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निजात्म-रमण ही अहिंसा है

सम्पादन: प्रीति जैन, जयपुर

महावीर भगवान के निर्वाण के उपरांत भरत क्षेत्र के तीर्थंकरों का आभाव हुआ। वह इस भरत क्षेत्र के प्राणियों का एक प्रकार से अभाग्य ही कहना चाहिये। भगवान के साक्षात दर्शन और उनकी दिव्य ध्वनि सुनने का सौभाग्य जब प्राप्त होता है तो संसार की असारता के बारे में सहज ही ज्ञान और विश्वास हो जाता है। आज जो आचार्य परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है और जो महान पूर्वाचार्य हमारे लिये प्रेरणादायक हैं उनके माध्यम से यदि हम चाहें तो जिस ओर भगवान जा चुके हैं, पहुँच चुके हैं, उस ओर जाने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

आचार्यों ने, जो संसार से ऊपर उठने की इच्छा रखते हैं उन्हे दिग्दर्शन कराया है दिशाबोध दिया है, उसका लाभ लेना हमारे ऊपर निर्भर है। उन्होने जीवन भर चिंतन, मनन और और मंथन कर के नवनीत रूप में हमें जो ज्ञान दिया है उसमें अवगाहन करना, और आत्म तत्त्व को पहचानना, विषय कषाय से युक्त संसारी प्राणी के लिये टेढी खीर है। आसान नहीं है। पर फिर भी उसमें कुछ बातें आपके सामने रख रहा हूँ।

आचार्यों के साहित्य में आध्यात्म की ऐसी धारा बही है कि कोई भी ग्रंथ उठायें, कोई भी प्रसंग लें, हर गाथा, हर पद पर्याप्त है। उसमें वही रस, वही संवेदना और वही अनुभूति आज भी प्राप्त हो सकती है जो उन आचार्यों को प्राप्त हुई थी। पर उसे प्राप्त करने वाले विरले ही जीव हैं। उसे प्राप्त तो किया जा सकता है पर सभी प्राप्त कर लेंगे, यह कहा नहीं जा सकता। मात्र अहिंसा का सूत्र ले लें। महावीर भगवान ने अहिंसा की उपासना की, उनके पूर्व तेईस तीर्थंकरों ने भी की और उनके पूर्व भी इस अहिंसा की उपासना की जाती रही। अहिंसा के आभाव में आत्मोपलब्धि सम्भव नहीं है।

विश्व का प्रत्येक व्यक्ति शांति चाहता है। जीवन चाहता है। सुख की इच्छा रखता है और दुःख से भयभीत है। दुःख निवृत्ति के उपाय में अहर्निश प्रयत्नवान है लेकिन वास्तविक सुख क्या है, इसकी जानकारी नहीं होने से तात्कालिक भौतिक सुख को पाने में लगा हुआ है। इसी में अनंत काल खो चुका है। भगवान महावीर ने अहिंसा का जो उपदेश दिया है, वह अनन्त सुख की इच्छा रखने वाले के लिये दिया है। उस अहिंसा का दर्शन करना, उसके स्वरूप को समझना भी आज के व्यस्त जीवन में आसान नहीं है। यहाँ हजारों व्यक्ति विद्यमान हैं और सभी धर्म श्रवण कर रहे हैं। वास्तव में, श्रवण तो वही है जो जीवन को परिवर्तित कर दे।

प्रवचन सुनने के साथ-साथ आपके मन में ख्याल बना रहता है कि प्रवचन समाप्त हो और चलें। यह जो आकुलता है, यह जो अशांति है, यह अशांति ही आपको अहिंसा से दूर रखती है। आकुलता होना ही अहिंसा है। दूसरों को पीडा देना भी अहिंसा है लेकिन यह अधूरी परिभाषा है। इस अहिंसा के त्याग से जो हिंसा आती है वह भी अधूरी है। वास्तव में जब तक आत्मा से रागद्वेष परिणाम समाप्त नहीं होते, तबतक अहिंसा प्रकट नहीं होती।

अहिंसा की परिभाषा के रूप में भगवान महावीर ने सन्देश दिया है कि जियो और जीने दो। जियो पहले रखा और जीने दो बाद में रखा। जो ठीक से जीयेगा वही तो जीने देगा। जीना प्रथम है, किस तरह जीना है यह भी सोंचना होगा। वास्तविक जीना तो रागद्वेष से मुक्त हो कर जीना है। यही अहिंसा की सर्वोत्तम उपलब्धि है। सुना है विदेशों में भारत की तुलना में कम हत्याएँ होतीं हैं, लेकिन आत्महत्याएँ अधिक होती हैं जो अधिक खतरनाक हैं। स्वयं अपना जीना ही जिसे पसन्द नहीं, जो स्वयं जीने को पसन्द नहीं करता, जो स्वयं को सुरक्षा नहीं देता वह सबसे खतरनाक साबित होता है। उससे क्रूर और निर्दयी कोई और नहीं है। वह दुनिया में शांति देखना पसन्द नहीं करेगा।

शांति के अनुभव के साथ जो जीवन है उसका महत्व नहीं जानना ही हिंसा का पोषण है। आकुल विकल हो जाना ही हिंसा है। रात दिन बेचैनी का अनुभव करना, यही हिंसा है। तब ऐसी स्थिति में जो भी मन, वचन, काय की चेष्टायें होंगी उनका प्रभाव दूसरे पर भी पडेगा और फलस्वरूप द्रव्य-हिंसा बाह्य में घटित होगी। द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा ये दो प्रकार के हिंसा हैं। द्रव्य-हिंसा में दूसरे की हिंसा हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। किंतु भाव-हिंसा के माध्यम से अपनी आत्मा का विनाश अवश्य होता है और उसका प्रभाव भी पूरे विश्व पर पडता है। स्वयं को पीडा में डालने वाला यह न सोचे कि उसने मात्र अपना घात किया है, उसने आसपास पूरे विश्व को दूषित किया है।

प्रत्येक धर्म में अहिंसा की उपासना पर जोर दिया गया है। किंतु महावीर भगवान का सन्देश अहिंसा को लेकर बहुत गहरा है। वे कहते हैं कि प्राण दूसरे के नही अपने भी हैं। हिंसा के द्वारा दूसरे के प्राण का घात हो, ऐसा नहीं है। पर अपने प्राणो का विघटन अवश्य होता है। दूसरे के प्राणों का विघटन बाद में होगा, पर हिंसा के भाव मात्र से अपने प्राणों का विघटन पहले होआ। अपने प्राणों का विघटन होना ही वस्तुतः हिंसा है। जो बिना हिंसा का ऐसा सत्य-स्वरूप जानेगा वही अहिंसा को प्राप्त कर सकेगा।

जो व्यक्ति राग करता है या द्वेष करता है और अपनी आत्मा में आकुलता उत्पन्न कर लेता है, वह व्यक्ति संसार के बन्धन में बन्ध जाता है और निरंतर दुःख पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति स्वयं बन्धन को प्राप्त करेगा और बन्धन में पडकर दुःखी होगा, उसका प्रतिबिम्ब दूसरे पर पडे बिना नहीं रहेगा, वह वातावरण को भी दुःखी बनायेगा। एक मछली कुएँ में मर जाये तो उस सारे जल को गन्दा बना देती है।

एक व्यक्ति रोता है तो दूसरे व्यक्ति को भी रुलाता है। एक व्यक्ति हँसता है तो दूसरा भी हँसने लगता है। फूल को देख कर बच्चा भी बहुत देर तक नहीं रो सकता। फूल हाथ मे6 आते ही वह रोता-रोता भी खिल जायेगा, हँसने लगेगा और सभी को हँसा देगा। हँसाये ही यह नियम नहीं है किंतु सबको प्रभावित अवश्य जरूर करेगा। आप कह सकते हैं कोई अकेला रो रहा हो तो किसी दूसरे जो क्या दिक्कत आयेगी। किंतु आचार्य उमा स्वामी कहते है कि शोक करना, आलस्य करना, दीनता व्यक्त करना, सामने वाले व्यक्ति पर प्रभाव डाले बिना नहीं रहते।

आप बैठकर शांति से दत्तचित्त होकर भोजन कर रहे हैं। किसी प्रकार का विकारी भाव आपके मन में नहीं है। ऐसे समय में यदि आपके सामने कोई बहुत भूखा व्यक्ति रोटी माँगने गिडगिडाता हुआ आ जाता है तो आप में परिवर्तन आये बिना नहीं रहता। उसका रोना आपके ऊपर प्रभाव डालता है। आप भी दुःखी हो जाते हैं और असातावेदनीय कर्म के बन्ध के लिये कारण बन जाता है। इसलिये ऐसा मत सोंचिये कि हम राग कर रहे हैं, द्वेष कर रहे हैं तो अपने आप में तडप रहे हैं, दूसरे के लिये क्या कर रहे हैं? हमारे भावों का दूसरों पर भी प्रभाव पडता है। हिंसा का संपादन कर्ता हमारा रागद्वेष परिणाम है। शारीरिक गुणों का घात करना द्रव्य हिंसा है और आध्यात्मिक गुणों का आघात करना, उसमें व्यवधान करना भाव हिंसा है। वह ‘स्व’, ‘पर’ दोनो की हो सकती है।

गृहस्थाश्रम की बात है। माँ ने कहा, अंगीठी के ऊपर भगौनी में दूध है। उसे नीचे उतार कर दो बर्तनों में निकाल लेना। एक बर्तन में दही जमाना है और दूसरे में दूध ही रखना है। जो बर्तन छोटा है उसे आधा रखना, उसमें दही जमाने के लिये सामग्री पडी है और दूसरे बर्तन में जितना दूध शेष है, रख देना। दोनो को पृथक-पृथक रखना। सारा काम तो कर लिया पर दोनो बर्तन पृथक नहीं रखे। परिणाम यह निकला कि प्रातःकाल दोनों बर्तनों में दही जम गया। एक में दही जमाने का साधन नहीं था फिर भी जम गया, वह दूसरे के सम्पर्क से जम गया।

जब जड पदार्थ में संगति से परिवर्तन हो गया तो क्या चेतन द्रव्य में परिवर्तन नहीं होगा? परिवर्तन प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रव्य में हो रहा है और उसका असर आसपास पड रहा है। हम इस रहस्य को समझ नहीं पाते। इसलिये आचार्यों ने कहा कि प्रमादी मत बनो। असावधान मत होओ।

बुद्ध कहते हैं कि प्राणियों पर करुणा करो, यीशु कहते हैं कि प्राणियों की रक्षा करो और नानक आदि सभी कहते हैं कि दूसरों की रक्षा करो किंतु भगवान महावीर कहते हैं कि स्वयं बचो, दूसरा अपने आप बच जायेगा। दूसरे को बचाने जाओगे तो वह बचे ही, यह अनिवार्य नही है लेकिन स्वयं रागद्वेष से बचोगे तो हिंसा सम्भव नहीं है। ‘जियो और जीने दो’, पहले तुम खुद जियो क्योंकि जो खुद जीना चाहेगा वह दूसरों के लिये जीने में बाधा डाल ही नहीं सकता।

हमारे जीवन से दूसरों के लिये तभी खतरा है जबतक हम खुद प्रमादी हैं, असावधान हैं। ‘अप्रमत्तो भव’- प्रमाद मत करो। एक क्षण भी प्रमाद मत करो, अप्रमत्त दशा में लीन रहो। आत्मा में विचरण करना ही अप्रमत्त दशा का प्रतीक है। वहाँ राग द्वेष करेगा और अपनी आत्मा से बाहर दूर रहेगा, फिर चाहे वह किसी गति का प्राणी क्यों ना हो। वह देव भी हो सकता है। वह नारकी हो सकता है। वह मनुष्य भी हो सकता है। मनुष्य में भी गृहस्थ भी हो सकता है या गृह-त्यागी भी हो सकता है। वह संत या ऋषि भी हो सकता है। जिस समय जीव रागद्वेष से युक्त होता है उस समय उससे हिंसा हुए बिना रह नहीं सकती।

आज भी अहिंसा का अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग होता है न्यायालय में। वहाँ पर भी भाव-हिंसा का ध्यान रखा जाता है। भावहिंसा के आधार पर ही न्याय करते हैं। एक व्यक्ति ने निशाना लगाकर गोली चलाई। उसने निशाना मात्र सीखने की दृष्टि से लगाया था। निशाना चूक गया, गोली जाकर लग गयी एक व्यक्ति को और उसकी मृत्यु हो गयी। गोली मारने वाले व्यक्ति को पुलिस ने पकड लिया। उससे पूछा गया कि तुमने गोली चलाई? उसने कहा- चलाई, किंतु मेरा अभिप्राय मारने का नहीं था। मैं निशाना लगाना सीख रहा था, निशाना चूक गया और गोली लग गयी। चूँकि उसका अभिप्राय खराब नहीं था इसलिये उसे छोड दिया गया।

दूसरा-एक व्यक्ति निशाना लगा कर किसी की हत्या करना चाहता था। वह गोली मारता है, गोली लगती नहीं और गोली मारने वाले को पुलिस पकड लेती है। पुलिस पूछती है कि तुमने गोली मारी, तो वह जवाब देता है मारी तो है पर उसे लगी कहाँ? पुलिस उसे जेल में बन्द कर देती है। ऐसा क्यों? जीव हिंसा नहीं हुई इसके उपरांत भी उसे जेल भेज दिया गया और जिससे जीव हिंसा हो गयी थी, उसे छोड दिया। यह इसलिये कि वहाँ पर भावहिंसा को देखा जा रहा है। न्याय में सत्य और असत्य का विश्लेषण भावों के ऊपर आधारित है।

हमारी दृष्टि भी भावों की तरफ होनी चाहिये। अपने आप के शरीरादि को ही आत्मा मान लेने से कि ‘मैं शरीर हूँ या शरीर ही मैं हूँ, हिंसा प्रारम्भ हो जाती है। यह अज्ञान और शरीर के प्रति राग ही हिंसा का कारण बनता है। हम स्वयं जीना सीखें। स्वयं तब जिया जाता है जब सारी बाह्य प्रवृत्ति मिट जाती है। अप्रमत्त दशा आ जाती है। इस प्रकार जो स्वयं जीता है वह दूसरे को भी जीने में सहायक होता है। जिसके द्वारा मन-वचन-काय की चेष्टा नहीं हो रही है वह दूसरे के लिये किसी प्रकार की बाधा नहीं देता।

जो विस्फोट ऊपर से होता है वह उतना खतरनाक नहीं होता जितना गहराई में होने से होता है। आत्मा की गहराई में जो राग-प्रणाली या द्वेष-प्रणाली उद्भूत हो जाती है वह अन्दर से लेकर बाहर तक प्रभावित करती है। उसका फैलाव सारे जगत में हो जाता है। जैनदर्शन में एक उदाहरण भाव-हिंसा को लेकर आता है। समुद्र में जहाँ हजारों मछलियाँ रहती हैं उनमें रोहू मछली होती है। जब वह मुँह खोलकर सो जाती है तो उसके मुँह में अनेक छोटी-छोटी मछलियाँ आती जाती रहती है। जब कभी उसे भोजन की इच्छा होती है वह मुँह बन्द कर लेती है और भीतर अनेक मछलियाँ उसका भोजन बन जाती है।

इस दृष्य को देखकर एक छोटी मछली जिसे तन्दुल मत्स्य कहते हैं, जो आकार में तन्दुल अर्थात चावल के समान होती है वह सोंचती है कि यह रोहू मछली कितना पागल है, इसे इतना भी नहीं दिखता कि जब मुख में इतनी मछलियाँ आती रहती है तो मुख बन्द कर लेना चाहिये। इसके स्थान पर यदि मैं होता हो लगातार मुख खोलता और बन्द कर लेता। इस तरह सभी को खा लेता। देखिये स्थिति कितनी गम्भीर है। छोटे से मत्स्य की हिंसा की वृत्ति कितनी है, चरम सीमा तक। वह अनन्त जीवों को खाने की लिप्सा रखता है, वह खा एक भी नहीं पाता है क्योंकि उसकी उतनी शक्ति नहीं है लेकिन भावों के माध्यम से खा रहा है निरंतर।

बाहर से खाना भले ही नहीं देखता है लेकिन अभिप्राय कर लिया, संकल्प कर लिया, तो मन विकृत हो गया। यही हिंसा है। रोहू मछली जितनी आवश्यकता हो उतनी ही खाता है, शेष से कोई मतलब नहीं है, लेकिन तन्दुल मछली एक भी मछली को खा नहीं पाता, पर लिप्सा पूरी है। इसलिये वह सीधा नरक चला जाता है। सीधा सप्तम नरक। यह है भाव हिंसा का प्रभाव।

आप भी इसे समझें कि मात्र अपने जीवन को द्रव्य हिंसा से ही निवृत्त करना पर्याप्त नहीं है, यदि आप अपने में नहीं हैं अर्थात मन, वचन और आपकी काय की चेष्टायें अपने में नहीं है तो आपके द्वारा दूसरे को धक्का लगे बिना नहीं रह सकता। एक व्यक्ति कोई गलती करता है तो वह एकांत रूप से अपने आप ही नहीं करता उसमें दूसरे का भी हाथ रहता है। भावों का प्रभाव पडता है। दूसरे के धन को देखकर ईर्ष्या अथवा स्पर्धा करने में भी हिंसा का भाव उद्भूत होता है। जो राग द्वेष करता है वह स्वयं दुःखी होता है और दूसरों के भी दुःख का कारण बनता है। लेकिन जो वीतरागी है वह स्वयं सुखी होता है और दूसरों को भी सुखी बनने का कारण सिद्ध होता है।

आपका जीवन हिंसा से दूर हो और अहिंसामय बन जाये इसके लिये मेरा यही कहना है कि भाव-हिंसा से बचना चाहिये। मेरा कहना तभी सार्थक होगा जब आप स्वयं अहिंसा की ओर बढने के लिये उत्साहित हों, रुचि लें। किसी क्षेत्र में उन्नति तभी सम्भव है जब उसमें अभिरुचि जागृत हों। आपके जीवन पर आपका अधिकार है पर अधिकार होते हुए भी कुछ प्रेरणा बाहर से ली जा सकती है। बाहर से तो सभी अहिंसा की प्राप्ति के लिये आतुर दिखते हैं किंतु अन्दर से भी स्वीकृति होनी चाहिये। एक व्यक्ति जो अपने जीवन को सच्चाई मार्ग पर आरूढ कर लेता है तो वह सुखी बन ही जाता है, साथ ही दूसरे के लिये भी सुखी बनने में सहायक बन जाता है। आप चाहें तो यह आसानी से कर सकते हैं।

अहिंसा मात्र प्रचार की वस्तु नहीं है और लेन-देन की चीज भी नहीं है, वह तो अनुभव की वस्तु है। कस्तूरी का प्रचार-प्रसार करने की आवश्यकता नहीं होती, जो व्यक्ति चाहता है वह उसे सहज ही पहचान लेता है। महावीर भगवान ने सत्यता को स्वयं जाना और अपने भीतर प्रकट किया तभी वे भगवान बने। उन्होंने किसी को भी छोटा नहीं समझा, सभी को पूर्ण देखा और जाना और पूर्ण समझा। सन्देश दिया कि प्रत्येक आत्मा में भगवान हैं किंतु एकमात्र हिंसा के प्रतिफल स्वरूप स्वयं भगवान के समान हो कर भी हम भगवत्ता का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। जबतक राग-द्वेष रूप हिंसा का भाव विद्यमान रहेगा तबतक सच्चे सुख की प्राप्ति संभव नहीं है। अपने भावों मे अहिंसा के माध्यम से दूसरे का कल्याण हो भी सकता है और नहीं भी किंतु अपनी आत्मा का कल्याण अवश्य होता है। जो अहिंसक है, वह दूसरे को पीडा नहीं पहुँचाता है। यही दूसरे के कल्याण में उसका योगदान है। आचार्यों की वाणी है कि “आदहिदं कादव्वं, जदि सक्कइ परहिद व कादव्वं।आदहिद परहिदादो, आदहिदं सट्ठु कादव्वं”। आत्म हित सर्वप्रथम करना चाहिये। जितना बन सके उतना परहित भी करना चाहिये। लेकिन दोनों में अच्छा आत्म-हित ही है। जो आत्म हित में लगा है उसके द्वारा कभी दूसरे का अहित नहीं हो सकता।

इस प्रकार ‘स्व’ और ‘पर’ का कल्याण अहिंसा पर आधारित है। आध्यात्म का रहस्य इतना ही है कि अपने को जानो, अपने को पहचानो, अपनी सुरक्षा करो। अपने में सब कुछ समाया है। पहले विश्व को भूलो और अपने को पहचानो; जब आत्मा को जान जाओगे तो विश्व स्वयं सामने प्रकट हो जायेगा। अहिंसा-धर्म के माध्यम से स्व-पर का कल्याण तभी संभव है जब हम उसे आचरण में लायें। अहिंसा के पथ पर चलना ही आहिंसा-धर्म का सच्चा प्रचार-प्रसार है। आज इसी की आवश्यकता है।

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  • महावीर भगवान के निर्वाण के उपरांत भरत क्षेत्र के तीर्थंकरों का आभाव हुआ। वह इस भरत क्षेत्र के प्राणियों का एक प्रकार से अभाग्य ही कहना चाहिये। भगवान के साक्षात दर्शन और उनकी दिव्य ध्वनि सुनने का सौभाग्य जब प्राप्त होता है तो संसार की असारता के बारे में सहज ही ज्ञान और विश्वास हो जाता है। आज जो आचार्य परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है और जो महान पूर्वाचार्य हमारे लिये प्रेरणादायक हैं उनके माध्यम से यदि हम चाहें तो जिस ओर भगवान जा चुके हैं, पहुँच चुके हैं, उस ओर जाने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

    आचार्यों ने, जो संसार से ऊपर उठने की इच्छा रखते हैं उन्हे दिग्दर्शन कराया है दिशाबोध दिया है, उसका लाभ लेना हमारे ऊपर निर्भर है। उन्होने जीवन भर चिंतन, मनन और और मंथन कर के नवनीत रूप में हमें जो ज्ञान दिया है उसमें अवगाहन करना, और आत्म तत्त्व को पहचानना, विषय कषाय से युक्त संसारी प्राणी के लिये टेढी खीर है। आसान नहीं है। पर फिर भी उसमें कुछ बातें आपके सामने रख रहा हूँ।

    आचार्यों के साहित्य में आध्यात्म की ऐसी धारा बही है कि कोई भी ग्रंथ उठायें, कोई भी प्रसंग लें, हर गाथा, हर पद पर्याप्त है। उसमें वही रस, वही संवेदना और वही अनुभूति आज भी प्राप्त हो सकती है जो उन आचार्यों को प्राप्त हुई थी। पर उसे प्राप्त करने वाले विरले ही जीव हैं। उसे प्राप्त तो किया जा सकता है पर सभी प्राप्त कर लेंगे, यह कहा नहीं जा सकता। मात्र अहिंसा का सूत्र ले लें। महावीर भगवान ने अहिंसा की उपासना की, उनके पूर्व तेईस तीर्थंकरों ने भी की और उनके पूर्व भी इस अहिंसा की उपासना की जाती रही। अहिंसा के आभाव में आत्मोपलब्धि सम्भव नहीं है।

    विश्व का प्रत्येक व्यक्ति शांति चाहता है। जीवन चाहता है। सुख की इच्छा रखता है और दुःख से भयभीत है। दुःख निवृत्ति के उपाय में अहर्निश प्रयत्नवान है लेकिन वास्तविक सुख क्या है, इसकी जानकारी नहीं होने से तात्कालिक भौतिक सुख को पाने में लगा हुआ है। इसी में अनंत काल खो चुका है। भगवान महावीर ने अहिंसा का जो उपदेश दिया है, वह अनन्त सुख की इच्छा रखने वाले के लिये दिया है। उस अहिंसा का दर्शन करना, उसके स्वरूप को समझना भी आज के व्यस्त जीवन में आसान नहीं है। यहाँ हजारों व्यक्ति विद्यमान हैं और सभी धर्म श्रवण कर रहे हैं। वास्तव में, श्रवण तो वही है जो जीवन को परिवर्तित कर दे।

    प्रवचन सुनने के साथ-साथ आपके मन में ख्याल बना रहता है कि प्रवचन समाप्त हो और चलें। यह जो आकुलता है, यह जो अशांति है, यह अशांति ही आपको अहिंसा से दूर रखती है। आकुलता होना ही अहिंसा है। दूसरों को पीडा देना भी अहिंसा है लेकिन यह अधूरी परिभाषा है। इस अहिंसा के त्याग से जो हिंसा आती है वह भी अधूरी है। वास्तव में जब तक आत्मा से रागद्वेष परिणाम समाप्त नहीं होते, तबतक अहिंसा प्रकट नहीं होती।

    अहिंसा की परिभाषा के रूप में भगवान महावीर ने सन्देश दिया है कि जियो और जीने दो। जियो पहले रखा और जीने दो बाद में रखा। जो ठीक से जीयेगा वही तो जीने देगा। जीना प्रथम है, किस तरह जीना है यह भी सोंचना होगा। वास्तविक जीना तो रागद्वेष से मुक्त हो कर जीना है। यही अहिंसा की सर्वोत्तम उपलब्धि है। सुना है विदेशों में भारत की तुलना में कम हत्याएँ होतीं हैं, लेकिन आत्महत्याएँ अधिक होती हैं जो अधिक खतरनाक हैं। स्वयं अपना जीना ही जिसे पसन्द नहीं, जो स्वयं जीने को पसन्द नहीं करता, जो स्वयं को सुरक्षा नहीं देता वह सबसे खतरनाक साबित होता है। उससे क्रूर और निर्दयी कोई और नहीं है। वह दुनिया में शांति देखना पसन्द नहीं करेगा।

    शांति के अनुभव के साथ जो जीवन है उसका महत्व नहीं जानना ही हिंसा का पोषण है। आकुल विकल हो जाना ही हिंसा है। रात दिन बेचैनी का अनुभव करना, यही हिंसा है। तब ऐसी स्थिति में जो भी मन, वचन, काय की चेष्टायें होंगी उनका प्रभाव दूसरे पर भी पडेगा और फलस्वरूप द्रव्य-हिंसा बाह्य में घटित होगी। द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा ये दो प्रकार के हिंसा हैं। द्रव्य-हिंसा में दूसरे की हिंसा हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। किंतु भाव-हिंसा के माध्यम से अपनी आत्मा का विनाश अवश्य होता है और उसका प्रभाव भी पूरे विश्व पर पडता है। स्वयं को पीडा में डालने वाला यह न सोचे कि उसने मात्र अपना घात किया है, उसने आसपास पूरे विश्व को दूषित किया है।

    प्रत्येक धर्म में अहिंसा की उपासना पर जोर दिया गया है। किंतु महावीर भगवान का सन्देश अहिंसा को लेकर बहुत गहरा है। वे कहते हैं कि प्राण दूसरे के नही अपने भी हैं। हिंसा के द्वारा दूसरे के प्राण का घात हो, ऐसा नहीं है। पर अपने प्राणो का विघटन अवश्य होता है। दूसरे के प्राणों का विघटन बाद में होगा, पर हिंसा के भाव मात्र से अपने प्राणों का विघटन पहले होआ। अपने प्राणों का विघटन होना ही वस्तुतः हिंसा है। जो बिना हिंसा का ऐसा सत्य-स्वरूप जानेगा वही अहिंसा को प्राप्त कर सकेगा।

    जो व्यक्ति राग करता है या द्वेष करता है और अपनी आत्मा में आकुलता उत्पन्न कर लेता है, वह व्यक्ति संसार के बन्धन में बन्ध जाता है और निरंतर दुःख पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति स्वयं बन्धन को प्राप्त करेगा और बन्धन में पडकर दुःखी होगा, उसका प्रतिबिम्ब दूसरे पर पडे बिना नहीं रहेगा, वह वातावरण को भी दुःखी बनायेगा। एक मछली कुएँ में मर जाये तो उस सारे जल को गन्दा बना देती है।

    एक व्यक्ति रोता है तो दूसरे व्यक्ति को भी रुलाता है। एक व्यक्ति हँसता है तो दूसरा भी हँसने लगता है। फूल को देख कर बच्चा भी बहुत देर तक नहीं रो सकता। फूल हाथ मे6 आते ही वह रोता-रोता भी खिल जायेगा, हँसने लगेगा और सभी को हँसा देगा। हँसाये ही यह नियम नहीं है किंतु सबको प्रभावित अवश्य जरूर करेगा। आप कह सकते हैं कोई अकेला रो रहा हो तो किसी दूसरे जो क्या दिक्कत आयेगी। किंतु आचार्य उमा स्वामी कहते है कि शोक करना, आलस्य करना, दीनता व्यक्त करना, सामने वाले व्यक्ति पर प्रभाव डाले बिना नहीं रहते।

    आप बैठकर शांति से दत्तचित्त होकर भोजन कर रहे हैं। किसी प्रकार का विकारी भाव आपके मन में नहीं है। ऐसे समय में यदि आपके सामने कोई बहुत भूखा व्यक्ति रोटी माँगने गिडगिडाता हुआ आ जाता है तो आप में परिवर्तन आये बिना नहीं रहता। उसका रोना आपके ऊपर प्रभाव डालता है। आप भी दुःखी हो जाते हैं और असातावेदनीय कर्म के बन्ध के लिये कारण बन जाता है। इसलिये ऐसा मत सोंचिये कि हम राग कर रहे हैं, द्वेष कर रहे हैं तो अपने आप में तडप रहे हैं, दूसरे के लिये क्या कर रहे हैं? हमारे भावों का दूसरों पर भी प्रभाव पडता है। हिंसा का संपादन कर्ता हमारा रागद्वेष परिणाम है। शारीरिक गुणों का घात करना द्रव्य हिंसा है और आध्यात्मिक गुणों का आघात करना, उसमें व्यवधान करना भाव हिंसा है। वह ‘स्व’, ‘पर’ दोनो की हो सकती है।

    गृहस्थाश्रम की बात है। माँ ने कहा, अंगीठी के ऊपर भगौनी में दूध है। उसे नीचे उतार कर दो बर्तनों में निकाल लेना। एक बर्तन में दही जमाना है और दूसरे में दूध ही रखना है। जो बर्तन छोटा है उसे आधा रखना, उसमें दही जमाने के लिये सामग्री पडी है और दूसरे बर्तन में जितना दूध शेष है, रख देना। दोनो को पृथक-पृथक रखना। सारा काम तो कर लिया पर दोनो बर्तन पृथक नहीं रखे। परिणाम यह निकला कि प्रातःकाल दोनों बर्तनों में दही जम गया। एक में दही जमाने का साधन नहीं था फिर भी जम गया, वह दूसरे के सम्पर्क से जम गया।

    जब जड पदार्थ में संगति से परिवर्तन हो गया तो क्या चेतन द्रव्य में परिवर्तन नहीं होगा? परिवर्तन प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रव्य में हो रहा है और उसका असर आसपास पड रहा है। हम इस रहस्य को समझ नहीं पाते। इसलिये आचार्यों ने कहा कि प्रमादी मत बनो। असावधान मत होओ।

    बुद्ध कहते हैं कि प्राणियों पर करुणा करो, यीशु कहते हैं कि प्राणियों की रक्षा करो और नानक आदि सभी कहते हैं कि दूसरों की रक्षा करो किंतु भगवान महावीर कहते हैं कि स्वयं बचो, दूसरा अपने आप बच जायेगा। दूसरे को बचाने जाओगे तो वह बचे ही, यह अनिवार्य नही है लेकिन स्वयं रागद्वेष से बचोगे तो हिंसा सम्भव नहीं है। ‘जियो और जीने दो’, पहले तुम खुद जियो क्योंकि जो खुद जीना चाहेगा वह दूसरों के लिये जीने में बाधा डाल ही नहीं सकता।

    हमारे जीवन से दूसरों के लिये तभी खतरा है जबतक हम खुद प्रमादी हैं, असावधान हैं। ‘अप्रमत्तो भव’- प्रमाद मत करो। एक क्षण भी प्रमाद मत करो, अप्रमत्त दशा में लीन रहो। आत्मा में विचरण करना ही अप्रमत्त दशा का प्रतीक है। वहाँ राग द्वेष करेगा और अपनी आत्मा से बाहर दूर रहेगा, फिर चाहे वह किसी गति का प्राणी क्यों ना हो। वह देव भी हो सकता है। वह नारकी हो सकता है। वह मनुष्य भी हो सकता है। मनुष्य में भी गृहस्थ भी हो सकता है या गृह-त्यागी भी हो सकता है। वह संत या ऋषि भी हो सकता है। जिस समय जीव रागद्वेष से युक्त होता है उस समय उससे हिंसा हुए बिना रह नहीं सकती।

    आज भी अहिंसा का अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग होता है न्यायालय में। वहाँ पर भी भाव-हिंसा का ध्यान रखा जाता है। भावहिंसा के आधार पर ही न्याय करते हैं। एक व्यक्ति ने निशाना लगाकर गोली चलाई। उसने निशाना मात्र सीखने की दृष्टि से लगाया था। निशाना चूक गया, गोली जाकर लग गयी एक व्यक्ति को और उसकी मृत्यु हो गयी। गोली मारने वाले व्यक्ति को पुलिस ने पकड लिया। उससे पूछा गया कि तुमने गोली चलाई? उसने कहा- चलाई, किंतु मेरा अभिप्राय मारने का नहीं था। मैं निशाना लगाना सीख रहा था, निशाना चूक गया और गोली लग गयी। चूँकि उसका अभिप्राय खराब नहीं था इसलिये उसे छोड दिया गया।

    दूसरा-एक व्यक्ति निशाना लगा कर किसी की हत्या करना चाहता था। वह गोली मारता है, गोली लगती नहीं और गोली मारने वाले को पुलिस पकड लेती है। पुलिस पूछती है कि तुमने गोली मारी, तो वह जवाब देता है मारी तो है पर उसे लगी कहाँ? पुलिस उसे जेल में बन्द कर देती है। ऐसा क्यों? जीव हिंसा नहीं हुई इसके उपरांत भी उसे जेल भेज दिया गया और जिससे जीव हिंसा हो गयी थी, उसे छोड दिया। यह इसलिये कि वहाँ पर भावहिंसा को देखा जा रहा है। न्याय में सत्य और असत्य का विश्लेषण भावों के ऊपर आधारित है।

    हमारी दृष्टि भी भावों की तरफ होनी चाहिये। अपने आप के शरीरादि को ही आत्मा मान लेने से कि ‘मैं शरीर हूँ या शरीर ही मैं हूँ, हिंसा प्रारम्भ हो जाती है। यह अज्ञान और शरीर के प्रति राग ही हिंसा का कारण बनता है। हम स्वयं जीना सीखें। स्वयं तब जिया जाता है जब सारी बाह्य प्रवृत्ति मिट जाती है। अप्रमत्त दशा आ जाती है। इस प्रकार जो स्वयं जीता है वह दूसरे को भी जीने में सहायक होता है। जिसके द्वारा मन-वचन-काय की चेष्टा नहीं हो रही है वह दूसरे के लिये किसी प्रकार की बाधा नहीं देता।

    जो विस्फोट ऊपर से होता है वह उतना खतरनाक नहीं होता जितना गहराई में होने से होता है। आत्मा की गहराई में जो राग-प्रणाली या द्वेष-प्रणाली उद्भूत हो जाती है वह अन्दर से लेकर बाहर तक प्रभावित करती है। उसका फैलाव सारे जगत में हो जाता है। जैनदर्शन में एक उदाहरण भाव-हिंसा को लेकर आता है। समुद्र में जहाँ हजारों मछलियाँ रहती हैं उनमें रोहू मछली होती है। जब वह मुँह खोलकर सो जाती है तो उसके मुँह में अनेक छोटी-छोटी मछलियाँ आती जाती रहती है। जब कभी उसे भोजन की इच्छा होती है वह मुँह बन्द कर लेती है और भीतर अनेक मछलियाँ उसका भोजन बन जाती है।

    इस दृष्य को देखकर एक छोटी मछली जिसे तन्दुल मत्स्य कहते हैं, जो आकार में तन्दुल अर्थात चावल के समान होती है वह सोंचती है कि यह रोहू मछली कितना पागल है, इसे इतना भी नहीं दिखता कि जब मुख में इतनी मछलियाँ आती रहती है तो मुख बन्द कर लेना चाहिये। इसके स्थान पर यदि मैं होता हो लगातार मुख खोलता और बन्द कर लेता। इस तरह सभी को खा लेता। देखिये स्थिति कितनी गम्भीर है। छोटे से मत्स्य की हिंसा की वृत्ति कितनी है, चरम सीमा तक। वह अनन्त जीवों को खाने की लिप्सा रखता है, वह खा एक भी नहीं पाता है क्योंकि उसकी उतनी शक्ति नहीं है लेकिन भावों के माध्यम से खा रहा है निरंतर।

    बाहर से खाना भले ही नहीं देखता है लेकिन अभिप्राय कर लिया, संकल्प कर लिया, तो मन विकृत हो गया। यही हिंसा है। रोहू मछली जितनी आवश्यकता हो उतनी ही खाता है, शेष से कोई मतलब नहीं है, लेकिन तन्दुल मछली एक भी मछली को खा नहीं पाता, पर लिप्सा पूरी है। इसलिये वह सीधा नरक चला जाता है। सीधा सप्तम नरक। यह है भाव हिंसा का प्रभाव।

    आप भी इसे समझें कि मात्र अपने जीवन को द्रव्य हिंसा से ही निवृत्त करना पर्याप्त नहीं है, यदि आप अपने में नहीं हैं अर्थात मन, वचन और आपकी काय की चेष्टायें अपने में नहीं है तो आपके द्वारा दूसरे को धक्का लगे बिना नहीं रह सकता। एक व्यक्ति कोई गलती करता है तो वह एकांत रूप से अपने आप ही नहीं करता उसमें दूसरे का भी हाथ रहता है। भावों का प्रभाव पडता है। दूसरे के धन को देखकर ईर्ष्या अथवा स्पर्धा करने में भी हिंसा का भाव उद्भूत होता है। जो राग द्वेष करता है वह स्वयं दुःखी होता है और दूसरों के भी दुःख का कारण बनता है। लेकिन जो वीतरागी है वह स्वयं सुखी होता है और दूसरों को भी सुखी बनने का कारण सिद्ध होता है।

    आपका जीवन हिंसा से दूर हो और अहिंसामय बन जाये इसके लिये मेरा यही कहना है कि भाव-हिंसा से बचना चाहिये। मेरा कहना तभी सार्थक होगा जब आप स्वयं अहिंसा की ओर बढने के लिये उत्साहित हों, रुचि लें। किसी क्षेत्र में उन्नति तभी सम्भव है जब उसमें अभिरुचि जागृत हों। आपके जीवन पर आपका अधिकार है पर अधिकार होते हुए भी कुछ प्रेरणा बाहर से ली जा सकती है। बाहर से तो सभी अहिंसा की प्राप्ति के लिये आतुर दिखते हैं किंतु अन्दर से भी स्वीकृति होनी चाहिये। एक व्यक्ति जो अपने जीवन को सच्चाई मार्ग पर आरूढ कर लेता है तो वह सुखी बन ही जाता है, साथ ही दूसरे के लिये भी सुखी बनने में सहायक बन जाता है। आप चाहें तो यह आसानी से कर सकते हैं।

    अहिंसा मात्र प्रचार की वस्तु नहीं है और लेन-देन की चीज भी नहीं है, वह तो अनुभव की वस्तु है। कस्तूरी का प्रचार-प्रसार करने की आवश्यकता नहीं होती, जो व्यक्ति चाहता है वह उसे सहज ही पहचान लेता है। महावीर भगवान ने सत्यता को स्वयं जाना और अपने भीतर प्रकट किया तभी वे भगवान बने। उन्होंने किसी को भी छोटा नहीं समझा, सभी को पूर्ण देखा और जाना और पूर्ण समझा। सन्देश दिया कि प्रत्येक आत्मा में भगवान हैं किंतु एकमात्र हिंसा के प्रतिफल स्वरूप स्वयं भगवान के समान हो कर भी हम भगवत्ता का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। जबतक राग-द्वेष रूप हिंसा का भाव विद्यमान रहेगा तबतक सच्चे सुख की प्राप्ति संभव नहीं है। अपने भावों मे अहिंसा के माध्यम से दूसरे का कल्याण हो भी सकता है और नहीं भी किंतु अपनी आत्मा का कल्याण अवश्य होता है। जो अहिंसक है, वह दूसरे को पीडा नहीं पहुँचाता है। यही दूसरे के कल्याण में उसका योगदान है। आचार्यों की वाणी है कि “आदहिदं कादव्वं, जदि सक्कइ परहिद व कादव्वं।आदहिद परहिदादो, आदहिदं सट्ठु कादव्वं”। आत्म हित सर्वप्रथम करना चाहिये। जितना बन सके उतना परहित भी करना चाहिये। लेकिन दोनों में अच्छा आत्म-हित ही है। जो आत्म हित में लगा है उसके द्वारा कभी दूसरे का अहित नहीं हो सकता।

    इस प्रकार ‘स्व’ और ‘पर’ का कल्याण अहिंसा पर आधारित है। आध्यात्म का रहस्य इतना ही है कि अपने को जानो, अपने को पहचानो, अपनी सुरक्षा करो। अपने में सब कुछ समाया है। पहले विश्व को भूलो और अपने को पहचानो; जब आत्मा को जान जाओगे तो विश्व स्वयं सामने प्रकट हो जायेगा। अहिंसा-धर्म के माध्यम से स्व-पर का कल्याण तभी संभव है जब हम उसे आचरण में लायें। अहिंसा के पथ पर चलना ही आहिंसा-धर्म का सच्चा प्रचार-प्रसार है। आज इसी की आवश्यकता है।

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