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आचार्यश्री विद्यासागरजी के ऊपर महावीर भैया के द्वारा लिखित ये प्रस्तुति आप सभी पढ़िए

-महावीर प्रसाद जैन (अष्टगे) सदलगा, कर्नाटक

मल्लप्पाजी ने बड़े पुत्र और परिवार को चौका लेकर अजमेर चलने की बात कहकर तैयारी करने की बात कही थी, आज मैं वह बात लिख रहा हूं। जब मल्लप्पाजी सपरिवार सदलगा से अजमेर आए थे और उन्होंने बड़ी ही नवधा भक्ति के साथ आहारदान दिया था। इस संबंध में अग्रज भाई महावीरजी ने बताया।

मां श्रीमंती ने चौका लगाया अजमेर में
कई जन्मों के पुण्यार्जन के उदय से हम सभी 15 जुलाई 1968 को सदलगा से अजमेर के लिए निकले। दादी का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे चाचा के पास रहीं। माता-पिता छोटे भाई अनंतनाथ एवं शांतिनाथ तथा दोनों छोटी बहनें शांता-सुवर्णा और विद्याधर के मित्र मारुति के साथ मैं अजमेर पहुंचा।

अजमेर में समाजजनों ने माणिकचन्द्रजी सोगानी (एडवोकेट) के ऑफिस के ऊपर खाली कक्ष में हम लोगों को रुकाया, वहीं पर शुद्ध भोजन बनाने की व्यवस्था बनाई। दोपहर में हम सभी ने सोनीजी की नसिया में विराजमान ज्ञानमूर्ति गुरुदेव ज्ञानसागरजी महाराज के दर्शन किए और निवेदन किया कि हम सभी कुछ दिन यहां रहेंगे, शुद्ध भोजन बनाकर करेंगे और साधुओं को आहारदान भी देंगे, आप सभी आशीर्वाद प्रदान करें।

तब मुनिश्री विद्यासागरजी बोले- ‘इतनी दूर क्यों आए? आहारदान देने के लिए क्या वहां कोई साधु नहीं मिले?’

तब मां बोलीं – ‘नए मुनि महाराज को भी तो आहार देना पड़ता है ना।’

तब हंसते हुए मुनिश्री विद्यासागरजी बोले- ‘अरे, इस शरीर को तो 20 साल तक खिलाया है, अभी तक मन संतुष्ट नहीं हुआ?’

तब पिताजी बोले- ‘अभी तक तो बेटे के शरीर को खिलाया, अब मुनि महाराज को आहार दान देना है।’

प्रथम दिन पड़गाहन में सौभाग्य जागा और परम पूज्य गुरुदेव श्री ज्ञानसागरजी मुनि महाराज का पड़गाहन किया, नवधा भक्ति से आहार कराया। ज्ञानसागर मुनि महाराज ने हमारे दक्षिण का भोजन हंसते-हंसते ग्रहण किया। आहार के पश्चात पिच्छिका भेंट की तब माता-पिता दोनों ने गुरु महाराज से पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। दूसरे दिन पड़गाहन में क्षुल्लक सन्मतिसागरजी महाराज आए, तीसरे दिन क्षुल्लक सुखसागरजी महाराज आए, चौथे दिन ब्रह्मचारी भैयाजी जमुनालालजी आए। 5वां-6ठा दिन खाली गया। 7वें दिन पुन: सौभाग्य जागा और नए मुनिराज श्री विद्यासागरजी मुनि महाराज का पड़गाहन हुआ और नवधाभक्ति से आहार कराया। आहारदान की अनुमोदना करने हजारों लोगों की भीड़ एकत्रित हो गई।

आहार में मां और बहनों ने दक्षिण के विशेष व्यंजन बनाए थे, जैसे पूरणपोळी, जुवार की सूजी का हलवा, जुवार की रोटी, इडली-डोसा, रागी, मट्ठा-दही आदि तब मां ने बहुत वात्सल्य एवं आग्रहपूर्वक देने की कोशिश की, मगर महाराज ने हंसते हुए अंजुली को बंद रखा, नहीं लिया। दोनों छोटी बहनों ने भी प्रयास किया, तब भी नहीं लिया। तब पिताजी एवं हमने और अधिक प्रयास नहीं किया। विद्यासागरजी ने कठोरता से अपने मोह को नष्ट किया।

मित्र ने अलौकिक मित्र से लिया आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत
आहार के पश्चात मुनिश्री विद्यासागरजी ने हम लोगों से बात नहीं की, मारुति से बात की।

मित्र मारुति बोला- ‘आपने मुझे दीक्षा के लिए बुलाया था। उस वक्त मैं किसी कारण से नहीं आ सका किंतु अब मैं तैयार हूं।’

तब मुनिराज विद्यासागरजी बोले- ‘अभी विवाह के उलझन में मत पड़ना, फिर देखेंगे।’

दूसरे दिन प्रवचन के बाद मारुति ने विवाह न करने का व्रत ले लिया। तब से आज तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रहा है। आहार के बाद एवं अन्य समय में मुनिश्री विद्यासागरजी के पास जब भी बैठते तब इशारा करके बोलते- ‘वहां जाओ गुरु महाराज के पास बैठो।’ गुरुदेव ज्ञानसागरजी महाराज हम लोगों को धर्म का उपदेश देते।

मित्र मारुति ने सबके रोंगटे खड़े कर रुला दिया
मारुति मुनि विद्यासागरजी के पास ही ज्यादा समय रहता था और कई बातें करता रहता था। एक दिन मारुति ने बताया- ‘जब विद्याधरजी आचार्य देशभूषणजी महाराज के संघ में थे और गोम्मटेश्वर जा रहे थे तब बीजापुर (कर्नाटक) के पास डोली को उठाकर चले थे। थोड़ा चलने के बाद रास्ते में विश्राम के लिए बैठे। तब विद्याधरजी को पृष्ठ भाग में बिच्छू ने काट लिया किंतु पास में कोई दवा वगैरह नहीं थी और किसी को बताएंगे तो मुझे सेवा का अवसर नहीं मिलेगा अत: किसी को नहीं बताया। रातभर पीड़ा को सहन करते रहे। सुबह वह ठीक हो गया।’ यह घटना सुनकर मां, दोनों बहनों और हम तीनों भाइयों के रोंगटे खड़े हो गए और आंसू आ गए।

इस तरह मारुति से हम लोगों को कई बातें पता चलती रहती थीं। कारण कि घर वालों से तो मुनि विद्यासागरजी बात करते नहीं थे। हम लोग अजमेर में करीब 15 दिन रुके थे और गुरु महाराज ज्ञानसागरजी मुनि महाराज को 2 बार आहार कराने का सौभाग्य मिला एवं क्षुल्लक ऐलक महाराजों को भी 2-2 बार आहार कराए किंतु मुनिश्री विद्यासागरजी महाराज की विधि हम लोगों के हीन पुण्य के कारण एक ही बार मिली। फिर भी हम सभी अपने भाग्य को सराहते हुए खुश हुए थे कि हमें ऐसे मुनि महाराजों को आहारदान देने का अवसर मिला, जो पंचम काल में भी चतुर्थ काल जैसी साधना कर रहे हैं।

प्रतिदिन अजमेर समाज के लोग आ-आकर के हम लोगों से विद्याधर व उसके बचपन के बारे में पूछते थे और सुन-सुनकर बहुत खुश होते थे। अजमेर समाज ने बहुत स्नेह और सम्मान दिया। हम लोगों को अपने घर में भोजन कराने के लिए निमंत्रण देने आते थे और हम लोगों से पूछते थे कि आप लोगों को कौन-सी चीज पसंद है।

जब हम लोग लौटने लगे, तो बहुत से लोग स्टेशन पर छोड़ने आए और विदाई देते समय आंखों में आंसू लिए हुए थे। इस तरह विद्याधर के परिवार ने ससंघ को यथायोग्य भक्ति के साथ आहारदान देकर गृहस्थोचित गृहस्थ धर्म की पालना की और अजमेर की जनता में व्याप्त भ्रांति को समाधित कर दिया।

ऐसे शुभ और विशुद्ध भावों से सुसज्जित श्रेष्ठ कर्म की अनुशंसा करता हुआ…!

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