निर्मल कुमार पाटोदी
विध्यानिलय 45 शांति निकेतन
पिन कोड : 452010 इन्दौर
वर्तमान अवसर्पिणी काल की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर तीर्थनायक भगवान महावीर की यह 2608वीं जन्म जयंती है। महावीर की माता रानी त्रिशला लिच्छवी कुल के राजा चेटक की पुत्री थी और पिता सिद्धार्थ वैशाली के उपनगर कुण्डग्राम में हुआ था। माता-पिता दोनों लोकतंत्री कुल के थे तथा भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। महावीर ज्ञान (नात) गोत्रज थे। इसीलिए बौद्धग्रंथों में ‘नातपुत्र’ कहा गया है। बालक वर्धमान (बचपन का नाम) जन्म से ही तीक्ष्णबुद्धि, प्रतिभाशाली और विवेकी था।
उम्र बढने के साथ निरीह पशुओं की हाहाकार युवा वर्द्धमान की चेतना तथा संवेदना को झकझोर रही थी, तो मन भी सांसारिक बन्धनों से मुक्ति की ओर जाना चाहता था। वो समाज की परम्परा पर छायी रुढियों की जकडन को अपनी साधना से तोडना चाहते थे। व्याप्त विकृतियों को स्वाहा करना चाहते थे। दिग्भ्रमित संसार को स्पष्ट दिशा की आवश्यकता थी। विवाह योग्य उम्र होने पर माता-पिता ने जब विवाह करने का विचार रखा तो आपका जवाब था- यहाँ कौन किसका है? सारा संसार अन्याय और अनीति की राह पर चल रहा है। मुझे ऐसी राह पर नहीं चलना है। शोषितों, पीडितों और संतप्तों के बीच भोगरत जीवन नहीं जीना है। विलासिता का जीवन मेरा लक्ष्य नहीं है। इस वैषम्यता से जूझने और गहन अन्धकार से जीवन को आलोकित करने की राह खोजना चाहता हूँ। ‘हम भी जिए-सबको सुख से जीने दें’ ऐसे सूत्र को लोकजीवन में प्रतिष्ठा दिलाना चाहता हूँ। उक्त भावनाओं के आधार पर आपने संसार से निर्लिप्त होने की अनुमति मांगी। पिता को मालूम था के वर्द्धमान भावी तीर्थंकरत्व पाने वाला है। अतः मौन रह गये। स्वतः स्वीकृति मिल गयी। संयम व त्याग की साधना का अपूर्व अवसर वर्द्धमान को जीवन के 29वें वर्ष में प्राप्त हो गया। माता त्रिशला के आँचल की सम्पदा दीक्षा की ओर अग्रसर हो गयी। वर्द्धमान का मुखमण्डल भावी अर्हंतत्व से परिलक्षित हो रहा था।
वर्द्धमान ने सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने की जो भावना भायी थी, वह दिगम्बरत्व धारण करने से पूर्ण हो गयी। स्निग्ध केश का लोचन करके शरीर मोह पर पूर्ण विराम लगा लिया। आत्मलोचन, शोधन और निराकुल साधना को अंगीकार कर लिया। ‘सिद्धों को नमस्कार’ की अनुगुँज के आथ पद्मासनि मुद्रा में आत्मा की अनंत गहराई में निमग्न हो गये। कर्मबन्ध की शिथिलता स्खलित होने लगी।
अब महाश्रमण वर्द्धमान गाँव-गाँव जा कर विहार करने लगे। आत्मदर्शन, के साथ देश-दर्शन जीवन-दर्शन और लोकदर्शन उनकी चर्चा का अंग बन गये। आहार उनके लिये साधन था, तो मुख्यता साधना की थी। विहार गौण और आत्मा की खोज प्रमुखता थी। मोहभंग और आसक्ति तोडने के लिये साधु विहार करता है तथा आगम उसकी आँख होता है। विहार से वीतरागता में वृद्धि होती है, वह मँझती है और निष्कायता निखरती है। आत्मशुद्धि के अंतिम चरण में विहार करते हुए वर्द्धमान के पगों का आगमन बिहार में हुआ। प्रतिमायोग धारण कर ली। 12 वर्ष 5 माह, 15 दिन की दुर्द्धर तपश्चर्या के तदुंतर 42 वर्ष की आयु में चार गातिया कर्मों का क्षय हो गया। पूर्णज्ञान अर्थात ‘कैवल्य’ प्राप्त हो गया। अर्हंतत्व ले पार्श्व में तीर्थंकरत्त्व उदित हो गया। राजगृही के निकट विपुलाँचल पर्वत दिव्यध्वनि का परमतीर्थ बन गया। विशाल समवशरण में वर्द्धमान की अनंत करुणा, ज्ञान, सुख, तेजस्विता में असंख्य प्रभु महावीर की ओर अपलक निहार रहे थे। प्रभु के समवशरण का विभिन्न स्थलों पर विहार होता रहा, परंतु दिव्य ध्वनि खिरी नहीं। तब इस दिव्य ध्वनि को झेलने के लिये इन्द्रभूति गौतम को प्रयास करके समवशरण में उपस्थित होने के लिये राजी किया गया। वे प्रभु के समक्षरण में उपस्थित होने के लिये राजी किया गया। वे प्रभु के समवशरण में पहुँचे, प्रभु से प्रश्न किये। जब विश्वास हो गया के ज्ञान अधूरा है, तो गौतम ने प्रभु से दिगम्बरी दीक्षा प्रदान करने की याचना की। दिगम्बरी दीक्षा धारण करने के पश्चात प्रभु की गुणवत्ता को गौतम ने झेलना प्रारम्भ कर दिया। अतः श्रावन कृष्ण प्रतिप्रदा को तीर्थंकर महावीर की दिव्य ध्वनि प्रस्फुटित हुई। यह दिन ‘वीर शासन’ स्थापना का ऐतिहासिक दिन बन गया।
अब गाँव, डगर, नगर में जहाँ भी प्रभु सन्मति/महावीर का समवशरण जाता, वहाँ आत्मवीर के उपदेश जनभाषा में ‘जनहित’ के लिये सुगम, सुबोध, सुलभ हुए। अपने जीवन में अनुभवों से सिद्ध विचार महावीर की सच्ची रुचि, पहनावा और आचरण महावीर के उपदेशों का सार था। अहिंसा अर्थात प्राणी मात्र के प्रति करुणा, दया, मैत्री जिसकी सफलता जीवन की पवित्रता में निहित है, धर्म का आधार प्रदान करते हुए अहिंसा-परमोधर्म से ऊपर घोषित हुआ। सब कर्तव्यों, दायित्वों, अनिष्ठानों से अधिक महत्व दिया। हिंसा के हर पहलू और सम्भावना पर सूक्षमता के साथ विवेचना की। सत्य, अस्तेयने अपरिग्रह (जीवन जीने की कला) और ब्रह्मचर्य जैसे जीवन उद्धारक पाँच महाव्रत मानव जीवन को संवारने के नियम बन गये। आपका समवशरण सम्पूर्ण भारत में विहार करता रहा। 30 वर्ष तक आत्मा-परमात्मा, जीवन-जगत, दुःख-सुख, धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नर्क, संसार-मोक्ष, पाप-पुण्य, तत्व-द्रव्य, सत्-असत् नीति न्यायादि विषयों पर धर्मोपदेश दिये। आत्म साधक महावीर के संघ में मुनि, आर्यिका, श्रावक व श्राविका अनुयायी के रूप में 4 शाखाओं में विभक्त थे।
इन्द्र और पिता सिद्धार्थ आपको ‘वर्द्धमान’ नाम से पुकारते थे। संजय, विजय चारण मुनियों ने ‘सन्मति’ कहा। कुण्डलपुरवासी ‘वीर’ नाम से पुकारते थे। संगमदेव ने ‘महावीर’ तो उज्जैयिनी के स्थाणुरुद्ध ने आपको अतिवीर कहा। आपके अकाट्य मंगलकारी उपदेश सर्वत्र निर्विघ्नता से श्रवण किये गये। चारों ओर आपकी धर्मोपदेशना से आलौकित हो गयी। जात-पांत की झूठी मर्यादायें ढह गई। यज्ञ-याग के दूषित उपहास समाप्त होने लगे। धर्म से विकृतियाँ दूर हो गयी। अहिंसा की महत्ता स्वीकारी जाने लगी। अज्ञान, अधर्म, अन्याय, अत्याचार के झण्डे उखडने लगे। महावीर का कथन था- अज्ञान, मोह और मिथ्या ने आत्मा को जकड रखा है, अन्यथा वह मुक्ति है। आपका उपदेश प्राणीमात्र के लिये कल्याणकारी था। धर्म कायरों का नहीं बहादुरों का है। अहिंसा आत्मा को गिराती है, पतन की राह पर ले जाती है और अहिंसा जीवन को उदात्त शिखर पर पहुँचाती है। लोकोपकारी महावीर के युग में हिंसा के अनेक रूप थे। मान्यता थी कि पशु का जन्म यज्ञ-कुण्ड के लिये हुआ है। यज्ञ की हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता था। इस भ्रम जाल से महावीर के विचार-दर्शन ने छुटकारा दिलाया। महावीर ने कहा- सच्चाई, निर्मलता से तथ्य को युक्ति और तर्क से परखा जाये। कौन इसे मान रहा है और कौन नहीं, यह धर्मात्मा का कार्य नहीं है। व्यक्ति स्वतंत्र है, स्वविवेक से निर्णय लें। आत्म विज्ञानी महावीर के धर्मोपदेश से पशुओं को अपना जीवन जीने का अधिकार मिल गया। लोकहृदय परिवर्तित हुआ। यज्ञ-कुण्डों के मुँह बन्द हो गये। पशु तथा वनसम्पदा की सुरक्षा का वातावरण निर्मित हो गया। धरती की उपज बढने से समृद्धि बढने लगी। प्राणी मात्र को अंतिम स्वांस तक जीने की स्वाधीनता मिल गयी। मुनि, आर्यिका कुटिया से प्रासाद तक समत्व भावना से जाने लगे। धर्म का रूप सरल हो गया। बिना पण्डित पुरोहित की मदद के व्यक्ति आत्मकल्याण के लिये आत्मनिर्भर हो गया।
प्रयोग पुरुष महावीर ने बताया जीव और अजीव सृष्टि के दो मौलिक तत्व है। जीव, मन-वचन-कर्म की क्रिया करता है। अजीव पुद्गल अर्थात शरीर रूप धारण करता है, जो कर्म बन्ध है। तप साधना से इसमें परिवर्तन किया जा सकरा है। शरीर अवस्था लर्म क्षय करके मुक्त अवस्था अर्थात मोक्ष प्राप्त करता है। आत्मवीर महावीर के अनुसार जैन धर्म किसी व्यक्ति, जाति, सम्प्रदाय, पंथ का नहीं है। जिसके सिद्धांतों पर श्रद्धा करे, आचार संहिता का पालन करे, वही जैन है। यह धर्म तो श्रेष्ठ जीवन जीने की एक पद्धति है। आपका सूत्र है विवेक से खडे होवो, उठो, चलो, सोओ, खाओ और बोलो। बुरा सुनो तो विरोध करो, बुरा बोले तो चुनौती दो। कुछ सुनना करना है, तो पहले अपनी आवाज सुनो, जो अपनी अंतरात्मा से उठ रही है, स्वयम् में स्वयम् को ढूंढो, समझो। महावीर ने न पंथ, न सम्प्रदाय बनाया, न ग्रंथ रचे और न परम्परायें बनायीं। जीवन के अनुभवों के प्रकाश में व्याप्त बुराइयों, कुरीतियों को दूर करने का मार्ग सुझाया। वे अपने आपसे जीते, इस लिये जिन कहलाये। आपकी परम्परा भक्ति, साधना, व्रत, उपवास, श्रवण, दया और त्याग पर आधारित है। जो सद्श्रावक-साधु की परम्परा है। वे जैन धर्म के संस्थापक नहीं प्रतिपादक थे।
आइये, हम प्रणम्यों के प्रणम्य महावीर की वन्दना उनके धर्मोपदेशों को जीवन में आत्मसात करके करें। प्रयास करें कि हिंसा, अहिंसा की वन्दना करें। शक्ति, अशक्ति को प्रणाम करें सभी प्राणियों से मैत्री-भाव रखते हुए क्षमा करें, क्षमा माँगे। इस प्रकार नर से नारायण और पशु से परमेश्वर बनने का सदपथ मिल सकता है।
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मान्यवर
जय जिनेन्द्र
इस वर्ष तीर्थंकर महावीर भगवान २६१० वाँ जन्मकल्याणक दिवस मनाया जा रहा है. आपने शायद त्रुटिवश २६०८वीं जयंती लिख दिया है. कृपया स्पष्ट करें.
दूसरी बात, जैन धर्म में तीर्थंकरों के लिए अतिविशेष शब्दों का प्रयोग किया गया है. जयंती शब्द एक सामान्य शब्द है, ढेरों प्रसिद्ध व्यक्तियों के जन्मदिन का आजकल ‘जयंती’ कहा जाने लगा है.
तीर्थंकर सर्वश्रेष्ठ होते हैं उनके जन्मदिन के लिए जयंती नहीं ‘जन्मकल्याणक दिवस’ तथा निर्वाण दिवस के लिए ‘मोक्षकल्याणक या निर्वाण कल्याणक दिवस का प्रयोग सर्वथा उपयुक्त है.
दिगंबर समाज को ‘जयंती’ के स्थान पर ‘जन्म कल्याणक’ एवं मोक्ष महोत्सव’ के स्थान पर ‘मोक्ष- कल्याणक महोत्सव’ जैसे शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग करके इन्हें समाज और आम जनता में लोकप्रिय बनाना चाहिए.