श्रीमती सुशीला पाटनी
आर.के. हाऊस,
मदनगंज- किशनगढ़ (राज.)
अहिंसाणुव्रत – जो मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदनारूप से संकल्पपूर्वक त्रसजीवों का घात नहीं करता है, वह अहिंसाणुव्रत है।
सत्याणुव्रत – जो स्थूल असत्य स्वयं नहीं बोलता है और ऐसा सत्य भी नहीं बोलता जो कि धर्म की हानि या पर की विपत्ति (हिंसादि) के लिए कारण हो, वह एकदेश सत्यव्रत है।
अचौर्याणुव्रत – जो रखी हुर्इ, भूली हुर्इ या गिरी हुर्इ दूसरे की सम्पत्ति को बिना दिये हुए ग्रहण नहीं करता है वह अचौर्य अणुव्रत है।
ब्रह्राचर्याणुव्रत – जो पाप के भय से परस्त्री का त्याग कर देता है, चतुर्थ ब्रह्मचर्याणुव्रती है।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत – धन, धान्य आदि परिग्रह का प्रमाण करके उससे अधिक में इच्छा रहित होना पाँचवां परिग्रह परिमाणव्रत है।
ये पाँच अणुव्रत नियम से स्वर्ग को प्राप्त कराने वाले है। अणुव्रत और महाव्रतों को ग्रहण करने वाला जीव देवायु का ही बंध करता है, शेष तीन आयु के बंध हो जाने पर ये व्रत हो नहीं सकते हैं।
तीन गुणव्रत
पाँच अणुव्रतों की रक्षा करने के लिए या उनकी वृद्धि के लिए तीन गुणव्रत होते हैं – दिग्व्रत, अनर्थदण्ड व्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत।
दिग्व्रत – सूक्ष्म पाप के निराकरण के लिए मरणपर्यंत दशों दिशाओं की मर्यादा करके उसके बाहर नहीं जाना दिग्व्रत है।
अनर्थदण्डव्रत – दिशाओं की मर्यादा के भीतर निष्फल पापोपदेष आदि क्रियाओं से विरä होना अनर्थदण्डव्रत है। उसके पाँच भेद हैं – पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या।
पापोपदेश – तिर्यंचों को क्लेश देना, व्यापार करना, हिंसा, आरम्भ और छल-कपटसंबंधी कथा करना।
हिंसादान – कुल्हाड़ी, तलवार, कुदाली आदि हिंसा के उपकरणों का दान देना।
अपध्यान – रागद्वेष आदि से दूसरे का अशुभ चिंतवन करना।
दु:श्रुति – आरम्भ, परिग्रह, मिथ्यात्व आदि वर्धक शास्त्रों का सुनना।
प्रमादचर्या – निष्प्रयोजन पृथ्वी, जल आदि को नष्ट करना, वनस्पति तोड़ना आदि।
भोगोपभोग परिमाण व्रत – भोग और उपभोग संबंधी वस्तुओं का त्याग करना या कुछ काल के लिए छोड़ना।
यम – नियम का स्वरूप – यावज्जीवन त्याग को यम और कुछ काल तक त्याग को नियम कहते हैं।
चार शिक्षाव्रत
देशावकाषिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथि संविभागव्रत।
देशावकाषिक – दिग्व्रत में प्रमाण किये हुए विशाल प्रदेश में ग्राम, गली, मुहल्ला आदि की सीमा करके प्रतिदिन या माह, आदि से आने – जाने का त्याग करना।
सामायिक – वन, गृह अथवा चैत्यालय आदि में चित्त की व्याकुलता रहित एकान्त स्थान में निर्मल बुद्धि श्रावक को सामायिक करना चाहिए।
प्रोषधोपवास व्रत – सर्वदा अष्टमी और चतुर्दशी के दिन व्रत करने की इच्छा से अनशन आदि चतुराहार का त्याग करना।
उपवास, प्रोषध और प्रोषधोपवास में भेद –
चार प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है। दिन में एक बार भोजन करना प्रोषध है और उपवास करके पारणा के दिन एकाशन करना प्रोषधोपवास है।
अतिथि संविभाग – गुणनिधि, तपोधन साधुओं को विधि तथा योग्य द्रव्यादि के द्वारा दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है।
श्री समन्तभद्र स्वामी ने इस अतिथि संविभाग व्रत में भगवत पूजा करने का उपदेश दिया है।
“आदर सहित श्रावक को नित्य ही वांछित वस्तुदायक, कामविनाशक देवाधिदेव अरहंत देव की पूजा करना चाहिए। यह पूजा सम्पूर्ण दु:खों का नाश करने वाली है।”