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महात्मा गाँधी का अहिंसा दर्शन


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महात्मा गाँधी – 2 Oct (International non violence day)
-सुश्री निर्मला देशपाण्डे

राजघाट पर बनी कुटिया में पंडित नेहरू के साथ नूरे योजना आयोग के साथ दो दिन चली चर्चा में विनोबाजी ने कहा- ‘राष्ट्रीय नियोजन का यह बुनियादी सिद्धांत है कि देश में हर व्यक्ति को काम मिले, हर व्यक्ति को रोटी मिले और आज ही मिले।’ योजना आयोग के विद्वान सदस्यों ने कहा- ‘हम बड़े उद्योग लगाकर 5-10 साल बाद सबको काम देंगे, सबको रोटी देंगे।’ विनोबाजी ने छूटते ही कहा- ‘गरीब इंतजार नहीं कर सकता है, उसे आज ही रोटी चाहिए आज ही काम।’ फिर उन्होंने गाँधी अर्थनीति का एक सिद्धांत बताते हुए कहा- ‘मेरा चरखा आज ही काम दे सकता है। जब तक आपके बड़े उद्योग खड़े नहीं होते, तब तक तो चरखे को अपनाइए। बाद में भले ही उसे जला दीजिए और उस पर अपनी चाय बना लीजिए।’

विनोबाजी की उस चेतावनी के स्वर गूँज रहे हैं- ‘गरीब इंतजार नहीं कर सकता उसे रोटी चाहिए आज ही।’ इस बुनियादी बात की अनदेखी ही हमारी समस्त समस्याओं की जड़ है। माना कि 60 साल में बहुत विकास हुआ है, बड़े-बड़े उद्योग खड़े हुए हैं, जहाँ पर कुछ नहीं बनता था, वहाँ हवाई जहाज बन रहे हैं, विज्ञान और तकनीकी में चमत्कार-सा विकास हुआ है, भारत के उच्च शिक्षित युवा अमेरिका में नासा, आईटी, इंडस्ट्रीज आदि में अपना स्थान बना चुके हैं, रेलें दौड़ रही हैं, खेतों में अनाज के ढेर खड़े हैं, बहुत कुछ हुआ है, जिस पर हमें स्वाभाविक ही गर्व महसूस होता है, पर गरीब आज भी इंतजार ही कर रहा है।

गरीब कब तक इंतजार करता रहेगा? देश में जगह-जगह हिंसा और अशांति फूट निकल रही है, इसका एक कारण यह है कि गरीब अब इंतजार करना नहीं चाहता है, वह अपना हक माँग रहा है। समाज और शासन का यह दायित्व बनता है कि गरीब को उसका हक दिला दिया जाए। एक ग्रामीण बेपढ़ा आदमी भी जानता है कि आग बुझती है पानी से, बुद्ध भगवान के इस बुनियादी सिद्धांत को कौन नहीं जानता कि वैर मिटता है निर्वैरता से, क्रोध मिटता है अक्रोध से, असाधुत्व मिटता है साधुत्व से।

‘अक्कोधेन जिने कोधम, असाधुम साधुना जिने।’ और ‘न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीघ कदाचन अवेरेप च सम्मान्ति एक धम्मो सनन्तनो।’ यही था महात्मा गाँधी का अहिंसा दर्शन, जिसके सामने आज सारा संसार नतमस्तक हो रहा है।

गाँधी का यह देश अगर गाँधी की अहिंसा को नहीं अपनाएगा तो अपनी पहचान के साथ अपनी हस्ती भी खो सकता है। शासन और समाज परेशान है, देश में बढ़ती हुई हिंसा को देखकर। रणनीति बनाई जाती है हिंसा से निपटने की और अपनाई जाती है हिंसा की। कहा जाता है कि नक्सलवादी हिंसा का मुकाबला करना होगा, कैसे? अधिक सक्षम बंदूकों का सहारा लेकर। यानी आग को बुझाने की योजना बनती है, आग को अधिक भड़काकर। हम क्यों सोच रहे हैं कि आग को बुझाने के लिए पानी का इंतजाम करना होगा।

60 वर्ष पूरे हो रहे हैं, क्या हम अब नहीं जानेंगे कि आग बुझती है पानी से, घी तेल से नहीं। हिंसा मिटती है अहिंसा से। अहिंसा के तौर-तरीके क्या हो सकते हैं? सोचना होगा, ढूँढ़ना होगा, हिम्मत के साथ अपनाने होंगे। सबसे अधिक जरूरी है, सोच को बदलना होगा, मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा, विकास की परिभाषा बदलनी होगी। हमारा भारत महान जरूर था, आज भी वह महान है, क्या नहीं सोचना पड़ेगा। उसे महान बनाए रखना होगा, उसके लिए याद करना होगा महात्मा गाँधी को, जो 60 साल पहले आजादी के जश्न में शामिल नहीं हुए थे, बल्कि हिंसा की आग बुझाने में लगे थे। उनकी अहिंसा दाँव पर लगी थी। उस वक्त कोलकाता में भाई-भाई एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे। हिंदू और मुसलमान हिंसा-प्रतिहिंसा की आग को हवा दे रहे थे।

इधर दिल्ली में आजादी का महोत्सव मनाया जा रहा था, लाल किले पर तिरंगा झंडा फहराया जा रहा था, पर गाँधीजी वहाँ पर नहीं थे। वे तो कोलकाता की गलियों में भाइयों के दिलों को जोडऩे के प्रयास कर रहे थे। आखिर उनकी अहिंसा जीत गई। भाई-भाई गले मिले। ‘कोलकाता का चमत्कार’ नाम से विख्यात उस घटना के कारण कोलकाता में जश्न मनाया गया, पर गाँधीजी उसमें भी शामिल नहीं हुए, उनका वह दिन बीता मौन, उपवास, प्रार्थना और चरखे के साथ।

क्या महात्मा गाँधीजी के जीवन का यह संदेश आज भी हमारा पथ प्रदर्शन नहीं करेगा?

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