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दीपमालिका पर्व

लेखक: १०५ ऐलक श्री निशंक सागर जी

ऋतुओं के अनुसार प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में परिणमन होता है, जिसमें नए से पुराना और पुराने में नया रूप आता-जाता रहता है। जो कालचक्र के प्रवाह रूप का परिचय देता है। काल के अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दो भेद हैं। इसमें छः-छः कालों का विभाजन किया गया है। वर्तमान में अवसर्पिणी काल होकर भी हुण्डावसर्पिणी का प्रभाव सर्वत्र एवं सभी द्रव्यों पर स्पष्ट दिखाई दे रहा है अर्थात सभी विचित्रताओं सहित नए-नए दृश्य और संस्कृति व संस्कार के विपरीत धर्म की मर्यादाओं के प्रतिकूल परिणाम देखा जा रहा है।

यह हुण्डावसर्पिणी काल असंख्यात चौबीसी के उपरांत आता है। इस काल के तीसरे आरे में ही भोगभूमि का अभाव होकर कर्मभूमि का दृश्य उपस्थित हो गया था। साथ ही महापुरुषों की उत्पत्ति का प्रारंभ अंतिम कुलकर नाभिराय के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का जन्म तथा राजा आदिनाथ के प्रथम चक्रवर्ती भरत और कामदेव बाहुबली का जन्म हुआ।

राजा आदिनाथ से दीक्षा ले चार घातिया कर्मों का क्षयकर केवल ज्ञान प्राप्त किया और युग के आदि में धर्म का प्रवर्तन कर कैलाश पर्वत से तीसरे काल के (३ वर्ष ८ माह १५ दिन शेष रहने पर) अंत में मोक्ष प्राप्त किया और सनातन सत्य धर्म के मार्ग को प्रवाहित किया, जिसमें भगवान अजितनाथ से तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ तक २२ तीर्थंकर हुए भगवान पार्श्वनाथ के मोक्ष जाने के उपरांत इस युग एवं वर्तमान चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का, हिंसा के ताण्डव नृत्य से दहक रही इस धरा पर जन्म हुआ। जिनके गर्भ में आने पर प्राणी मात्र को अपनी सुरक्षा का वरदान मिला और जन्म के साथ ही अहिंसा के मसीहा का स्पर्श पाकर सम्पूर्ण भारत भूमि आनंद के सागर में झूलने लगी।

महापुरुषों का आचरण तो महान होता ही है, पर उनका होना भी अन्धकार के नाश का कारण होता है। बालक वर्द्धमान ने अपनी युवा अवस्था में संसार के मायाजाल को स्वीकार न कर संसार के कारण कर्म बन्धन को काटने का मार्ग चुना जिस मार्ग पर चलते हुए उन्होंने २२ परीषह ही नहीं, मार्ग पर अनेक उपसर्गों को भी बड़े आनंद और समता के साथ स्वीकार कर निर्बाध मार्ग पर चलते रहे जिसके परिणाम स्वरूप वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराह्न में हस्त नक्षत्र के रहते मनोहर ऋजुकुला नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे चार घातिया कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया तथा अरहंत बनकर सर्वकल्याण की भावना से हितोपदेशी बनने का अवसर पाया। तभी सौधर्मइन्द्र अपने चारों निकाय के देवों के साथ मिलकर प्रभु की केवलज्ञान पूजा करने आया तथा धनकुबेर को आज्ञा दी, अद्भुत अनुपम मान स्तम्भ, रत्नमयी तीन परकोटे, सर्वांगसुन्दर प्रकृति के मेल मिलाप पूर्वक उपवन भूमि आदि सात भूमियाँ और आठवीं श्री मण्डप भूमि में गोलाकार बारह सभाएँ और उनके मध्य में गंधकुटी की रचना की जिसमें तीसरी पीठिका पर सिंहासनसहित कमलासन पर जगतपिता परमेश्वर तीर्थंकर महावीर विराजमान हुए। जो कमलासन से चार अंगुल ऊपर आकार में शोभा को प्राप्त हो रहे थे। भगवान के पीछे आभामण्डल, अशोकवृक्ष, देवों के द्वारा पुष्पवृष्टि, चौसठ चंवर, सिर के ऊपर तीन छत्र आदि अष्ट प्रातिहार्य प्रभु की श्रेष्ठता का ज्ञापन करा रहे थे तथा देखने वाले महान विभूति का चिन्तन कर अपने पापों का प्रक्षालन कर रहे थे। समवशरण में असंख्यात देव-देवियाँ तिर्यंच और मनुष्य नम्रीभूत होकर प्रभु से सन्मार्ग देने की प्रार्थना कर रहे थे पर केवलज्ञान होने के उपरांत भी शिष्यरूपी श्रेष्ठ पात्र के अभाव में प्रभु की दिव्यध्वनि ६५ दिन तक नहीं खिरी।

तब भव्यों के भाग्य स्वरूप सौधर्म इन्द्र को विकल्प हुआ और वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाकर ख्यात नाम वेदवेदांगों के ज्ञाता गौतम गोत्री इन्द्रभूति के पास गया। उस समय इन्द्रभूति अपने पाँच सौ शिष्यों को अध्यापन कार्य करा रहे थे। तब समय पाकर वृद्ध ब्राह्मण ने सविनय निवेदन करते हुए कहा कि तीन काल, छः द्रव्य, सात तत्व, नौ पदार्थ, 6 लेश्या आदि क्या हैं? कृपया इनका स्वरूप और भेदों का वर्णन कर हमें उपकृत करें। पर सत्य के आभास के बिना सत्यार्थ का प्रकाशन कैसे हो सकता है। लोभ के त्याग बिना परमार्थ का उद्घाटन कैसे हो सकता है। रेत पर तैरने वालों को लहरों से पार रत्नों का भंडार कैसे मिल सकता है। अतः इन्द्रभूति अपने अन्तस को दबाते हुए क्रोध की मुद्रा में आकर वृद्ध ब्राह्मण से बोले- चलो मैं तुमसे नहीं तुम्हारे गुरु से ही चर्चा कर उनको ही समझाऊँगा। इच्छा पूर्ण हुई, स्वप्न साकार हुआ और अन्धे ने आँख पाई। आगे-आगे वृद्ध ब्राह्मण और उनके पीछे पैर पटकते हुए इन्द्रभूति चल रहे थे, जैसे ही समवशरण के निकट आए, दो हजार सीढ़ियाँ पार कर, उत्तुंग मानस्तम्भ का अवलोकन किया। चतुर्मुखी प्रभु से दृष्टिपूत हो, मान का मर्दन हो गया, कषाय का वमन, समता का आगमन और प्रभु मिलन का उत्साह अन्तरंग में हिलोरें मारने लगा।

आठवीं सभा भूमि में पहुँचते ही महान चमत्कार हुआ, जो लड़ने आया था, वह प्रभु का लाड़ला बन गया। प्रभु से दीक्षा ले प्रथम शिष्य कहलाया। जिस दिन इन्द्रभूति गौतम ने दिगम्बरी दीक्षा धारण की उस दिन महान तिथि थी आषाढ़ सुदी पूर्णिमा, जो आज भी गुरु पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसा महान शिष्य जिसने निष्काम एवं पूर्णता से युक्त प्रभु महावीर को अपना गुरु बनाया था। जिसने तर्क नहीं समर्पण को जाना और गुरु की गरिमा के अनुसार प्रत्येक संकेत को अपना जीवन माना क्योंकि शिष्य बनने के उपरांत अपनी आँख से नहीं गुरु की आँख से देखा जाता है। अपने कदमों से नहीं, गुरु के चिन्हों पर चलना होता है। तभी महान गुरु के महान शिष्य होने का गौरव मिला करता है। ज्ञान पूर्ण अर्थात केवलज्ञानी भगवान महावीर इन्द्रभूति जैसे अपूर्व शिष्य को पाकर, सावन की प्रतिपदा के दिन राजगृही के विपुलाचल पर्वत से अपनी प्रथम दिव्य देशना हुई, और महीनों से प्यासे भव्यों को तृप्त किया, सभी को आत्म-कल्याण का दिग्दर्शन कराया। कार्तिक कृष्णा तेरस के दिन समवशरण रूपी बहिरंग लक्ष्मी का त्याग किया, जिससे वह तेरस भी धन्य हो गई, क्योंकि अतिथियों (महान आत्माओं) के द्वारा ही तिथि में पूज्यता और धरती पर तीर्थों का निर्माण होता है। पर आज सारा समाज इस तथ्य से अनभिज्ञ हो इस तेरस को धन तेरस मानकर धन की पूजा में ही संलग्न हो गई है। जबकि इस तिथि पर प्रभु ने देवों की दिव्यलक्ष्मी को भी ठुकरा दिया। बिहार प्रान्त के पावापुरी के पद्म सरोवर पर पहुँचे, वहाँ योग की प्रवृत्ति को संकुचित करते हुए कार्तिक की अमावस्या की प्रत्यूष बेला में, शेष चार अघातिया कर्मों के बंधन से छूटकर अष्टम भूमि सिद्धशिला अर्थात लोकाग्र पर जा विराजमान हुए।

भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण उपरान्त सौधर्म सहित सभी देवों ने उनके निर्वाण की पूजा कर महान उत्सव मनाया। इसके परिणाम स्वरूप इस भारत भूमि पर जन प्रभु की अनुकम्पा की कृतज्ञता स्वीकार करते हुए, प्रत्येक कार्तिक की अमावस्या को प्रातःकाल तीर्थ भूमियों, सिद्ध भूमियों, अतिशय क्षेत्रों एवं अपने-अपने जिनालयों में प्रभु की पूजन भक्ति कर, सभी निर्वाण भूमियों और निर्वाण प्राप्त आत्माओं को याद कर निर्वाण लाडू चढ़ाते हैं। साथ ही अपनी खुशी का विस्तार करते हुए परस्पर में सौहार्द्र, वात्सल्य स्वरूप धर्म की ज्योति का प्रकाशन करते हैं। इसी दिन अमावस्या की काली रात होने पर भी गोधूलि वेला में भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम स्वामी को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई तब सौधर्म आदि सभी देवों ने केवलज्ञानी गौतम के चरणों में आकर उनकी पूजा की और प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहा- हे अरहन्त परमेष्ठी! आप अपनी वीतरागता, धर्मोपदेशता और सर्वज्ञता के द्वारा मर्त्य भूमि पर विचरण कर सभी को दिव्य ज्ञान प्रदान करें और सभी के अन्तःकरण में विराजमान अज्ञान अन्धकार को दूर करते हुए सम्यग्ज्ञान का प्रकाश प्रदान करें, ऐसे प्रकाशदायी गौतम स्वामी की केवलज्ञान के पूजन स्वरूप शाम को सभी मन्दिरों एवं घरों में बाहरी अमावस्या की काली रात को प्रकाशमान करते हैं साथ ही छोटे से इस मिट्टी के दीपक से शिक्षा लेते हैं कि अन्तस्‌ के अन्धकार को भी प्रकाश में परिवर्तित करें और गोधूलि बेला में की जाने वाली पूजन धन लक्ष्मी की नहीं अपितु केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी की प्रतीक होती है और होनी चाहिए। इस तरह हम सभी रूढ़ियों, कुरीतियों और भ्रम से उस पार जाकर सत्य की पहचान करें और सत्य के प्रकाश से अपने को प्रकाशित करें। तभी प्रभु का निर्वाण महोत्सव, गौतम स्वामी का केवलज्ञान कल्याणक सार्थक ओर हम सभी के द्वारा की जाने वाली पूजन, भक्ति, अर्चना भी सफल होगी। इन पर्वों, महोत्सवों, त्योहारों पर मीठा खाकर मात्र मुँह को ही मीठा न करें अपितु बाहरी प्रकाश से अंतःकरण भी प्रकाशित करें और मिठाई के साथ अपने चारण, व्यवहार, वात्सल्य, सहकार सौहार्द को परस्पर में बाँटकर स्व-पर जीवन को भी मधुर बनाएँ। प्रेम, करुणा के दीपक जलाकर सभी में अपनत्व का संचार करें।

हमें पढ़ें और ध्यान दें-

निर्वाण लाडू एवं दीपमलिका भगवान महावीर के निर्वाण कल्याणक तथा गौतम गणधर के केवलज्ञान की भक्ति-पूजा का उत्सव है।

चौदस-अमावस शामिल होने पर भी ध्यान रखें कि पहले मंदिर में वीर निर्वाण संबंधी अभिषेक पूजन-लाडू चढ़ाने के बाद ही गोधूलि बेला यानी शाम को घर में दिन रहते द्रव्य पूजन करें, क्योंकि भगवान महावीर के मोक्ष कल्याणक के बाद ही गणधर इन्द्रभूति गौतम स्वामी को केवल ज्ञान हुआ था। फिर पहले घर की बाद में मंदिर की दिवाली कैसे मना सकते हैं अतः लौकिकता में परमार्थ को न भूलें।

दीपावली अहिंसा का पर्व है, इसे हिंसा का रूप न दें। पटाखे फोड़कर अहिंसा धर्म-धन का दुरुपयोग न  करें। साथ ही प्राणी मात्र को अभयदान देकर अपने वात्सल्य, संवेदनशीलता के परिचय द्वारा सभी जीवों से अपनत्व एवं मैत्री स्थापित करें।
– १०५ ऐलक श्री निशंक सागर जी

माला प्रतिष्ठा मन्त्र



ऊँ ह्रीं रत्नैः सुवर्णसूत्रैः बीजैर्या रचिता जपमालिका, सर्वजपेषु र्स्वाणि वांच्छितानि प्रयच्छतु।

यानी- रत्न सुवर्ण, सूतादिक की नवीन माला बनाने के पश्चात उसे भगवान का अभिषेक करते समय पीठ में रखना चाहिए। तदन्तर एक थाली में केशर से स्वस्तिक बनाकर माला उसके ऊपर रखना चाहिए। ऊपर का प्रतिष्ठा मन्त्र सात बार शुद्ध उच्चारण करके दोनों हाथों से सुगन्धित पुष्प या लवंग अथवा केशर मिश्रित चावल माला पर प्रक्षेपण करें। इसके बाद वह माला जप करने योग्य हो जाती है। माला पृथ्वी पर न रखकर उच्च स्थान पर रखना चाहिए।

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