संकलन:
श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ
गुरुवः पान्तु नो नित्यं ज्ञान दर्षन नायकाः।
चारित्रार्णव गम्भीराः, मोक्षमार्गोपदेषकाः।
आज से 38 वर्ष पहले स्वयं की वृद्धावस्था के कारण संघसंचालन में असमर्थ जानकर जयोदयादि महाकाव्यों के प्रणेता, संस्कृत भाषा के अप्रतिम विज्ञपुरुष आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने प्रिय षिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी को आचार्य पद देने का सुविचार किया। तब मुनि श्री विद्यासागर जी ने आचार्य पद ग्रहण करने से इंकार कर दिया। अनन्तर आ. श्री ज्ञानसागर जी ने उन्हंे संबोधित करते हुये कहा कि साधक को अंत समय में सभी पद तथा उपाधियों का परित्याग आवष्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जाकर सल्लेखना धारण कर सकूँ। अतः तुम्हें आज गुरू-दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद धारण करना होगा। गुरू-दक्षिणा की बात से मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये।
तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घड़ी जब मगसिर कृष्ण द्वितीय, संवत् 2029, बुधवार, 22 नवम्बर, 1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने ही कर-कमलों से आचार्य-पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान-मर्दन के उन क्षणों को देखकर सहस्रों नेत्रों से आँसुओं की धार बह चली, जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य-पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य-पद से नीचे उतरकर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठकर, नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले – ‘‘हे आचार्य वर ! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में षिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक् कार्य नहीं कर पा रही हैं। अतः मैं आपके श्री चरणों में विधिवत् सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहीत करें।‘‘
आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरुवर की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निर्ममत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचण्ड ग्रीष्मतपन में 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नष्वर देह का त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए। भगवान महावीर स्वामी की 2600 वर्ष की परम्परा में शायद ही ऐसा कोई उदाहरण दृष्टिगोचर होता है जहां किसी गुरु द्वारा अपने ही षिष्य को अपने पद पर आसीन कर सामान्य मुनिवत् उसकी वन्दना कर के निर्यापकाचार्य का पद ग्रहण करने हेतु प्रार्थना की गई हो। धन्य हैं वे महा मुनिराज आ. ज्ञानसागर जी तथा धन्य हैं वे गुरुवर आ. विद्यासागर जी।
यह उत्तम मार्दव धर्म का उत्कृष्ट उदाहरण तो है ही साथ ही उनके लिये भी विचार करने के लिये आदर्ष उदाहरण है, जहां आचार्य बनने तथा बनाने की अंधी होड़ सी लगी है, योग्यता की परीक्षा किये बिना ही जहां आचार्य पद जैसे गम्भीर तथा पवित्र पद को पाने तथा लोकेषणा हेतु खुद के विराजमान रहते अन्य कई षिष्य आचार्यांे को तैयार करने का उतावलापन हावी हो रहा हो, ऐसे वातावरण में सीखना चाहिये आ. ज्ञानसागर जी तथा आ. विद्यासागर जी से कि तो गुरु अपने पद को निर्ममतत्व पूर्वक छोड़ने को तत्पर हो रहे हैं किन्तु षिष्य उस पद को ग्रहण करने को तैयार नहीं हो रहा है। ऐसे विरले महापुरुष कई शताब्दियांे में एकाध बार ही जन्म लेते हैं। अतः हमें गौरव होना चाहिये कि हमने पंचमकाल में जन्म होने के बावजूद भी ऐसे आचार्य भगवन्तों का सान्निध्य मिला।
“इस युग का सौभाग्य रहा, गुरुवर इस युग में जन्मे।
हम सबका सौभाग्य रहा, गुरुवर के युग में हम जन्मे।।”
हमने अरहंत भगवान को देखा नहीं है,
और सिद्ध भगवान कभी दिखते नहीं हैं।
इन दोनों का स्वरूप हमें आचार्य देव बताते हैं,
इसीलिए इन्ही को देखो, ये अरहंत और सिद्ध भगवान से कम नहीं है।