निर्मल कुमार पाटोदी
विध्यानिलय 45 शांति निकेतन
पिन कोड : 452010 इन्दौर
भारत के धर्म और इतिहास में दो धाराएँ एक प्रवृत्ति मार्गी और दूसरी निवृत्ति मार्गी हुई हैं। प्रवृत्ति सांसारिकता एवं भौतिकता का मार्ग दिखाती है तो निवृत्ति सांसारिकता से हटकर मोक्ष मार्ग की ओर ले जाती है। निवृत्ति मार्गी इच्छाओं के निरोध पर जोर देते थे। आत्म-शुद्धि ही उनका मुख्य उद्देश्य था। निवृत्ति मार्गियों के आराध्य भगवान महावीर हुए हैं।आत्मशुद्धि ही उनका मुख्य उद्देश्य था। जैन धर्म के अनुसार तीर्थंकर एक युग या एक क्षेत्र में चौबीस ही होते हैं। भगवान महावीर भरत क्षेत्र व इस युग के चौबीसवें अंतिम तीर्थंकर थे। उनके पहले 23 तीर्थंकर और हो चुके हैं, जिनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं। इसके पहले नाभिनन्दन, यदुनन्दन, नेमिनाथ और काशीराजपुत्र पार्श्वनाथ आदि हो चुके हैं।
भगवान महावीर के बाद तक भी उनके अनुयायी साधु या गृहस्थों को जैन नाम से नहीं जाना जाता था अपितु निर्ग्रंध नाम से पुकारा जाता था। ऐसा शायद ‘जिन’ अर्थात जितेन्द्रिय पुरुषों से सम्बन्ध के कारण कहा गया हो। भगवान महावीर से पहले यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अदिष्ट नेमि इन तीन तीर्थंकरों के नाम का उल्लेख है। भागवत पुराण में ऋषभदेव को जैन धर्म की परम्परा का संस्थापक बताया गया है। जैन परम्परा के प्रथम प्रणेता भगवान ऋषभदेव की स्मृति भागवत पुराण में उल्लेखित नहीं होती तो हमें ज्ञात ही नहीं हो पाता कि भारत के प्रारम्भिक इतिहास में, मतलब मनु की पाँचवी पीढी में एक राजा ने अपना राज्य कुशलता पूर्वक चलाया था और उसने कर्मण्यता व ज्ञान का प्रसार भी किया था। वह स्वयं में एक महान दार्शनिक था। उसने अपने जीवन के आचरण से सिद्ध किया था कि दुनिया में रहते हुए भी दुनिया से हटकर जीवन जिया जा सकता है। ऐसे महामानव को जैन परम्परा में प्रथम तीर्थंकर माना गया है।
भागवत परम्परा में उसे विष्णु का अवतार मानकर भगवान ऋषभदेव कहा गया है। महाभारत में विष्णु के सहस्त्र नामों में श्रेयांस, अनंत, धर्म, शांति और सम्भवनाथ आये हैं और शिव नामों में ऋषभ, अजित, अनंत और धर्म नाम का उल्लेख है। विष्णु और शिव दोनो का सुव्रत दिया गया है। ये सभी नाम भगवान महावीर से पहले हुए 23 तीर्थंकरों में से हैं। इससे सिद्ध होता है कि जैन धर्म में तीर्थंकरों की परम्परा रही है, जो प्राचीन तो है ही।
देश में दार्शनिक राजाओ की लंबी परम्परा रही है परंतु ऐसा विराट व्यक्तित्व दुर्लभ रहा है जो एक से अधिक परम्पराओं में समान रूप से मान्य व पूज्य रहा हो। भगवान ऋषभदेव उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हुए हैं। भागवत पुराण में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है। वे आग्नीघ्र राजा नाभि के पुत्र थे। माता का नाम मरुदेवी था। दोनो परम्पराएँ उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कोसलराज मानती हैं। ऋषभदेव को जन्म से ही विलक्षण सामुद्रिक चिह्न थे। शैशवकाल से ही वे योग विद्या में प्रवीण होने लगे थे। जैन परम्पराओं की पुष्टि अनेक पुराणों से सिद्ध हो चुकी है। इन पुराणों के अनुसार ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर देश का नाम भारत पडा। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है के जैन परम्परा में भगवान ऋषभदेव की दार्शनिक, सांसारिक कर्मण्यशीलता पर अधिक जोर है जबकि भागवत परम्परा में उनकी दिगम्बरता पर अधिक बल दिया गया है। भगवान ऋषभदेव का समग्र परिचय पाने के लिये दोनो परम्पराओं का समुचित अध्ययन करना आवश्यक है।
जैन परम्परा में कुलवरों की एक नामावली है, जिनमें ऋषभदेव 15वें और उनके पुत्र 16वें कुलकर हैं। कुलकर वे विशिष्ट पुरुष होते हैं, जिन्होंने सभ्यता के विकास में विशेष योगदान दिया हो। जैसे तीसरे कुलकर क्षेमंकर ने पशुओं का पालन करना सिखाया तो पाँचवें सीमन्धर ने सम्पत्ति की अवधारणा दी और उसकी व्यवस्था करना सिखाया। ग्यारहवें चन्द्राभ ने कुटुम्ब की परम्परा डाली और 15वें कुलकर ऋषभदेव ने अनेक प्रकार का योगदान समाज को दिया। युद्धकला, लेखनकला, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या आदि के माध्यम से समाज के जीवन विकास में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया। जो लोग हमारे भारत में लेखन कला का प्रारम्भ बहुत बाद में होना मानते हैं उन्हें ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहिए। ब्राह्मी के नाम पर ही भारत की प्राचीनतम लिपि कहलाई है।
भागवत परम्परानुसार ऋषभदेव को परम वीतरागी, दिगम्बर, परमहंस और अवधूत राजा के रूप में गुणगान शैली में लिखने वाला सश्रद्ध अर्थात सिर झुकाए हुए बताया गया है। आध्यात्मिक चिंतन की उच्चतम सीमा को छू लेने के पश्चात ऋषभदेव ने अजगर वृत्ति धारण कर ली थी तदनुसार वे अजगर के सदृश पडे रहते और खान पान लेटे-लेटे मिल जाता तो ग्रहण कर लेते अन्यथा नहीं मिलता तो भी इस अवस्था में तृप्त रहते थे।
ऋग्वेद में शब्द वृषभ है। विशेषण के रूप में इसका अर्थ दार्शनिक होने का उल्लेख एकाधिक बार हुआ है। एक जगह ऋषभदेव का सम्बन्ध कृषि और गौपालन के संदर्भ में भी हुआ है, जो परम्परा की पुष्टि का द्योतक है। जैन परम्परा में सभी तेर्थंकरों में से सिर्फ ऋषभदेव को ही सिर के बाल लंबे होने के कारण केशी कहा गया है। इनकी कन्धों से नीचे तक केश वाली दो हजार वर्ष प्राचीन कुशाणकालीन दिगम्बर प्रतिमा भी मिली है।