नित्य देव-दर्शन, रात्रि भोजन त्याग, छने जल का उपयोग, सादगी और संयम-
जैन संस्कृति का सर्वोच्च आदर्श दिगम्बर जैन मुनि में दिखाई देता है।
साधु का स्वरूप आगम में निर्दिष्ट है और आगम वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत है।
आगम और देव की भक्ति व श्रद्धा के बिना जैनत्व सुरक्षित नहीं रह सकता।
अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत और जैनत्व में दृढ़ आस्था चाहिए।
संयम, मनुष्य पर्याय (जीवन) की अमूल्य निधि है।
घंटे भर के लिए भी कोई आदमी तुमसे मिले तो अपने प्रेमपूर्ण सरल व्यवहार से उसके हृदय में अमृत भर दो। सावधान रहो- तुम्हारे पास से कोई विष न ले जाए।
हृदय से विष को सर्वथा निकालकर अमृत भर लो और पग-पग पर केवल वही
अमृत वितरण करो।
किसी महान और स्थायी महत्व की वस्तु प्राप्त करने के लिए कठोर और लौह अनुशासन का होना आवश्यक है और यह अनुशासन मात्र सैद्धांतिक तर्क-वितर्क से तथा विवेक और तर्क का सहारा लेने से नहीं आएगा। अनुशासन विपदा के विद्यालय में ही सीखा जाता है और उत्साही व्यक्ति दायित्वपूर्ण कार्य के लिए बिना किसी का आश्रय लिए अपने को तैयार कर लेंगे तो वे समझ जाएँगे कि दायित्व और अनुशासन क्या चीज है?
शांति न पाई मैंने जरा भी कहीं, लौट आया तीरथ करके सभी देवता की सभी मूरतें मौन थीं, भेंट पाया मैं न कहीं भगवान से।
जोगियों-भोगियों, वैरागियों का कारवाँ निरखता रहा मैं वहाँ, ठाँव ऐसा कहीं न मिला था मुझे, खूबियाँ देखकर मन झुका हो जहाँ।
गुरुओं के हृदय में तो करुणा की धारा प्रवाहित होती रहती है, उससे हमें लाभ लेना चाहिए और जाति-द्रोह, वैमनस्य, श्वान चाल छोड़कर मैत्री और वात्सल्य भाव को अपनाना चाहिए।
आपको यह मनुष्य जीवन मिला है, तो साधना/तपस्या करना ही चाहिए, अन्यथा आप जानते ही हैं, तप का विलोम पत होता है, अर्थात गिरना/साधना के अभाव में पतन ही होगा।