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दीपावली पूजन – सम्पूर्ण जैन विधि


लेखक: पं. श्री नाथूलाल जी शास्त्री

 

“दीपावली जैन संस्कृति का महान पर्व है। आज से 2522 वर्ष पूर्व कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के समापन होते ही अमावस्या के प्रारम्भ में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का पावापुरी से विर्वाण हुआ था। उस दिन ठीक निर्वाण के समय पावापुरी (बिहार-प्रांत) में भगवान महावीर के चरण चिन्ह के स्थान के ऊपर एक छत्र स्वयमेव ही प्राकृतिक रूप से घूमने लगता है। उस निर्वाण वेला में देवों द्वारा दिव्य दीपों को आलोकित कर निर्वाण महोत्सव मनाया गया। मानव समुदाय ने भी जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर निर्वाण लाडू (नैवेद्य) चढा कर पावन दिवस को समारोहित किया।

इसी दिवस शुभ-बेला में अंतिम तिर्थंकर भगवान महावीर के प्रथम प्रमुख गणधर गौतम स्वामी को केवल लक्ष्मी की प्राप्ति हुई, जिसके उल्लास में ज्ञान के प्रतीक निर्मल प्रकाश से समस्त लोक को प्रकाशित करती हुई दीप मालिकायें प्रज्वलित कर भव्य-दिव्य-उत्सव मनाया गया।

यह अवसर्पिणी के चतुर्थ काल का समापन तथा पंचम काल का सन्धि काल था, जब कार्तिक शुक्ल एकम से नवीन संवत्सर का शुभारम्भ हो कर यह श्री वीर निर्वाण संवत के नाम से प्रचलित हुआ। विश्व में ज्ञात, प्रचलित- अप्रचलित शताधिक संवत्सरों में यह सर्वाधिक प्राचीन है। भारतीय संस्कृति के आस्थावान अनुयायी इस देन व्यावसायिक संस्थानों में हिसाब बहियों का शुभ मुहुर्त कर्ते हैं, इसी दिन से नवीन लेखा-वर्ष का परम्परानुसार शुभारम्भ माना जाता है।

भारत सरकार ने वर्ष 1989 में एक विधेयक पारित कर लेखा वर्ष की गणना ईसवी सन की 1 अप्रैल से प्रारम्भ कर 31 मार्च तक की जाने की अनिवार्यता लागू कर हमारी धार्मिक , सांस्कृतिक तथा सामाजिक मान्याओं से परे अपनाने को सभी को बाध्य एवं विवश कर दिया है। यद्यपि शासकीय नियम के परिवर्तन को 19 वर्ष हो चुके हैं किंतु अब भी अधिकांश जन लेखा बहियाँ दीपावली के देन ही खरीद कर लाते हैं। दीपावली के मंगल दिवस पर विधि-विधान अनुसार श्री महावीर स्वामी की पूजा एवं अन्य मांगलिक क्रियायें सम्पन्न कर शुभ बेला में स्वस्तिक मांड कर रख देते हैं, तथा इन्हें लगभग पाँच माह उपरांत 1 अप्रैल से प्रारंभ करते है।

अनेक लोग इन परिस्थितिवश दुविधाग्रस्त हैं के बहियाँ खरीद कर दीपावली पर पूर्वानुसार लाना ही उचित है अथवा एक अप्रैल या उसके पूर्ववर्ती देवस को। इस सन्दर्भ मे जान लेना परम आवश्यक है कि दीपोत्सव पर्व को मनाने का कारण श्री वीर प्रभु का निर्वाण तथा गणधर श्री गौतम स्वामी को कैवल्य लक्ष्मी की प्राप्ति होना है जबकि पूर्व काल में लेखावर्ष का शुभारंभ तथा संवत्सरी भी इससे सम्बद्ध होने से इसी अवसर पर नवीन बहियाँ खरीद कर लाना एवम उनका शुभ-मुहूर्त आदि प्रासंगिक एवं युक्तियुक्त था।अब चूँकि लेखा वर्ष का शुभारम्भ 1 अप्रैल से होता है अतः31 मार्च अथवा 1-2 दिन पूर्व शुभ-दिवस, चौघडिया एवं मुहूर्त में बहियाँ ला कर 31 मार्च को भी विधि अनुसार पूजन कर नवीन बहियों का शुभ मुहूर्त किया जा सकता है। जो लोग दीपावली के दिन बहियाँ ला कर रख देते हैं, उन्हे असुविधा ना हो तो वे परम्परानुसार कर्ते रहें। यह सभी सुविधाओं पर निर्भर है। वैसे भी बही मुहूर्त तथा लेखा शुभारम्भ दोनो अलग अलग क्रियायें हैं। बही मुहूर्त दीपावली को कर उनका शुभारम्भ 1 अप्रैल से किया जा सकता है।

हमारी धार्मिक आस्था तथा इतिहास-प्रामाणित परम्परा बनी रहे इस आर्थ दीपावली अर्थात कार्तिक कृष्ण अमावस्या को प्रातः काल श्री जिनेन्द्र भगवान की भक्ति भाव सहित पूजन कर निर्वाण लाडू चढावें। पश्चात अच्छे चौघडिये में अथवा सायंकाल सूर्यास्त पूर्व दुकानों, कारखानों संस्थानों एवं गृहों पर परिवारजन एकत्रित हो कर समुहिक रूप से पूजा, आर्ती, भक्ति, दीपोत्सव व परस्पर मिलने का क्रम बनाये रखें। यदि हम वही मुहूर्त कार्य 1 अप्रैल को करें तो दीपावली पर पूर्व की अपेक्षा सम्पूर्ण आओजन में मात्र बही-मुहूर्त कार्य कम हो जायेगा।

दीपमालिकायें केवल ज्ञान की प्रतीक हैं। सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो, अन्धकार का नाश हो, इस भावना से दीपमालायें जलानी चाहिये। दीपावली के पूर्व कार्तिक त्रयोदशी के दिन भगवान महावीर ने बाह्य समवसरण लक्ष्मी का त्याग कर मन-वचन और काय का निरोध किया। वीर प्रभु के योगों के निरोध से त्रयोदशी धन्य हो उठी, इसीलिये यह तिथि “ धन्य-तेरस” के नाम से विख्यात हुई। यह पर्व देवस त्याग के महत्व को दर्शाता हुआ यह सन्देश देता है के हम मन-वचन-काय से कुचेष्टाओं का त्याग करें और बाह्य लक्ष्य से हट कर अंतर के शाश्वत स्वर्ण-रत्नत्रय को प्राप्त करें।

अगले दिवस चतुर्दशी को भगवान महावीर ने 18000 शीलों की पूर्णता को प्राप्त किया। वे रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर अयोगी अवस्था से निज स्वरूप में लीन हुए।

अत एव इस पर्व दिवस “रूप-चौदस” के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए व्रतादि धारण कर स्वभाव में आने का प्रयास करना चाहिये। भगवान की दिव्यध्वनि स्यात, अस्ति-नास्ति. अवक्तव्य आदि सात रूपों में खिरी थी इसलिये यह दिन “गोवर्द्धन” के रूप में मनाया जाता है। “गो” अर्थात जिनवाणी तथा वर्द्धन का अर्थ प्रकटित वर्द्धित। इस दिन तीर्थंकर की देशना के पश्चात पुनः जिनवाणी का प्रकाश हुआ, वृद्धि हुई इसलिये जिनवाणी की पूजा करनी चाहिये।

धन-तेरस के दिन और दीपावली के दिन लोग धन-संपत्ति, रुपये-पैसे को लक्ष्मी मान कर पूजा करते हैं जो सर्वथा अयुक्तियुक्त है। विवेकवान जनों को इस पावन-पर्व के दिनों में मोक्ष व ज्ञान लक्ष्मी तथा गौतम गणधर की पूजा करनी चाहिये जो कि समयानुकूल, शास्त्रानुकूल, प्रामाणिक तथा कल्याणकारी है।

शुभ क्रियाओं तथा शुभ-भावों से अंतराय कर्म के उदय से होने वाले विघ्न दूर होए हैं अतः सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की पूजा-भक्ति करना ही उचित है। इनकी आराधना से अशुभ का क्षय होता है, पारलौकिक श्रेष्ठ सुखों की तो बात ही क्या शाश्वत सुख-सिद्धि की प्राप्ति होती है। पुण्यवान जनों को तो इह लौकिक लक्ष्मी धन-धान्य सम्पत्ति आदि का सुख अप्रयास ही सहज सुलभ हो जाते हैं।

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