Youtube - आचार्यश्री विद्यासागरजी के प्रवचन देखिए Youtube पर आचार्यश्री के वॉलपेपर Android पर दिगंबर जैन टेम्पल/धर्मशाला Android पर Apple Store - शाकाहारी रेस्टोरेंट आईफोन/आईपैड पर Apple Store - जैन टेम्पल आईफोन/आईपैड पर Apple Store - आचार्यश्री विद्यासागरजी के वॉलपेपर फ्री डाउनलोड करें देश और विदेश के शाकाहारी जैन रेस्तराँ एवं होटल की जानकारी के लिए www.bevegetarian.in विजिट करें

अर्हतभक्ति

संकलन : प्रो. जगरूपसहाय जैन
सम्पादन : प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन

भक्ति गंगा की लहर हृदय जे भीतर से प्रवाहित होनी चाहिये और पहुँचनी चाहिये वहाँ, जहाँ निस्सीमता है।

आज हम अहर्तभक्ति की प्ररूपणा करेंगे। अर्हतीति अर्हत अर्थात जो पूज्य हैं उनकी उपासना, उनकी पूजा करना। इसी को अर्हतभक्ति कहते हैं। किंतु प्रश्न है पूज्य है कौन? किसी ने कहा था- भारत देश की विशेषता ही ये है कि यहाँ पूज्य ज्यादा हैं और पूजने वाले कम। उपास्य ज्यादा हैं उपासक कम। जब पूज्यों की कमी हुई तो प्रचूर मात्रा में मूर्तियों का निर्माण होने लगा। पूज्य कौन है, इसी प्रश्न का उत्तर पहले खोजना होगा क्योंकि पूज्य की भक्ति ही वास्तविक भक्ति हो सकती है। अन्य भक्तियाँ तो स्वार्थ साधने के लिये भी हो सकती हैं। पूज्य की भक्ति में गतानुगतिकता के लिए स्थान नहीं है। दो सम्यग्दृष्टियों के भाव, विचार और अनुभव में अंतर होना सम्भव है। भले ही लक्ष्य एक ही हो क्योंकि अनुभूति करना हमारे हाथ की बात है। भाव तो असंख्यात लोक प्रमाण हैं।

आज से कई वर्ष पूर्व दक्षिण से महाराज आये थे। उन्होंने एक घटना सुनाई। दक्षिण में एक जगह किसी उत्सव में जुलूस निकल रहा था। मार्ग थोडा संकरा था पर साफ सुथरा था। अचानक कहीं से आकर एक कुत्ते ने उस मार्ग में मल कर दिया। स्वयंसेवक देख कर सोंच में पड गया। किंतु जल्दी ही विचार कर के उसने उस मलपर थोडे फूल डाल कर ढँक दिया। अब क्या था, एक-एक करके जुलूस में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने उसपर फूल चढाये और वहाँ फूलों का अम्बार लग गया। वह स्थल पूज्य बन गया। ऐसी मूढता के लिये भक्ति में कोई स्थान नहीं है।

भक्ति किसकी? जो भक्तों से कहे, “आ जाओ मेरी ओर और मेरी पूजा करो, मैं तुम्हे शरण दूँगा”। ऐसा कहने वाला भगवान नहीं हो सकता। जहाँ लालसा है ख्याति की, वहाँ भगवान कैसे? काम भोग की आकांक्षा रखने वालों से भगवान का क्या वास्ता? “भगवान भक्त के वश में होते आये” इस कहावत का अर्थ भी गहराई से समझना पडेगा। भगवान तो चुम्बक हैं, जो लोहे को अपनी ओर खींच लेते हैं जिसे मुक्ति की कामना है। उस पाषाण को कभी नहीं खींचते जिसे भुक्ति की कामना है।

भक्ति-गंगा की लहर हृदय के भीतर से प्रवाहित होनी चाहिये और पहुँचनी चाहिये वहाँ जहाँ निस्सीमितता है। गंगा के तट पर पहुँच कर एक आदमी चुपचाप नदी का बहना देखता रहा। उसके गंगा से यह पूछने कि वह कहाँ दौडती चली जा रही है? नदी ने मौन उत्तर दिया, “वहाँ जा रही हूँ जहाँ मुझे शरण मिले”। पहाडों में शरण मिली नहीं। मरुभूमि और गड्ढों में मुझे शरण मिली नहीं, जहाँ सीमा है, वहाँ शरण मिल नहीं सकती, नदी की शरण तो सागर में है, जहाँ पहुँच कर बिन्दु सिन्धु बन जाता है और जहाँ बिन्दु भी गोद में समा जाता है।

पूजा करो, पूर्ण करो। अनन्त की करो। लोक में विख्यात है कि सुखी की पूजा करोगे तो तुम स्वयं भी सुखी बन जाओगे। गंगा, सिन्धु के पास पहुँच कर स्वयं भी सिन्धु बन गयी। वहाँ गंगा का अस्तित्व मिटा नहीं, बिन्दु मिटी नहीं, सागर के समान पूर्ण हो गयी। जैसे कटोरे जल में लेखनी द्वारा एक कोने में स्याही का स्पर्श कर देने से सारे जल में स्याही फैल जाती है, इसी तरह गंगा भी सारे सिन्धु में फैल गयी अपने अस्तित्व को लिये हुए। इसे जैनाचार्यों ने स्पर्द्धक की संज्ञा दी है जिसका अर्थ है शक्ति। यह कहना उपयुक्त होगा कि भगवान भक्त के वश में होते आये और भक्त भगवान के वश में होत आये क्योंकि जहाँ आश्लेष हो जाये, वही है असली भक्ति का रूप।

हमारी मुक्ति नहीं हो रही है क्योंकि हमारी भक्ति में ही भुक्ति की इच्छा है। जहाँ लालसा हो, भोगों की इच्छा हो, वहाँ मुक्ति नहीं नहीं। भक्ति में तो पूर्ण समर्पण होना चाहिये। पर समर्पण है कहाँ? हम तो केवल भोगों के लिये भक्ति करते हैं अथवा हमारा ध्यान पूजा के समय जूते-चप्पलों की ओर ज्यादा रहता है। मैंने एक सज्जन को देखा भक्ति करते हुए। एक हाथ चाबियों के गुच्छे पर और एक हाथ भगवान की ओर उठा हुआ। यह कौन सी भक्ति हुई? कल आपको क्षुल्लकजी ने यमराज के विषय में सुनाया था। दांत गिरने लगे, वृद्धावस्था आ गयी तो अब समझो श्मशान जाने का समय समीप आ गया। किंतु आप तो नयी बत्तीसी लगवा लेते हैं क्योंकि अभी भी आम के रसों की भुक्ति बाकी है। रसों की भुक्ति वाला कभी मुक्ति की ओर देखता नहीं। भक्ति मुक्ति के लिये है और भुक्ति संसार के लिए है। हम अपने परिणामों से ही भगवान से दूर हैं और परिणामों की निर्मलता से ही उन्हें पा सकते हैं।

भक्ति करने के लिये भक्त को कहीं जाना नहीं पडता। भगवान तो सर्वज्ञ और सर्वव्यापी हैं। जहाँ बैठ जाओ, वहीं भक्ति कर सकते हो। हमारे भगवान किसी को बुलाते नहीं और यदि आप वहाँ आप पहुँच जाओ तो आपको दुत्कारेंगे नहीं। क्या सागर गंगा नदी से कहने गया कि तू आ, किंतु नदी बह कर सागर तक गयी तो सागर ने उसे भगाया नहीं। मन्दिर उपयोग को स्थिर करने के लिये है, किंतु उसके उपयोग को स्थिर करने में निमित बने, ये जरूरी नहीं है।

जैनाचार्यों ने कहा, “जो अहर्त को जानेगा, वह खुद को भी जानेगा”। पूज्य कौन है? मैं स्वयं पूज्य, मैं स्वयं उपास्य। मैं स्वयं साहूकार हूँ, तो भीख किससे माँगूं?”

“मैं ही उपास्य जब हूँ स्तुति अन्य की क्यों? मैं साहूकार जब हूँ, फिर याचना क्यों?”

बाहर का कोई भी निमित्त हमें अर्हंत नहीं बना सकता। अर्हंत बनने में साधन भर बन सकता है, अर्हंत बनने के लिये दिशा-बोध भर दे सकता है, पर बनना हमें ही होगा। इसीलिये भगवान महावीर और राम ने कहा-“तुम स्वयं अर्हंत हो”। हमारी शरण में आओ, ऐसा नहीं कहा। कहेंगे भी नहीं। ऐसे ही भगवान वास्तव में पूज्य हैं। तो हमारा कर्तव्य है कि हम अपने अन्दर डूब जायें। मात्र बाहर का सहारा पकड कर बैठने से अर्हंत पद नहीं मिलेगा।

जब तक भक्ति की धारा बाहर की ओर प्रवाहित रहेगी तबतक भगवान अलग रहेंगे और भक्त अलग रहेगा। जो अर्हंत बन चुके हैं उनसे दिशाबोध ग्रहण करो और अपने में डूबकर उसे प्राप्त करो। ‘जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ’। यही है सच्ची अर्हंत की भक्ति भूमिका। गहरे पानी पैठ वाली बात को लेकर आपको एक उदाहरण सुनाता हूँ। एक पण्डित जी रोज सूर्य को नदी के किनारे एक अंजुली जल देते थे और फिर नदी में गोता लगाकर निकल आते थे। एक गडरिया रोज उन्हें ऐसा करते देखता था, उसने पूछा- महाराज यह गोता क्यों लगाअते हो पानी में? पण्डित बोले-तू क्या जाने गडरिये, ऐसा करने से भगवान के दर्शन होते हैं। भगवान के दर्शन, ओह! आपका जीवन धन्य है। मैं भी कर के देखूँगा और इतना कह कर गडरिया चला गया। दूसरे दिन पण्डित जी के आने के पहले वह पानी में कूद गया और डूबा रहा दस मिनट पानी में। जल देवता, उसकी भक्ति देखकर दर्शन देने आ गये और पूछा- माँग क्या मांगता है? गडरिया आनन्द से भर कर बोला, “दर्शन हो गये प्रभु के, अब कोई माँग नहीं”। प्रभु के दर्शन के बाद कोई माँग शेष नहीं रहती। ऐसे ही गहरे अपने अन्दर उतरना होगा, तभी प्राप्ति होगी प्रभु या स्वयं या आत्मा की। महावीरजी में मैंने देखा एक सज्जन को। घडी देखते जा रहे हैं और लगाये जा रहे हैं चक्कर मन्दिर के। पूछने पर बताया कि 108 चक्कर लगाने हैं मन्दिर के। पहले 108 चक्कर लगाये थे, बडा लाभ हुआ था। ऐसे चक्कर लगाने से, जिसमें आकुलता हो, कुछ नहीं मिलता। भक्ति का असली रूप पहचानो, तभी पहुँचोगे मंजिल पर, अन्यथा संसार की मरुभूमि में ही भटकते रह जाओगे।

प्रवचन वीडियो

कैलेंडर

december, 2024

चौदस 30th Nov, 202430th Dec, 2024

चौदस 08th Dec, 202408th Dec, 2024

चौदस 14th Dec, 202414th Dec, 2024

चौदस 23rd Dec, 202423rd Dec, 2024

चौदस 29th Dec, 202429th Dec, 2024

X