैं, भूत को भूल…
१२७ – दीन बना है, व्यर्थ में बाहर जा, अर्थ है स्वयं।
१२८ – काल की दूरी, क्षेत्र दूरी से और, अनिवार्य है।
१२९ – दर्प को छोड़, दर्पण देखता तो, अच्छा लगता।
१३० – घनी निशा में, माथा भयभीत हो, आस्था, आस्था है।
१३१ – बिन्दु जा मिला, सभी मित्रों से, जहाँ, सिन्धु वही है।
१३२ – आगे बनूँगा, अभी प्रभु-पदों में, बैठ तो जाऊँ।
१३३ – रस-रक्षक-, छिलका, सन्तरे का, अस्तित्व ही क्या ?
१३४ – छोटा भले हो, दर्पण मिले साफ़, खुद को देखूँ।
१३५ – पराग-पीता-, भ्रमर, फूला फूल, आतिथ्य- प्रेमी।
१३६ – बोधा-काश में, आकाश तारा सम, प्रकाशित हो।
१३७ – पराकर्षण, स्वभाव सा लगता, अज्ञानवश।
१३८ – भ्रमर से हो,फूल सुखी, हो दाता, पात्र-योग से।
१३९ – तारा दिखती, उस आभा में कभी, कुछ दिखी क्या ?
१४० – सुधाकर की, लवणाकर से क्यों ?, मैत्री, क्या राज ?
१४१ – बाहर नहीं, वसन्त बहार तो, सन्त ! अन्दर…
१४२ – तार न टूटी, लगातार चिर से, चैतन्य-धारा।
१४३ – सुई निश्चय, कैंची व्यवहार है, दर्ज़ी-प्रमाण।
१४४ – चलो बढ़ोऔ, कूदो, उछलो यही, धुआँधार है।
१४५ – बिना चर्वण, रस का रसना का, मूल्य ही क्या है ?
१४६ – ख़ाली बन जा, घट डूबता भरा…, ख़ाली तैरता।
१४७ – साष्टांग सम्यक्, शान चढ़ा हीरा सा।, कहाँ दिखता ?
१४८ – निजी पराये, वत्सों को, दुग्ध-पान, कराती गौ-माँ।
१४९ – छोटा सा हूँ मैं, छोर छूती सी तृष्णा, छेड़ती मुझे।
१५० – रसों का भान, जहाँ न, रहे वहाँ, शान्त-रस है।
१५१ – जिससे तुम्हें, घृणा न हो उससे, अनुराग क्यों ?
१५२ – मोक्षमार्ग में, समिति समतल।, गुप्ति सीढ़ियाँ।
१५३ – धूप-छाँव सी, वस्तुत: वस्तुओं की, क्या पकड़ है ?
१५४ – धूम्र से बोध, अग्नि का हो गुरु से, सो आत्म बोध।
१५५ – कब लौं सोचो।, कब करो, ना सोचे, करो क्या पाओ ?
१५६ – कस न, ढील, अनति हो, सो वीणा, स्वर लहरी।
१५७ – पुण्य-पथ लौ, पाप मिटे पुण्य से, पुण्य पथ है।
१५८ – पथ को कभी, मिटाना नहीं होता, पथ पे चलो।
१५९ – नाविक तीर, ले जाता हमें, तभी, नाव की पूजा।
१६० – हद कर दी, बेहद छूने उठें, क़द तो देखो।
१६१ – भारी वर्षा हो, दल-दल धुलता, अन्यथा मचे।
१६२ – माँगते हो तो, कुछ दो, उसी में से, कुछ देऊँगा।
१६३ – अनेक यानी, बहुत नहीं किन्तु, एक नहीं है।
१६४ – मन की कृति, लिखूँ पढ़ूँ सुनूँ पै, कैसे सुनाऊँ ?
१६५ – कैसे, देखते, संत्रस्त संसार को ?, दया मूर्ति हो।
१६६ – मोह टपरी, ज्ञान की आँधी में यूँ, उड़ी जा रही
१६७ – पाँच भूतों के, पार, अपार पूत, अध्यात्म बसा।
१६८ – क़ैदी हूँ देह-, जेल में, जेलर ना…, तो भी भागा ना
१६९ – तेरा सो एक, सो सुख, अनेक में, दु:ख ही दु:ख।
१७० – सहजता में, प्रतिकार का भाव, दिखता नहीं।
१७१ – साधना छोड़, काय-रत होना ही, कायरता है।
१७२ – भेद-वती है, कला, स्वानुभूति तो, अद्वैत की माँ…
१७३ – विज्ञान नहीं, सत्य की कसौटी है, ‘दर्शन’ यहाँ।
१७४ – आम बना लो, ना कहो, काट खाओ, क्रूरता तजो।
१७५ – नौका पार में, सेतु-हेतु मार्ग में, गुरु-साथ दें।
१७६ – मुनि स्व में तो, सीधे प्रवेश करें, सर्प बिल में।
१७७ – चिन्तन कभी, समयानुबन्ध को, क्या स्वीकारता ?
१७८ – बिना रस भी, पेट भरता, छोड़ो, मन के लड्डू।
१७९ – भोक्ता के पीछे, वासना, भोक्ता ढूँढे, उपासना को।
१८० – दो जीभ न हो, जीवन में सत्य ही, सब कुछ है।
१८१ – सिर में चाँद, अच्छा निकल आया, सूर्य न उगा।
१८२ – जैसे दूध में, बूरा पूरा पूरता, वैसा घी क्यों ना…?
१८३ – स्वोन्नति से भी, पर का पराभव, उसे सुहाता… !
१८४ – शिरोधार्य हो, गुरु-पद-रज, सो, नीरज बनूँ।
१८५ – परवश ना, भीड़ में होकर भी, मौनी बने हो।
१८६ – दुर्भाव टले, प्रशम-भाव से सो, स्वभाव मिले।
१८७ – खाओ पीयो भी, थाली में छेद करो, कहाँ जाओगे ?
१८८ – समझ न थी, अनर्थ किया आज, समझ, रोता।
१८९ – गुब्बारा फूटा, क्यों, मत पूछो, पूछो, फुलाया क्यों था?
१९० – बदलाव है, पै स्वरुप में न, सो, ‘था’ है ‘रहेगा’।
१९१ – अर्ध शोधित-, पारा औषध नहीं, पूरा विष है।
१९२ – तटस्थ व्यक्ति, नहीं डूबता हो, तो, पार भी न हो।
१९३ – दृष्टि पल्टा दो, तामस समता हो, और कुछ ना…
१९४ – देवों की छाया, ना सही पै हवा तो, लग सकती।
१९५ – तेरा सत्य है, भविष्य के गर्भ में, असत्य धो ले।
१९६ – परिचित को, पीठ दिखा दे फिर !, सब ठीक है।
१९७ – मधुर बनो, दाँत तोड़ गन्ना भी, लोकप्रिय है।
१९८ – किस ओर तू…!, दिशा मोड़ दे, युग-, लौट रहा है।
१९९ – दृश्य से दृष्टा, ज्ञेय से ज्ञाता महा, सो अध्यात्म है।
२०० – बिना ज्ञान के, आस्था को भीति कभी, छू न सकती।
२०१ – उर सिर से, महा वैसा ज्ञान से, दर्शन होता।
२०२ – व्याकुल व्यक्ति, सम्मुख हो कैसे दूँ, उसे मुस्कान…!
२०३ – अधम-पत्ते, तोड़े, कोंपलें बढ़े, पौधा प्रसन्न !
२०४ – पूर्णा-पूर्ण तो, सत्य हो सकता पै, बहुत नहीं।
२०५ – गर्व गला लो, गले लगा लो जो हैं, अहिंसा प्रेमी
२०६ – काश न देता, आकाश, अवकाश, तू कहाँ होता ?
२०७ – सहयोगिनी, परस्पर में आँखें, मंगल झरी।
२०८ – हमारे दोष, जिनसे गले धुले, वे शत्रु कैसे ?
२०९ – हमारे दोष, जिनसे फले फूले, वे बन्धु कैसे ?
२१० – भरोसा ही क्या ?, काले बाल वालों का, बिना संयम।
२११ – वैराग्य, न हो, बाढ़ तूफ़ान सम, हो ऊर्ध्व-गामी।
२१२ – छाया का भार, नहीं सही परन्तु, प्रभाव तो है।
२१३ – फूलों की रक्षा, काँटों से हो शील की, सादगी से हो।
२१४ – बहुत मीठे, बोल रहे हो अब !, मात्रा सुधारो।
२१५ – तुमसे मेरे, कर्म कटे, मुझसे, तुम्हें क्या मिला ?
२१६ – राजा प्रजा का, वैसा पोषण करे, मूल वृक्ष का।
२१७ – कोई देखे तो, लज्जा आती, मर्यादा।, टूटने से ना…!
२१८ – आती छाती पे, जाती कमर पे सो, दौलत होती।
२१९ – सिध्द घृत से, महके, बिना गन्ध, दुग्ध से हम।
२२० – कपूर सम, बिना राख बिखरा, सिध्दों का तन।
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