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२२१ – खुली सीप में, स्वाति की बूँद मुक्ता, बने, और न…!
२२२ – दिन में शशि, विदुर सा लगता, सुधा-विहीन।
२२३ – कब, पता न, मृत्यु एक सत्य है, फिर डर क्यों ?
२२४ – काल घूमता, काल पै आरोप सो, क्रिया शून्य है।
२२५ – बिना नयन, उप नयन किस, काम में आता ?
२२६ – अन जान था, तभी मजबूरी में, मज़दूर था।
२२७ – बिन देवियाँ, देव रहे, देवियाँ, बिन-देव ना…!
२२८ – काला या धोला, दाग, दाग है फिर, काला तिल भी…
२२९ – हीरा, हीरा है, काँच, काँच है किन्तु, ज्ञानी के लिए…
२३० – पापों से बचे, आपस में भिड़े क्या, धर्म यही है ?
२३१ – डाल पे पका, गिरा आम मीठा हो, गिराया खट्टा…
२३२ – भार हीन हो, चारु-भाल की माँग, क्या मान करो ?
२३३ – पक्षाघात तो, आधे में हो, पूरे में, सो पक्षपात…
२३४ – प्रति-निधि हूँ, सन्निधि पा के तेरी, निधि माँगू क्या ?
२३५ – आस्था व बोध, संयम की कृपा से, मंज़िल पाते।
२३६ – स्मृति मिटाती, अब को, अब की हो, स्वाद शून्य है।
२३७ – शब्द की यात्रा, प्रत्यक्ष से अन्यत्र, हमें ले जाती।
२३८ – चिन्तन में तो, परालम्बन होता, योग में नहीं।
२३९ – सत्य, सत्य है, असत्य, असत्य तो, किसे क्यों ढाँकू…?
२४० – किसको तजूँ, किसे भजूँ सबका, साक्षी हो जाऊँ।
२४१ – न पुंसक हो, मन ने पुरुष को, पछाड़ दिया…
२४२ – साधना क्या है ?, पीड़ा तो पी के देखो, हल्ला न करो।
२४३ – खाल मिली थी, यहीं मिट्टी में मिली, ख़ाली जाता हूँ।
२४४ – जिस भाषा में, पूछा उसी में तुम, उत्तर दे दो।
२४५ – कभी न हँसो, किसी पे, स्वार्थवश, कभी न रोओ।
२४६ – दर्पण कभी, न रोया न हँसा, हो, ऐसा सन्यास।
२४७ – ब्रह्म रन्ध्र से-, बाद, पहले श्वास, नाक से तो लो।
२४८ – सामायिक में, तन कब हिलता, और क्यों देखो…?
२४९ – कम से कम, स्वाध्याय (श्रवण) का वर्ग हो प्रयोग-काल।
२५० – एक हूँ ठीक, गोता-खोर तुम्बी क्या, कभी चाहेगा ?
२५१ – बिना विवाह, प्रवाहित हुआ क्या, धर्म-प्रवाह।
२५२ – दूध पे घी है, घी से दूध न दबा, घी लघु बना।
२५३ – ऊपर जाता, किसी को न दबाता, घी गुरु बना।
२५४ – नाड़ हिलती, लार गिरती किन्तु, तृष्णा युवती।
२५५ – तीर न छोड़ो, मत चूको अर्जुन !, तीर पाओगे।
२५६ – बाँध भले ही, बाँधो, नदी बहेगी, अधो या ऊर्ध्व।
२५७ – अनागत का, अर्थ, भविष्य न, पै, आगत नहीं।
२५८ – तुलनीय भी, सन्तुलित तुला में, तुलता मिला।
२५९ – अर्पित यानी, मुख्य, समर्पित सो, अहंका त्याग।
२६० – गन्ध जिह्वा का, खाद्य न, फिर क्यों तू, सौगंध खाता ?
२६१ – स्व-स्व कार्यों में, सब लग गये पै, मन न लगा ।
२६२ – तपस्वी बना, पर्वत सूखे पेड़, हड्डी से लगे।
२६३ – अन्धकार में, अन्धा न, आँख वाला, डर सकता।
२६४ – जल कण भी, अर्क तूल को, देखा !, धूल खिलाता।
२६५ – जल में तैरे, स्थूल-काष्ठ भी, लघु-, कंकर डूबे।
२६६ – छाया सी लक्ष्मी, अनुचरा हो, यदि, उसे न देखो।
२६७ – गुरु औ शिष्य, आगे-पीछे, दोनों में, अन्तर कहाँ ?
२६८ – सत्य न पिटे, कोई न मिटे ऐसा, न्याय कहाँ है ?
२६९ – ऊहापोह के, चक्रव्यूह में-धर्म, दुरुह हुआ।
२७० – नेता की दृष्टि, निजी दोषों पे हो, या, पर गुणों पे।
२७१ – गिनती नहीं, आम में मोर आयी, फल कितने ?
२७२ – दु:खी जग को, तज, कैसे तो जाऊँ, मोक्ष ? सोचता।
२७३ – दीप काजल, जल काई उगले, प्रसंग वश।
२७४ – बोलो ! माटी के, दीप-तले अंधेरा, या रतनों के ?
२७५ – बिना राग भी, जी सकते हो जैसे, निर्धूम अग्नि।
२७६ – दायित्व भार, कन्धों पे आते, शक्ति, सो न सकती।
२७७ – सुलझे भी हो, और औरों को क्यों तो ?, उलझा देते ?
२७८ – कब बोलते ?, क्यों बोलते ? क्या बिना, बोले न रहो ?
२७९ – तपो वर्धिनी, मही में ही मही है, स्वर्ग में नहीं।
२८० – और तो और, गीले दुपट्टे को भी, न फटकारो।
२८१ – ख़ूब बिगड़ा, तेरा उपयोग है, योगा कर ले !
२८२ – ज्ञान ज्ञेय से, बड़ा, आकाश आया, छोटी आँखों में।
२८३ – पचपन में, बचपन क्यों ? पढ़ो, अपनापन।
२८४ – भोगों की याद, सड़ी-गली धूप सी, जान खा जाती
२८५ – सहगामी हो, सहभागी बने सो, नियम नहीं।
२८६ – पद चिह्नों पै, प्रश्न चिह्न लगा सो, उत्तर क्या दूँ ( किधर जाना ?)
२८७ – निश्चिन्तता में, भोगी सो जाता, वहीं, योगी खो जाता।
२८८ – शत्रु मित्र में, समता रखें, न कि, भक्ष्या भक्ष्य में।
२८९ – आस्था झेलती, जब आपत्ति आती, ज्ञान चिल्लाता?
२९० – आत्मा ग़लती, रागाग्नि से, लोनी सी, कटती नहीं।
२९१ – नदी कभी भी, लौटती नहीं फिर !, तू क्यों लौटता ?
२९२ – समर्पण पे, कर्त्तव्य की कमी से, सन्देह न हो।
२९३ – कुण्डली मार, कंकर पत्थर पे, क्या मान बैठे ?
२९४ – खुद बँधता, जो औरों को बाँधता, निस्संग हो जा।
२९५ – सदुपयोग-, ज्ञान का दुर्लभ है, मद-सुलभ।
२९६ – ज्ञानी हो क्यों कि, अज्ञान की पीड़ा में, प्रसन्न-जीते।
२९७ – ज्ञान की प्यास, सो कहीं अज्ञान से, घृणा तो नहीं।
२९८ – प्रभु-पद में, वाणी, काया के साथ मन ही भक्ति।
२९९ – मूर्च्छा को कहा, परिग्रह, दाता भी, मूर्च्छित न हो।
३०० – जीवनोद्देश, जिना देश-पालन, अनुपदेश।
३०१ – द्वेष से राग, विषैला होता जैसा, शूल से फूल।
३०२ – विषय छूटे, ग्लानि मिटे, सेवा से, वात्सल्य बढ़े।
३०३ – अग्नि पिटती, लोह की संगति से, अब तो चेतो।
३०४ – सर्प ने छोड़ी, काँचली, वस्त्र छोड़े !, विष तो छोड़ो…!
३०५ – असमर्थन, विरोध सा लगता, विरोध नहीं।
३०६ – हम वस्तुत:, दो हैं, तो एक कैसे, हो सकते हैं ?
३०७ – मैं के स्थान में, हम का प्रयोग क्यों, किया जाता है ?
३०८ – मैं हट जाऊँ, किन्तु हवा मत दो, और न जले…!
३०९ – बड़ी बूँदों की, वर्षा सी बड़ी राशि, कम पचती।
३१० – जिज्ञासा यानी, प्राप्त में असन्तुष्टि, धैर्य की हार…!
३११ – बिना अति के, प्रशस्त नति करो, सो विनती है।
३१२ – सुनो तो सही, पहले सोचो नहीं, पछताओगे।
३१३ – केन्द्र को छूती, नपी, सीधी रेखाएँ, वृत्त बनाती।
३१४ – शक्ति की व्यक्ति, और व्यक्ति की मुक्ति होती रहती।
३१५ – जो है ‘सो’ थामें, बदलता, होगा ‘सो’ है में ढलता।
३१६ – चिन्तन-मुद्रा, प्रभु की नहीं क्यों कि वह दोष है।
३१७ – पथ में क्यों तो, रुको, नदी को देखो चलते चलो।
३१८ – ज्ञानी ज्ञान को, कब जानता जब, आपे में होता।
३१९ – बँटा समाज, पंथ-जाति-वाद में, धर्म बाद में
३२० – घर की बात, घर तक ही रहे।, बे-घर न हो।
३२१ – अकेला न हूँ, गुरुदेव साथ हैं, हैं आत्मसात् वे।
३२२ – निर्भय बनो, पै निर्भीक होने का, गर्व न पालो।
३२३ – अति मात्रा में, पथ्य भी कुपथ्य हो, मात्रा माँ सी हो।
३२४ – संकट से भी, धर्म-संकट और, विकट होता।
३२५ – अँधेरे में हो, किंकर्त्तव्य मूढ़ सो, कर्त्तव्य जीवी।
३२६ – धन आता दो, कूप साफ़ कर दो, नया पानी लो।
३२७ – हम से कोई, दु:खी नहीं हो, बस !, यही सेवा है।
३२८ – चालक नहीं, गाड़ी दिखती, मैं न, साड़ी दिखती।
३२९ – एक दिशा में, सूर्य उगे कि दशों-, दिशाएँ ख़ुश।
३३० – जीत सको तो, किसी का दिल जीतो, सो, वैर न हो।
३३१ – सिंह से वन, सिंह, वन से बचा, पूरक बनो।
३३२ – तैरना हो तो, तैरो हवा में, छोड़ो !, पहले मोह।
३३३ – गुरु कृपा से, बाँसुरी बना, मैं तो, ठेठ बाँस था।
३३४ – पर्याय क्या है ?, तरंग जल की सो !, नयी-नयी है।
३३५ – पुण्य का त्याग, अभी न, बुझे आग, पानी का त्याग।
३३६ – प्रेरणा तो दूँ, निर्दोष होने, रुचि, आप की होगी।
३३७ – वे चल बसे, यानी यहाँ से वहाँ, जा कर बसे।
३३८ – कहो न, सहो, सही परीक्षा यही, आपे में रहो।
३३९ – पाँचों की रक्षा, मुठ्ठी में, मुठ्ठी बँधी, लाखों की मानी।
३४० – केन्द्र की ओर, तरंगें लौटती सी, ज्ञान की यात्रा।
३४१ – बँधो न बाँधो, काल से व काल को, कालजयी हो।
३४२ – गुरु नम्र हो, झंझा में बड़ गिरे, बेंत ज्यों की त्यों।
३४३ – तैरो नहीं तो, डूबो कैसे, ऐसे में, निधि पाओगे ?
३४४ – मध्य रात्रि में, विभीषण आ मिला, राम, राम थे।
३४५ – व्यापक कौन ?, गुरु या गुरु वाणी, किस से पूछें ?
३४६ – योग का क्षेत्र, अंतर्राष्ट्रीय, नहीं, अंतर्जगत् है।
३४७ -मत दिलाओ, विश्वास लौट आता, व्यवहार से। (आचरण से)
३४८ -सार्थक बोलो, व्यर्थ नहीं साधना, सो छोटी नहीं।
३४९ -मैं खड़ा नहीं, देह को खड़ा कर, देख रहा हूँ।
३५० -आँखें ना मूँदों, नाही आँख दिखाओ, सही क्या देखो?
३५१ -हाथ ना मलो, ना ही हाथ दिखाओ, हाथ मिलाओ।
३५२ -जाने केवली, इतना जानता हूँ, जानन हारा।
३५३ -ठण्डे बस्ते में, मन को रखना ही, मोक्षमार्ग है।
३५४ -आँखें देखती, हैं मन सोचता है, इसमें मैं हूँ।
३५५ -उड़ना भूली, चिड़िया सोने की तू, उठ उड़ जा।
३५६ -झूठ भी यदि, सफ़ेद हो तो सत्य, कटु क्यों न हो ?
३५७ -परिधि में ना, परिधि में हूँ हाँ हूँ, परिधि सृष्टा।
३५८ -बचो-बचाओ, पाप से पापी से ना, पुण्य कमाओ।
३५९ -हँसो-हँसाओ, हँसी किसी की नहीं, इतिहास हो।
३६० -अति संधान, अनुसंधान नहीं, संधान साधो।
३६१ -है का होना ही, द्र्व्य का स्वभाव है, सो सनातन।
३६२ -सुना था सुनो, ”अर्थ की ओर न जा” डूबो आपे में।
३६३ -अपनी नहीं, आहुति अहं की दो, झाँको आपे में।
३६४ -पीछे भी देखो, पिछलग्गू न बनो, पीछे रहोगे।
३६५ -द्वेष पचाओ, इतिहास रचाओ, नेता बने हो।
३६६ -काम चलाऊ, नहीं काम का बनूँ, काम हंता भी।
३६७ -आँखों से आँखें, न मिले तो भीतरी, आँखें खुलेगी।
३६८ -ऊधमी तो है, उद्यमी आदमी सो, मिलते कहाँ ?
३६९ -तुम तो करो, हड़ताल मैं सुनूँ हर ताल को।
३७० -संग्रह कहाँ, वस्तु विनिमय में, मूर्च्छा मिटती।
३७१ -सगा हो दगा, अर्थ विनिमय में, मूर्च्छा बढ़ती।
३७२ -धुन के पक्के, सिद्धांत के पक्के हो, न हो उचक्के । (बनो मुनक्के)
३७३ -नये सिरे से, सिर से उर से हो, वर्षादया की।
३७४ -ज़रा ना चाहूँ, अजरामर बनूँ, नज़र चाहूँ।
३७५ -बिना खिलौना, कैसे किससे खेलूँ, बनूँ खिलौना।
३७६ -चिराग़ नहीं, आग जलाऊँ, ताकि, कर्म दग्ध हों।
३७७ -खेती-बाड़ी है, भारत की मर्यादा, शिक्षा साड़ी है।
३७८ -शरण लेना, शरण देना दोनों, पथ में होते।
३७९ -दादा हो रहो, दादागिरी न करो, दायित्व पालो।
३८० -हाथ तो डालो, वामी में विष को भी, सुधा दो हो तो।
३८१ -श्वेत पत्र पे, श्वेत स्याही से कुछ, लिखा सो पढ़ो।
३८२ -राज़ी ना होना, नाराज़ सा लगता, नाराज़ नहीं।
३८३ -भार तो उठा, चल न सकता तो, पैर उठेंगे।
३८४ -मन का काम, मत करो मन से, काम लो मोक्ष।
३८५ -छात्र तो न हो, शोधार्थी शिक्षक व, प्रयोगधर्मी।
३८६ -दिन में शशि, शर्मिंदा हैं तारायें, घूँघट में है।
३८७ -दीक्षा ली जाती, पद दिया जाता है, सो यथायोग्य ।
३८८ -उन्हें न भूलो, जिनसे बचना है, वक़्त-वक्त पे।
३८९ -सूत्र कभी भी, वासा नहीं होता सो, भाव बदलो। (भाव सु-धारो)
३९० -ध्यान काल में, ज्ञान का श्रम कहाँ, पूरा विश्राम।
३९१ -खान-पान हो, संस्कारित शिक्षा से, खान-दान हो।
३९२ -ऐसा संकेत, शब्दों से भी अधिक, हो तलस्पर्शी।
३९३ -हम अधिक, पढ़े-लिखे हैं कम, समझदार
३९४ -मेरी दो आँखें मेरी ओर हजार सतर्क होऊँ।
३९५ -मुक़द्दर है, उतनी ही चद्दर, पैर फैलाओ।
३९६ -घुटने टेक, और घुटने दो न, घोंटते जाओ।
३९७ -अशुद्धि मिटे, बुध्दि की वृध्दि न हो। विशुध्दि बढ़े।
३९८ -गोबर डालो, मिट्टी में सोना पालो, यूरिया राख।
३९९ – हमसे उन्हें, पाप बंध नहीं हो, यही सेवा है।
४०० – प्राणायाम से, श्वास का मात्र न हो, प्राण दस है।
४०१ – देख रहा हूँ, देख न पा रही है, वे आँखें मुझे।
४०२ – दुस्संगति से बचो, सत् संगति में, रहो न रहो।
४०३ – दुर्ध्यान से तो, दूर रहो सध्यान, करो न करो।
४०४ – कर्रा न भले, टर्रा न हो तो पक्का, पक सकोगे।
४०५ – अंधाधुँध यूँ, महाबंध न करो, अंधों में अंधों।
४०६ – कमी निकालो, हम भी हम होंगे, कहाँ न कमी।
४०७ – लज्जा आती है, पलकों को बना ले, घूँघट में जा।
४०८ – कड़वी दवा, उसे रुचति जिसे, आरोग्य पाना।
४०९ – स्व आश्रित हूँ , शासन प्रशासन, स्वशासित हैं।
४१० – सागर शांत, मछली अशांत क्यों ? स्वाश्रित हो जा।
४११ – कोठिया नहीं, छप्पर फाड़ देती, पक्की आस्था हो।
४१२ – धनी से नहीं, निर्धनी निर्धनी से, मिले सुखी हो।
४१३ – दण्डशास्त्र क्यों ? जैसा प्रभू ने देखा, जो होना हुआ।
४१४ – ईर्ष्या क्यों करो. ईर्ष्या तो बड़ों से हो, छोटे क्यों बनो ?
४१५ – टूट चुका है, बिखरा भर नहीं, कभी जुड़ा था।
४१६ – तपस्या नहीं, पैरों की पूजा देख, आँखें रो रही।
४१७ – भिन्न क्या जुड़ा ? अभिन्न कभी टूटा, कभी सोचा भी ?
४१८ – कौन किससे ? कम है मत कहो, मैं क्या कम हूँ ?
४१९ – त्याग का त्याग, अभी न बुझे आग, पानी का त्याग।
४२० – प्रेरणा तो दूँ , निर्दोष होने बचो, दोष से आप।
४२१ – यात्रा वृत्तांत, ‘’लिख रहा हूँ वो भी”, बिन लेखनी।
४२२ – मन की बात ”सुनना नहीं होता” मोक्षमार्ग में।
४२३ – ठंडे बस्ते में ”मन को रखो फिर” आत्मा में डूबो। (आत्मा से बोलो)
४२४ – खाली हाथ ले ”आया था जाना भी है” खाली हाथ ले।
४२५ – आँखें देखती ”मन याद करता” दोनों में मैं हूँ।
४२६ – दिख रहा जो ‘दृष्टा नहीं दृष्टा सो” दिखता नहीं।
४२७ – आग से बचा ‘धूंवा से जला (व्रती) सा, तू” मद से घिरा।
४२८ – चूल को देखूँ ‘मूलको बंदू भूल” आमूल चूल।
४२९ – अंधी दौड़ में ”आँख वाले हो क्यों तो” भाग लो सोचो।
४३० – महाकाव्य भी ”स्वर्णाभरण सम” निर्दोष न हो।
४३१ – पैरों में काँटे ”गड़े आँखों में फूल” आँखें क्यों चली।
४३२ – चक्री भी लौटा ”समवशरण से ” कारण मोह।
४३३ – दर्शन से ना ”ज्ञान से आज आस्था” भय भीत है।
४३४ – एकता में ही ”अनेकांत फले सो” एकांत टले।
४३५ – पीठ से मैत्री ”पेट ने की तब से” जीभ दुखी है।
४३६ – सूर्य उगा सो ”सब को दिखता क्यों” आँखे तो खोलो।
४३७ – अंधे बहरे ”मूक क्या बिना शब्द” शिक्षा ना पाते।
४३८ – पद यात्री हो ”पद की इच्छा बिन” पथ पे चलूँ।
४३९ – सही चिंतक ”अशोक जड़ सम” सखोल जाता।
४४० – बिन्दु की रक्षा, सिन्धु में नहीं बिन्दु, बिन्दु से मिले।
४४१ – भोग के पीछे, भोग चल रहा है, योगी है मौन।
४४२ – श्वेत पे काला, या काले पे श्वेत हो, मंगल कौन?
४४३ – थोपी योजना, पूर्ण होने से पूर्व, खण्डहर सी।
४४४ – हिन्दुस्थान में, सफल फिसल के, फसल होते।
४४५ – शब्दों में अर्थ, यदि भरा किससे, कब क्यों बोलो।
४४६ – व्यंजन छोडूँ, गूंग है पढूँ है सो, स्वर में सनूँ।
४४७ – कटु प्रयोग, उसे रूचता जिसे, आरोग्य पाना।
४४८ – एक से नहीं, एकता से काम लो, काम कम हो।
४४९ – बड़ों छोटो पे, वात्सल्य विनय से, एकता पाये।
४५० – शब्दों में अर्थ, है या आत्मा में इसे, कौन जानता।
४५१ – असत्य बचे, बाधा न सत्य कभी, पिटे न बस।
४५२ – किसे मैं कहूँ, मुझे मैं नहीं मिला, तुम्हें क्या (मैं) मिला।
४५३ – मण्डूक बनो, कूप मण्डूक नहीं, नहीं डूबोगे।
४५४ – किस मूढ़ में, मोड़ पे खड़ा सही, मोड़ा मुड़ जा।
४५५ – बहुत सोचो, कब करो ना सोचे, करो लुटोगे।
४५६ – मरघट पे जमघट है शव, कहता लौटूँ।
४५७ – ज्ञानी बने हो, जब बोलो अपना, स्वाद छूटता।
४५८ – कोहरा को ना, को रहा कोहरे में, ढली मोह है।
४५९ – जल में नाव, कोई चलाता किंतु, रेत में मित्रों।
४६० – रोते को देख, रोते तो कभी और, रोना होता है।
४६१ – तुम्बी तैरती, तारती औरों को भी, गीली क्या सूखी?
४६२ – भली नासिका, तू क्यों कर फूलती, मान हानि में।
४६३ – कैदी हूँ, देह, जेल में जेलर ना, तो भी वहीं हूँ।
४६४ – हाथ कंगन, बिना बोले रहे, दो, बर्तन क्यों ना?
४६५ – बंदर कूंदे, अचूक और उसे, अस्थिर कहो।
४६६ – सहजता औ, प्रतिकार का भाव, बेमेल रहे।
४६७ – पर की पीड़ा, अपनी करुणा की, परीक्षा लेती।
४६८ – परिचित भी, अपरिचित लगे, स्वस्थ ज्ञान को।
४६९ – पक्की नींव है, घर कच्चा है छांव, घनी है बस।
४७० – कर्त्तव्य मान, ऋण रणांगन को, पीठ नहीं दो।
४७१ – पगडंडी में, डंडे पडते तो क्या, राजमार्ग में?
४७२ – प्रतिशोध में, बोध अंधा हो जाता, शोध तो दूर।
४७३ – मैं क्या जानता, क्या क्या न जानता सो, गुरु जी जानें।
४७४ – धनिक बनो, अधिक वैधानिक, पहले बनो।
४७५ – दर्पण कभी, न रोया श्रद्धा कम, क्यों रोओ हँसो।
४७६ – है का होना ही, द्रव्य का प्रवास है, सो सनातन।
४७७ – सन्निधिता क्यों, प्रतिनिधि हूँ फिर, क्या निधि माँगू।
४७८ – सब अपने, कार्यों में लग गये, मन न लगा।
४७९ – बाहर आते, टेड़ी चाल सर्प की, बिल में सीधी।
४८० – मनोनुकूल, आज्ञा दे दूँ कैसे दूँ, बँधा विधि से।
४८१ – उत्साह बढ़े, उत्सुकुता भगे तो, अगाध धैर्य। (गाम्भीर्य बढ़े)
४८२ – दोनों, न चाहो, एक दूसरे को या, दोनों में एक। (कोई भी एक)
४८३ – पुरुष भोक्तृ, नारी भोक्त न मुक्ति, दोनों से परे।
४८४ – कचरा डालो, अधकचरा नहीं, खाद तो डालो।
४८५ – कचरा बनूँ, अधकचरा नहीं, खाद तो बनूँ।
४८६ – वैधानिक तो, तनिक बनो फिर, अधिक धनी।
४८७ – बाहर टेड़ा। बिल में सीधा होता। भीतर जाओ।
४८८ – ऊधम नहीं, उद्यम करो बनो, दमी आदमी।
४८९ – आज सहारा, हाय को है हायकू, कवि के लिए।
४९० – ध्वनि न देओ, गति धीमी हो निजी, और औरों की।
४९१ – तिल की ओट, पहाड़ छुपा ज्ञान, ज्ञेय से बड़ा।
४९२ – एकजुट हो, एक से नहीं जुड़ो, बेजोड़ जोड़ो।
४९३ – डूबना ध्यान, तैरना सामायिक, डूबो तो जानो।
४९४ – सामायिक में, करना कुछ नहीं, शांत बैठना।
४९५ – दायित्व भार, कंधों पर आते ही, शक्ति आ जाती।
४९६ – दवा तो दवा, कटु या मीठी जब, आरोग्य पान।
४९७ – ज्ञान के सादृश, आस्था भी भीति से सो, कंपती नहीं।
४९८ – कब और क्यों, जहां से निकला सो, स्मृति में लाओ।
४९९ – ममता से भी, समता की क्षमता, अमिता मानी।
५०० – लज्जा न बेचो ‘शील का पालन सो’ ढीला ढीला न।
५०१ – तरण नहीं ‘वितरण बिना हो’ चिरमरण। (भूयोमरण)
५०२ – योग में देखा, कोलाहल मन का, नींद ले रहा।
५०३ – जिनसे मेरे, कर्म धुले टले वो, शत्रु ही कैसे।
५०४ – जिनसे मेरे, कर्म बँधे फले वो, मित्र ही कैसे।
५०५ – वो जवान था, बूढ़ा होकर वह, पूरा हो गया।
५०६ – दर्प देखने, दर्पण देखना क्या, बुद्धिमानी है?
५०७ – उपयोग का, सही उपयोग हो, सही बात है।
५०८ – विष का पान, समता सहित भी, अमृत बने।
५०९ – उनके तीर, न तो डूबो अर्जुन, पाओ न तीर।