हे आत्मन ! तुम शास्वत रत्नत्रय निधि के स्वामी हो |
अनंत सूख शांति संतोष के भंडार हो | अपनी निधि को धर्म पुरुषार्थ के बाल पर प्राप्त करो |
हे आत्मन ! तुम शिद्ध के समान शुद्ध हो, चैतन्य के पुंज हो, अनंत शक्ति के धनी हो, तुम सबको जानने, देखने वाले स्वयं दुनिया के सुंदरतम पदार्थ हो | तुम स्वयं सुंदर हो, जिसका कोई रूप नहीं, ऐसे अरुपी अमुर्तिक हो, अपने सुंदर रूप को टटोलो, खोजों, जरूर दर्शन पोगाई, पा गए तो तुम तृप्त हो जाओगे |
हे आत्मन ! जिसे तुम बाहर देख रहे हो, वह जड़ है, नश्वर हे, देखने वाले तुम तो अपने अन्दर छिपे हुए हो |
अपने को अपने से अभिन्न चिदानन्द प्रभु को निहारो |
हे मुक्ति पाठ के राही | बाहर तुम किसकी आवाज़ सुनना चाह रहे हो | कारण पिएँ संगीत की? क्या यही कारणों का सौंदर्य है ? नहीं नहीं – तुम्हें अंतरात्मा पुकार रही है, उसकी मधुरम , क्रमक्षयकारिणि, सुंदर आत्मानंद दायिनी, सहजानंद दायिनी आवाज़ को सुनो |