‘जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा न निव्वहई
तस्स भुवणेक्क गुरुणो, णमो अणेगंतवाईस्स।’
अर्थ- जिसके बिना लोक का व्यवहार बिलकुल नहीं चल सकता, विश्व के उस एकमेव गुरु अनेकांतवाद को प्रणाम करता हूँ।
विश्व की अनेक प्रधान समस्याओं में एक वैचारिक समस्या भी है। एक मनुष्य के विचार दूसरे से मेल नहीं खाते। विचारों के साथ जब मेरा और तेरा शब्द जुड़ जाता है तो मेरा और तेरा प्रधान हो जाता है और विचार गौण हो जाता है। इस कारण ये वैचारिक मतभेद मद-भेद में परिवर्तित होकर अनेक समस्याओं को उत्पन्न कर देते हैं। जब ये मतभेद धर्म या सम्प्रदाय के क्षेत्र में होता है तो इतिहास साक्षी है कि उससे समुदायों में घृणा और नफरत उत्पन्न होकर हिंसा का रूप ले लेती है और मनुष्य, मनुष्य के प्राणों का प्यासा हो जाता है।
विचारों में मतभेद का एक प्रमुख कारण यह है कि संपूर्ण सत्य एक समय में वाणी से नहीं कहा जा सकता है। हम अपेक्षित सत्य ही बोल सकते हैं। पूर्ण सत्य अनिर्वचनीय है। एक दृष्टिकोण से किसी भी वस्तु के लिए बोला गया सत्य उससे भिन्न दृष्टिकोण से बोले गए सत्य से विरुद्ध लगता है। जैसे एक व्यक्ति को अगर हम उसके पिता की दृष्टि से देखें या कहें तो वह पुत्र है और जब उसी व्यक्ति को उसके पुत्र की दृष्टि से देखें और कहें तो वह पिता है। इसी तरह दो इंच की लाइन एक इंच की लाइन से बड़ी कही जाती है और वही दो इंच की लाइन तीन इंच या इससे अधिक बड़ी लाइन की दृष्टि से छोटी दिखती है और कही जाती है। विष मृत्यु कारक होने से मारक कहा जाता है लेकिन जब वैद्य द्वारा उसका उपयोग दवा के रूप में होता है तो वह जीवनरक्षक कहा जाता है।
सांसारिक व्यवहार में तो हम कहने वाले की दृष्टि को समझ लेते हैं और कोई विरोध अथवा विवाद उत्पन्न नहीं होता है लेकिन धार्मिक क्षेत्र में स्थिति इसके विपरीत है जिसके कारण अनावश्यक विवाद व साम्प्रदायिक हिंसाएँ हुईं। वास्तव में द्रव्य अथवा वस्तु अनेकांतात्मक है। उसमें अनेक धर्म व गुण है। द्रव्य का स्वभाव व विभाव रूप परिणमन भी है और कई धर्म और गुण एक-दूसरे के विरोधात्मक भी हैं। एक ही द्रव्य किसी अपेक्षा से सत व किसी अपेक्षा से असत, किसी अपेक्षा से नित्य व किसी अपेक्षा से अनित्य, किसी अपेक्षा से एक, किसी अपेक्षा से अनेक, किसी अपेक्षा से वक्तव्य व किसी अपेक्षा से अवक्तव्य। ऐसे ही स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति रूप और पर द्रव्य की अपेक्षा नास्ति रूप है। धर्मशास्त्रों व दर्शनशास्त्रों में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से वस्तुस्वरूप का कथन किया हुआ मिलता है। और उसी को लेकर विवाद होते हैं। वे यह नहीं समझते कि कथन वस्तु स्वरूप के विरोधी गुणों, अवस्थाओं, स्वरूप में से एक को मुख्य और दूसरे को गौण करके कथन किया जाता है। वह दूसरी स्थिति का निषेध नहीं करती। इस विषय में कई व्यक्ति तो नकारात्मक सोच से चलते हैं कि :
मजहबी बहस हम ने की ही नहीं।
फालतू अक्ल हममें थी ही नहीं॥
भगवान महावीर और जैन दार्शनिकों ने सकरात्मक दृष्टि से समन्वय के लिए ‘स्याद्वाद-सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया है। इसे ही नयवाद कहते हैं। स्याद्वाद में स्याद् तथा वाद ये दो शब्द हैं स्याद् शब्द का अर्थ कथञ्चित अथवा किसी एक दृष्टिकोण का द्योतक है उसका अर्थ शायद नहीं है जो कि कई अजैन विद्वानों ने समझ लिया है। वाद का अर्थ कथन करना है, स्याद्वाद का अर्थ वस्तुस्वरूप का किसी एक अपेक्षा से अथवा एक दृष्टि से वर्णन करना है। स्याद्वाद सिद्धांत अन्य पक्ष के दृष्टिकोण को समझने की ओर संकेत करता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस दृष्टिकोण से वस्तु के एक स्वरूप का कथन किया गया है, वह वस्तु उस दृष्टिकोण से वैसी ही है और अन्य दृष्टिकोण से किया गया कथन उस दृष्टिकोण से वैसा ही है। इस तरह स्याद्वाद संशयवाद नहीं है। बल्कि वाणी में अनिवर्चनीय सत्य का पूर्ण ज्ञान करने का मार्ग है।
खेद की बात तो यह भी है कि जैन विद्वान निश्चयनय से कहे गए कथन और उसके विपरीत अशुद्ध निश्चयनय एवं व्यवहारनय से किए गए कथनों में समन्वय नहीं करके सत्य को जानने के लिए वैसे ही विवाद करते हैं, जैसे ‘बालू पेल, निकाले तेल’ मेरे विचार में व्यवहारनय की मुख्यता से कथन करने वाले विद्वानों को श्री समयसार की गाथा नं. 4 ध्यान में रखनी चाहिए। इस गाथा में श्री कुंदकुंद आचार्य ने कहा है कि काम, भोग और बंध (पुण्य-पाप) की कथा तो संपूर्ण लोक में खूब सुनी है, परिचय में ली है एवं अनुभव में है, लेकिन निश्चयनय की विषय-वस्तु शुद्धात्मा की कथा न कभी सुनी, न कभी परिचय में आई और न अनुभव किया है। वह सुलभ नहीं है। इसके बिना वास्तविक धर्म और लक्ष्य का निर्धारण ही नहीं होता। इसी प्रकार निश्चयनय को मुख्य कर कथन करने वाले विद्वानों को श्री समयसार की गाथा नं. 12 ध्यान में रखनी चाहिए। जिस गाथा में कहा गया है कि जो पुरुष अंतिम पाक से उतरे हुए शुद्ध स्वर्ण के समान परमभाव अथवा शुद्धात्मा का अनुभव करते हैं, उनको व्यवहारनय ग्रहण योग्य नहीं है, लेकिन जिन्होंने इस शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं किया है और साधक अवस्था में हैं, वे (मुख्यतया श्रावक) व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। वास्तव में मेरी समझ में तो यह विवाद उपदेश अथवा कथन शैली का अंतर है जिसने समाज में अनावश्यक विवाद उत्पन्न कर रखा है।
‘जैन धर्म के सिद्धांत प्राचीन भारतीय तत्वज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।’ – प्रो. हर्मन जेकोबी
‘जिस प्रकार मैं स्याद्वाद को जानता हूँ, उसी प्रकार मैं उसे मानता हूँ… मुझे ये अनेकान्तवाद महाप्रिय है।’ – महात्मा गाँधी
‘जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा सिद्धांत का खंडन पढ़ा है, तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धांत में बहुत कुछ है, जिसे वेदांत के आचार्यों ने नहीं समझा।’ – महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा, वाइस चांसलर प्रयास विश्वविद्यालय
‘स्याद्वाद व अनेकांत वस्तुस्वरूप को यथार्थ बतलाता है। बहुत से अजैन विद्वानों ने इस स्याद्वाद को ठीक न समझकर खंडन किया है।’ – प्रो. फणिभूषण अधिकारी, एम.ए.
‘इसे भङ्गो के कहने का मतलब यह नहीं है कि प्रश्न में निश्चयपना नहीं है या एकमात्र संभवरूप कल्पनाएँ करते हैं। जैसा कुछ विद्वानों ने समझा है। इन सबसे यह भाव है जो कुछ कहा जाता है, वह सब किसी द्रव्य, क्षेत्र, कालादि की अपेक्षा से सत्य है।’ – डॉ. भंडारकर एम.ए.
‘प्राचीन ढर्रे के हिन्दू धर्मावलंबी, बड़े-बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि जैनियों का ‘स्याद्वाद’ किस चिड़िया का नाम है। धन्यवाद है जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैंड के कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञों को जिनकी कृपा से इस धर्म के अनुयायियों के कीर्ति-कलाप की खोज हुई और भारतवर्ष के इतरजनों का ध्यान आकृष्ट किया।’ – साहित्य महारथी, हिन्दी सम्राट श्री महावीरप्रसादजी द्विवेदी ‘प्राचीन जैन लेख संग्रह’ की समालोचना में अपने पत्र ‘सरस्वती’ में लिखते हैं।
Jai Jinendra
Anekantwaad Aur Syaadwaad ka Sachha Chintan Manan Karake ees Viswa ki Har ek Gatividhi ko Oos Tatwase (Syaadwaad / Anekantwaad) Bina Purwagrahse Parakhe / Dhekhe to Khud Hi Sansaar / Bhav ki Mimansa Karein Tto Wishvake Sab Shsronka Abhyaas Huaa Samzo.
“Jain Darshanki Ki Yeh Anmol Den Ees Wishvako Hai” Aisa Jain Darshanka Abhyaas Karake Yah Pujya Varniji / Shrimad Rajchandraji /Mahatma Ganhiji / Einstine / Sarvapalli Radhakrishnan / Bhandarkar / Jinavijayji (Rajasthsn) Itaadi Vidwaanone /Adhyaatmiyone Kaha Hai.
Yah Darshan (Anekantwaad /Syaadwaad) Sirf Jainiyonka Samazkar ise Sankuchit Karanrana Galat Hoga Aur Ek Uchha Kotike Darshn Ki Den Se Vimukta Hone Jaisa Hoga.
Param Vinayake Sath. Wishvakalyanabhilashi. Jawahar Gumte