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आदिनाथ जयंती

श्रीमती सुशीला पाटनी

आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ

नौ माह पूर्ण होने पर चैत्र कृष्ण नौवीं के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ नक्षत्र में और ब्रह्मा नामक महायोग में पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। उस समय प्रकृति में अत्यंत उल्लास भर गया। आकाश स्वच्छ था, प्रकृति शांत थी, शीतल मन्द सुगन्धित पवन चल रही थी। वृक्ष फूल बरसा रहे थे। देवों के दुन्दुभि बाजे स्वयं बज रहे थे। समुद्र, पृथ्वी, आकाश मानो हर्ष से थिरक रहे थे। भगवान के जन्म से तीनो लोकों में क्षण भर को उद्योत और सुख का अनुभव हुआ।

उस समय समस्त आकाश हाथी, घोडा, रथ, पैदल सैनिक, बैल, गन्धर्व और नर्तकी इन सात प्रकार की देव सेनाओं से व्याप्त हो गया। सौधर्मेन्द्र एरावत हाथी पर आरूढ था। चारों निकाय के देव भी विविध वाहनों पर आरूढ होकर चल रहे थे। आकाश में चारों ओर देवों के श्वेत छत्र, ध्वजा और चमर दिखायी दे रहे थे। भेरी, दुन्दुभि और शंखों के शब्दों से आकाश व्याप्त था। गीत और नृत्य के वातावरण में अद्भुत उल्लास भर रहा था। सभी देव अयोध्या नगरी में पहुँचे। सभी देव वहाँ एक साथ प्रथम बार पहुँचे, इस लिये उस समय उस नगर का नाम साकेत प्रसिद्ध हो गया।

सर्वप्रथम देवों ने नगर की तीन प्रदक्षिणा दी। तत्पश्चात सौधर्मेन्द्र नाभिराज के प्रासाद में पहुँचा और इन्द्रानी को जिनेन्द्र प्रभु को लाने की आज्ञा दी। इन्द्रानी प्रसूति गृह में गयी। उसने प्रभु और माता को नमस्कार किया। फिर अपनी देव माया से माता को सुख निद्रा में सुला कर और उनके बगल में मायामय बालक को लिटाकर प्रभु को गोद में ले लिया और ला कर इन्द्र को सौंप दिया।

इन्द्र ने भगवान को गोद में ले लिया। बाल प्रभु के सुख स्पर्श से उसका समस्त शरीर हर्ष से रोमांचित हो गया। वह प्रभु के मोहन रूप को निहारने लगा। किंतु उसे तृप्ति नहीं हुई। तब उसने एक हजार नेत्र बना कर प्रभु के उस अनिंघ्र रूप को देखा। फिर भी वह तृप्त नहीं हुआ तो उसने भगवान की स्तुति प्रारम्भ किया।

अभिषेक के पश्चात सौधर्मेन्द्र ने जगत की शांति के लिये शांति मंत्र का पाठ किया। देवों ने बडी भक्ति से उस गन्धोदक को अपने मस्तक पर लगाया, फिर सारे शरीर पर लगाया और अवशिष्ट गन्धोदक को स्वर्ग ले जाने के लिये रख लिया।

इन्द्र ने भगवान का नाम पुरुदेव रखा। परंतु उनका नाम वृषभदेव रखा। इन्द्र ने बाल भगवान के लालन-पालन और सेवा-सुश्रुषा के किये अलग-अलग देवियाँ नियुक्त कर दी।

एकदिन भगवान वृषभदेव सिंहासन पर सुखासन से बैठे हुए थे। वे अपने पुत्र-पुत्रियों को कला और विनय का शिक्षण देने के बारे में विचार कर रहे थे। तभी ब्राह्मी और सुन्दरी नामक उनकी पुत्रियाँ मांगलिक वेष-भूषा धारण कर उनके निकट आई। फिर ‘सिद्ध नमः’ कह कर दायें हाथ से ब्राह्मी को लिपि विद्या अर्थात वर्णमाला लिखना सिखाया और बायें हाथ से सुन्दरी को अंकविद्या अर्थात संख्या लिखना सिखाया। इसप्रकार इस युग में भगवान वांगमय का उपदेश दिया। केवल उपदेश ही नहीं दिया, भगवान ने वांगमय के तीनों अंगों –व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र और अलंकार शास्त्र के सम्बन्ध में शास्त्र की रचना की। दोनों पुत्रियाँ भगवान से वांगमय का अध्ययन करके महान विदुषी और ज्ञानवती बन गयीं।

इस प्रकार इस काल में लिपि विद्या और अंक विद्या के आद्य अविष्कर्ता भगवान् वृषभदेव थे।

दिगम्बर परमपरा के ‘आदिपुराण’ आदि ग्रंथों में संक्षेप में बताया है कि भगवान ने प्रजा को असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और शिल्प इन छः कर्मों का उपदेश दिया। तलवार आदि शस्त्र धारण कर सेवा करना असिकर्म कहलाता है।विभिन्न विद्याओं द्वारा आजीविका करना मसि कर्म कहलाता है। जमीन को जोतना बोना कृषि कर्म कहलाता है। विभिन्न विद्याओं द्वारा आजीविका करना विद्या कर्म कहलाता है। व्यापार करना वाणिज्य है। और हस्त को कुशलता से जीविका करना शिल्प-कर्म कहलाता है। विवाह का प्रारम्भ तो ऋषभ देव का नन्दा-सुनन्दा के साथ हुए विवाह से हुआ था। जब कुमार ऋषभदेव ने षट् कर्मों का प्रचलन कर दिया, उन कर्मों के आधार पर समाज रचना और वर्ण-व्यवस्था की स्थापना कर दी और नगरों-गाँवों का निर्माण कर नागर जीवन का प्रारम्भ कर दिया।

प्रजाजन बोले- देव! हम तो आपको ही अपना राजा मानते हैं। आप यह पद स्वीकार कर लीजिये। भगवान सुनकर मौन हो गये। पिता नाभिराज के होते हुए वे स्वयं कैसे राजपद स्वीकार कर सकते थे। उन्होंने अपनी कठिनाई प्रजा जनों को बताई तो वे लोग नाभिराज के पास गये और उनकी स्वीकृति लेकर फिर भगवान के पास आये। तब भगवान ने अपनी स्वीकृति दे दी। एकदिन भगवान ऋषभदेव राजदरवार में सिंहासन पर विराजमान थे। अनेक माण्डलिक राजा अपने योग्य आसनों पर बैठे हुए थे। तभी इन्द्र अनेक देवों और अप्सराओं के साथ पूजा की सामग्री ले कर भगवान की सेवा के लिये राज दरबार आया। इन्द्र की आज्ञा से नृत्य-गान में कुशल गन्धर्वों और अप्सराओं ने नृत्य करना प्रारम्भ किया।

दीपक में स्नेह समाप्त हो गया। बत्ती बुझ गयी। उस देव नर्तकी की आयु समाप्त हो गयी। और वह क्षण भर में अदृष्य हो गयी। उसके समाप्त होते ही इन्द्र ने रस भंग न हो इस्लिये उसके स्थान पर उसी के समान आचरण वाली दूसरी देवी खडी कर दी, जिससे नृत्य ज्यों का त्यों चलता रहा। इस घटना को किसी ने नहीं जाना। सब तन्मय हो कर रसपान करते रहे। किंतु निमिष मात्र में जो इतनी बडी घटना हो गयी, वह् ऋषभदेव से छिपी नहीं रह सकी। स्थान वही था, नृत्य वही था, परंतु नृत्यकारिणी वह नहीं थी। इस अंतर को प्रभु ने देख लिया और नीलांजना की इस मृत्यु को भी। देखते ही देखते प्रेभु के भाव-धारा में अचानक ही महान परिवर्तन आ गया। कितना नश्वर और चंचल है संसार का यह रूप। मनुष्य के मन में एक अद्भुत सामान्य अहंकार दबा रहता है- मैं सदा जीवित रहूँगा। वह दिन-रात देखता रहता है कि दिनरात प्राणी मर रहे हैं। सबको ही मरना है। किंतु वह तत्व दूसरों के लिये होता है, अपने लिये नहीं। वह स्वयं तो सदा काल जीवन की आकांक्षा संजोये रहता है। लेकिन वह ऐसा प्रयत्न नहीं करता कि मृत्यु के उसे पुनः जीवन धारण ना करना पडे। शरीर के त्याग को वह मृत्यु समझता है। शरीर को अपना मानता है, इसलिये मृत्यु से भयभीत होता है। परंतु शरीर से ममत्व करके तो वह प्रतिपल मृत्यु का वरण कर रहा है, वह इस तथ्य को नहीं समझता, समझना भी नहीं चाहता।

देव पर्याय में सुख समझता है यह अज्ञ प्राणी, किंतु नीलांजना हमारे देखते ही देखते मृत्यु को प्राप्त हो गयी। इन्द्र ने यह कपट किया था और जान बूझ कर निलांजना का नृत्य कराया। निश्चय ही इन्द्र ने यह कार्य हमारे हित के लिये किया था। इस रूप को धिक्कार है! इस राज्य भोग को धिक्कार है! इस चंचल लक्ष्मी को धिक्कार है! भगवान ने दीक्षा ग्रहण करने से पहले अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक किया और उन्हे अयोध्या का राज्य प्रदान किया।

उस समय अयोध्या नगरी में दो महान हर्षोत्सव हो रहे थे – भगवान का दीक्षा कल्याणक और भरत-बाहुबली का राज्याभिषेक। मुनि अवस्था में भगवान ने कठोर साधना का अवलम्वन लिया। उनका अधिकांश समय ध्यान में व्यतीत होता था। वे अट्ठाईस मूल गुणो का दृढतापूर्वक पालन करते थे। अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत, अपरिग्रह महाव्रतये पंच महाव्रत, ईर्या समिति, भाषा समिति, ऐषणा समिति, आदाब निक्षेपण समिति, उत्सर्ग समिति ये पाँच समितियां, स्पर्शेन्द्रिय निरोध, रसेन्द्रिय निरोधनिरोध, घ्राणेन्द्रिय निरोध, चक्षु इन्द्रिय निरोध, कर्णेन्द्रिय निरोध ये पंच निरोध, सामयिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कार्योत्सर्ग ये छः आवश्यक, केशलोंच, भूमिशयन, अदंतघावन, नगनत्व, अस्नान, खडे हो कर भोजन करना और एक बार ही दिन में भोजन करना ये साधु के अट्ठाईस मूल गुण बताये हैं।

भगवान छः माह तक एक ही स्थान पर ध्यानारूढ रहे। इतने समय में उनके बाल बढ गये और जटायें बन गयी। यद्यपि तीर्थंकरों के नख और केश नहीं बढते। भगवान ने निराहार रह कर प्रतिमायोग धारण कर छः माह तक तपस्या करने का जो नियम लिया था वह पूर्ण हुआ।

तभी एक अद्भुत घटना हुई। भगवान का रूप देखते ही श्रेयांसकुमार को जाति स्मरण ज्ञान हो गया तथा पूर्व जन्म में मुनियों को दिये हुए आहार विधि का स्मरण हो आया। उसे श्रीमती और वज्रजंघ के भव सम्बन्धी उस घटना का भी स्मरण हो गया, जब चारण ऋद्धिधारी दो मुनियों को आहार दान दिया था। जाति का स्मरन होते ही उसने श्रद्धा, शक्ति, भति, विज्ञान, अक्षोभ, क्षमा और त्याग इन सात गुणों से युक्त हो कर- जो एक दान देने वाले के लिये आवश्वक है- निन्दा आदि दोषों से रहित हो कर ‘भोस्वामिन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ, आहार जल शुद्ध है’ इस प्रकार मुनिराज को पडगाह कर उन्हे उच्च आसन पर विराजमान किया। उनके चरणों का प्रक्षालन किया, उनकी पूजा की, उन्हे नमस्कार किया, अपने मन-वचन-काय की विशुद्धिपूर्वक आहार-शुद्धि का निवेदन किया। इस प्रकार नवधा भक्तिपूर्वक श्रेयांस कुमार ने दान के विशिष्ट पात्र भगवान को प्रासुक आहार का दान दिया। अकिंचन भगवान ने खडे रहकर हाथों में ही (पाणि पात्र होकर) आहार ग्रहण किया। इस प्रकार छद्मस्थ अवस्था में एक हजार वर्ष तक अनेक देशों का विहार करते हुए भगवान पुरिमताल नगर के शकट या शकटास्य नामक उद्यान में पहुँचे। वे पूर्व दिशा की ओर मुख करके एक वट वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाकर ध्यान में लीन हो गये। उन्होने शुक्ल ध्यान द्वारा क्षपक श्रेणी में आरोहन किया। इससे उनकी आत्मा में परम विशुद्धि प्रकट होने लगी। उन्होने सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का विनाश कर दिया। मोहनीय कर्म के नष्ट ही ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अंतराय कर्म भी नष्ट हो गये। इन चारों धातिया कर्मों के नष्ट होते ही उनकी आत्मा केवल ज्ञान से मण्डित हो गई। वे लोकालोक के देखने वाले सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन गये। उन्हे अनंतज्ञान, अनंत वीर्य ये नौ लब्धियाँ प्राप्त हो गईं। फाल्गुन कृष्ण एकादशी को उत्तराषाढ में भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ।

भगवान ऋषभदेव उस सिंहासन पर विराजमान थे। वे सिंहासन से चार अंगुल अधर विराजमान थे।

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  • Bhagwan Adinath ji ki Jai ho!
    Kya koi Sudhi jan batayega ki Bhagwan ke deeksha lele par saath mein Brahmi ans Sundari ne pratham Aryika deeksha li, Rani Nanda and Sunanda ne nahi! Kya samuchit karan bata sakte hain!

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