शान्ति लगन की खोज में, बीता काल अनादि।
खोज किया सच्चा नहीं, झूठे में भरमाया।।
मैंने इसे ठण्डे गर्म व चिकने रूखे पदार्थों में खोजा, खट्टे मीठे वे चटपटे पदार्थों में खोजा, सुन्दर वस्त्रों में खोजा, स्वादिष्ट पदार्थों में खोजा, हीरे पन्ने में खोजा, माणिक में खोजा, बर्तन व फ़र्नीचर में खोजा और मैंने इसे सुगन्धता में भी खोजा, स्वादिष्ट पदार्थों में भी खोजा टेलीविजन में खोजा, कूलर पंखे में खोजा, फिर भी अषान्त बना हुआ है। राजा व चक्रवर्ती बन कर खोजा, दूसरों का दास बना कर खोजा, एटमबम बनाकर खोजा, चन्द्र, सूर्य तक जाकर खोजा और कहाँ-कहाँ नहीं खोजा। स्वर्ग में खोजा, पर आज तक अषान्त बना हुआ है। प्रत्यक्ष में प्रमाण की आवष्यकता नहीं, मेरा अपना इतिहास कौन नहीं जानता।
कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूंढ़े वन माहिं।
ऐसे घट-घट राम है, दूनिया देखे नाहिं।
शान्ति वहाँ है जहाँ अभिलाषा न रहे, शान्ति वहाँ है जहाँ सबके प्रति साम्यता हो वहाँ शान्ति है। जहाँ दृष्टि में व्यापकता हो, शान्ति वहाँ है, जहाँ लौकिकस्वार्थ न हो, वास्तव में सच्ची शान्ति तो योगीजन बाँटते है। निःषुल्क मुफ्त, जो चाहो लो, मनुष्यों को ही दे यह बात नहीं, तिर्य॰चों को भी, राजा हो चाहे रंक हो, सत्ताधारी हो या फकीर, स्त्री हो या पुरूष, बाल हो अथवा वृद्ध, पतित समझें जाने वाले वह व्यक्ति जिनको आज शुद्ध कहा जा रहा है या कोई तिलकधारी ब्राह्मण सब उनकी दृष्टि में एक है, सबको अधिकार है उनको लेने का।
इच्छा ही अषान्ति का कारण है। आज शान्ति का विषय है। शान्ति प्रत्येक प्राणी चाहता है। परन्तु उसका मूलकारण समझ नहीं पाता।
अतः हे भव्य जीवों। यदि शान्ति चाहते हो तो इच्छाएं घटाओ, जितनी इच्छाएं घटाओगे उतनी ही शान्ति प्राप्त होगी।
शान्ति का कारण अपने स्वभाव व परभाव को जानना है। मानव अपने कार्यों से जो क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय परिणाम करता है वही अषान्ति का कारण है। इन कषायों में उपयोग न लगाना ही शान्ति है। जीव को जितना रागद्वेष कम होता जाएगा उतनी ही शान्ति आती जायेगी। सब जीवों के प्रति प्रेमभाव ही शान्ति का देने वाला है। मानव परिग्रह जितना कम करता जायेगा। उतनी ही शान्ति आती जायेगी जितना अन्धकार और लोकैषणा कम होगी जीव उतनी ही शान्ति अनुभव करेगा जितना दूसरों की निन्दा का भाव कम होगा उतनी ही शान्ति आयेगी। संसार के परद्रव्यों से उपयोग हटाकर स्व-आत्मा में रूचि एवं अनुभव लगाना ही शान्ति का मार्ग है। धनोपार्जन या विषयभोगों में शान्ति नहीं है। लेकिन आज के युग में इच्छा रूपी ज्वाला इतनी भड़क रही है कि जैसे मधु बिन्दुवत् कुछ सुख सा प्रतीत होता है यद्यपि बाद में दुःख निकलता है लेकिन आज का मानव उस बिन्दुवत् सुख की बार-बार इच्छा करके स्वयं ही दुःखी हो रहा है। अज्ञानतावष वह दुःख को ही सुख मानता सुखाभास कर रहा है।
सोचा करता हूँ भोगों से बुझ जायेगी इच्छा ज्याला।
परिणाम निकलता है लेकिन मानों पावक में घी डाला।।
ज्यों-ज्यों भोगों की प्राप्ति होती जाती है त्यों-त्यों इच्छा बढ़ती जाती है। हितकारी बात भी नहीं सुहाती। इसलिए भोगों की प्राप्ति में सुख नहीं, शान्ति नहीं है। बहुत से प्राणी अनेक प्रकार से शान्ति मानते हैं। कोई तो भोग, भोगने में, कोई कोठी बंगले बनाने में, कोई कन्या की शादी करने में, कोई दूसरों का उपकार मानने में शान्ति मानता है। संसार की अपेक्षा से उपकार वाली शान्ति कुछ उत्तम है। लेकिन निष्चय की दृष्टि से वह भी शान्ति नहीं है निष्चय से तो शान्ति स्वयं को मानकर स्वयं में ही लीन हो जाना सच्ची शान्ति है।
एक बार एक मनुष्य गुरू के पास गया कि महाराज मुझे शान्ति चाहिए। गुरू बोले- कि पास वाले समुद्र में मगरमच्छ है वह शान्ति दे सकता है। वह भोला मनुष्य समुद्र के किनारे पहुँचा और मगरमच्छ से बोला- मुझे शान्ति चाहिए। मगरमच्छ ने कहा- पहले मुझे एक लोटा पानी पिला दो, फिर मैं तुम्हे शान्ति देता हूँ। मनुष्य बोला- अरे मगरमच्छ ! तुम इतने बड़े पानी के समुद्र में रहते हो, और मुझ से एक लोटा पानी के लिए कहते है। मगरमच्छ बोला- ‘तुम्हारे पास शान्ति का अक्षय भण्डार है और तुम मुझ से शान्ति माँगने आये हो। वह शर्मिन्दा होकर सोचने लगा कि वास्तव में यह ठीक कहता है। यदि मैं अपने अंतरंग में दृष्टि डालूं तो मुझमें ही शान्ति का अक्षय भण्डार भरा पड़ा है। जैसे मृग की नाभि में कस्तूरी होती है लेकिन अज्ञानता के कारण वह कस्तूरी को जंगल में ढूंढता फिरता है उसी प्रकार अज्ञानता के कारण हमारी भी ऐसी ही दषा हो रही है। सुख तो हमारी आत्मा में है लेकिन सोचते है विषयभोगों में है।
सच्चे शान्ति उपासक श्री अरहन्त भगवान है। दूसरे नम्बर पर वीतरागी मुनि होते है। तीसरे नम्बर पर अणुव्रती श्रावक होते है चैथे नम्बर में सम्यक्दृष्टि। इनमें से यदि किसी भी कोटि में पहुँच जायेगा तो नियम से संसार के दुखो से निकल कर सच्चा सुख मिलेगा, मोक्ष मिल जायेगा। वही सच्चासुख है, अपारषान्ति है।
यो निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लहो।
से इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्र के ना ही कहो।।
इस स्वरूपाचरणचारित्र के समुद्र मुनिराज जब आत्मा का चितंन करते है तब उन्हें ऐसा आनन्द आता है जैसा कि इन्द्र, अहमिन्द्र अथवा भरत चक्रवर्ती को भी नहीं होता।
श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ