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आचार्य श्री प्रवचन [31-3-2013] से [24-11-2013]

आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी से विशेष बातचीत (24/11/2013)

अतुल मोदी नागपुर

देश की समग्र उन्नति की अपेक्षा है, तो फिर शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है। वर्तमान में लागू पाठ्यक्रम स्वयं भ्रमित है। देश को स्वतंत्र हुए 67 वर्ष हो गए किंतु आज तक हम यह निश्चित ही नहीं कर पाए कि शिक्षा की आखिर किस पद्धति को अपनाएं कि देश समग्र विकास की गति को पकड़े। यह कहना है राष्ट्रसंत 108 आचार्य विद्यासागरजी महाराज का।

रविवार को दैनिक भास्कर से विशेष बातचीत में उन्होंने देश की शिक्षा, विकास और इतिहास पर प्रकाश डालते हुए इन्हें भविष्य से जोड़ा। उन्होंने कहा कि वर्तमान में शिक्षा नौकरी परस्त है। शिक्षा के नाम पर सिर्फ विज्ञान, गणित जैसे विषयों पर जोर दिया जा रहा है। दर्शन, नीति-न्याय की शिक्षा ही नहीं है। यह शिक्षा हमें आधुनिक गुलामी दे रही है, जो सिर्फ और सिर्फ नौकरी परस्ती के लिए ली या दी जा रही है। इससे असंस्कृति को बढ़ावा ही मिल रहा है, उद्योग व व्यापार का विकास नहीं। पूर्व की शिक्षा और वर्तमान की शिक्षा में यही अंतर है। यही कारण है कि अर्थ से जुड़ी शिक्षा ने चिकित्सा व शिक्षा जैसे पवित्र कार्यों को भी व्यापार बना दिया है। इस शिक्षा से अर्थ (धन) तो मिलता है, लेकिन किस कीमत पर! संबंध, इंसानियत, दयाभाव और विछोह की कीमत पर? यदि हमें उचित व स्तरीय शिक्षा देना है, तो कहीं जाना नहीं है, बस अपने इतिहास को ही खंगालना है। जिनके साथ हम चल रहे हैं, उनका इतिहास उनके बारे में हमें बताता है। वहां बच्चों को माता-पिता से अलग व उनके स्तर के अनुसार शिक्षा दी जाती रही है, वहां गृहस्थ जीवनशैली का सिद्धांत ही नहीं रहा, इससे वे शिक्षा के साथ संस्कारों से परिपूर्ण नहीं हुए। हमारे देश में गृहस्थ जीवन का काल है, जिसमें शिक्षा का स्थान गुरुकुल रहा है। राजा, रंक आम समाज सभी के पुत्र वहां एक साथ एक सी शिक्षा लेते थे। उन्हें, नीति, न्याय दर्शन, संस्कार के साथ साथ विज्ञान और अन्य विषय पढ़ाए जाते थे।

125 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में तथाकथित अंग्रेजी जानने वाला 5 करोड़ लोगों का हिस्सा ही शिक्षित माना जाता है, शेष को अनपढ़ की श्रेणी में रखा जाता है, ऐसा क्यों? विश्व को सबसे पहले यह बताने वाले कि पेड़-पौधों में भी जीव निवास करता है और सिद्ध करने वाले वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु ने भी कहा था कि अंग्रेजी भाषा पढऩे के पहले अपनी भाषा को सिखना जरूरी है। विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है कि कंप्यूटर के लिए सबसे सरल भाषा संस्कृत और हिेंदी है। फिर हम अपनी भाषा को महत्व क्यों नहीं देते, विश्व े कई देशों में अपनी मातृभाषा में ही कार्य व शिक्षा दी जाती है, और वे विकास की बुलंदियों पर हैं, फिर हमारा देश में हिंदी को अपनाने में पीछे क्यों है? जैसा ज्ञात हुआ उसके अनुसार, सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों में करीब 5 करोड़ वाद लंबित हैं, इसका कारण भी कहीं न कहीं भाषा ही है। अपनी भाषा राष्ट्रभाषा से ही देश का विकास, जन-जन से जुड़ाव व ज्ञान का प्रकाश फैलाना संभव है। व्यापार की भाषा, बोलचाल की भाषा व प्रशासनिक भाषा राष्ट्र भाषा या प्रादेशिक भाषा होनी चाहिए।

अपना देश विकासशील, तो विकसित कौन?

आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कहा कि हमारे देश के बारे में कहा जाता है कि हम विकासशील देश हैं। यदि हम विकासशील हैं, तो फिर कौन सा देश विकसित की श्रेणी में आता है, क्योंकि विकास तो निरंतर प्रक्रिया है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जब अमेरिका में मंदी आई थी और वहां 200 बैंकों का दिवाला निकला था, तब इससे निपटने के लिए जो नीति की रूपरेखा बनी, उसे वहां की समिति ने अस्वीकार्य कर दिया था। कारण दिया गया था कि इसमें कोई भी अर्थशास्त्री भारत से नहीं है। अब हम जिसे विकसित मान रहे हैं, वह हमारे बिना इतनी बड़ी नीति पर निर्णय नहीं ले सकता, तो फिर हम अविकसित कैसे? गांधीजी के सहयोगी मित्र व प्रतिष्ठित पत्रकार व साहित्यकार धर्मपाल भारतीय ने देश के इतिहास की 10 चुनिंदा किताबें निकाली थीं। इन्हें विदेशी इतिहासकार व यात्राकारों ने ही लिखा था। सभी में एक मत से कहा गया था कि भारत कृषि प्रधान देश ही नहीं, बल्कि व्यापार उद्योग व कला में विश्व में सर्वोच्च स्थान पर है। हमारा देश विश्व व्यापार केंद्र रहा है। विज्ञान व तंत्र ज्ञान में शीर्ष पर रहा है। यह सब इतिहास में ही दर्ज है, जो ज्यादातर विदेशियों ने ही लिखा है। देश के विकास का आदर्श क्या है, कोई देश या कोई भाषा? नहीं। निष्कर्ष यही है कि हमारा आदर्श इतिहास ही है। इतिहास का अध्ययन ही आप को उस ओर ले जाएगा, जो विकास का चरम है।


आपका पुरुषार्थ जहां खत्म होता है वहां से आपका भाग्य शुरू होता है – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (23/09/2013)

परमपूज्य जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागरजी महाराज ने रामटेक स्थित भगवान श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र में उद्‍बोधन दिया है कि जब भी आप पूजा अर्चना करते हैं आपके साथ ही कई देवी-देवता भी पूजा अर्जना करते हैं। कोई भी क्रिया करते समय निःसही और अःसही बोलना चाहिए, जिनके लिए बोलते हैं उनका जो रूप है वैसा स्वीकार करें। उससे कहें कि आप और हम मिलकर अभिषेक पूजन करें।

जो मानसिक पीड़ा ग्रसित रहते हैं उनका वर्णन तत्वार्थ सूत्र में है। मानसिक पीड़ा को दुर करने के लिए घूमते हैं। स्वर्ग में शांति नहीं मिलती है इसलिए यहां आ जाते हैं। बहुत प्रयास करने पर खोजने से मिल जाता है। पन्ना में खोदने पर हर जगह हीरे व मानिक मिल जाते हैं। हम खान का ठेका लेते हैं धीरे-धीरे निकलते हैं। आप प्रचार प्रसार करके इससे आगे बढ़ा करते हैं। इन्द्र कहते हैं मुखिया को जिनकी आज्ञा चलती हो। जो भोग और उपभोग में इन्द्र के समान होते हैं उन्हें सामाजिक कहते हैं।

इन्द्र डायरेक्ट चाबी नहीं लगाता लेकिन चाबी घुमाता है। तीन लोक में तीर्थंकर रहते हैं। कई शब्द मुंह में बैठ जाते हैं तो उच्चारण करने पर तकलीफ देते हैं। सुखातु भूति इंद्रिय और मन से होती है। मनुष्य को बैठे बैठे रसोई खाने की आदत पड़ गई है। कुछ बनाना चाहिए फिर खाना चाहिए। जब आप पुरुषार्थ ही करेंगे आपके कार्य सिद्ध नहीं होंगे। आपका पुरुषार्थ जहां खत्म होता है वहां से आपका भाग्य शुरू होता है। आप इसका चिंतन किया करो। यह जानकारी एड. मनोज जैन ने दी।


यह जीव जहां जाता है वहीं रम जाता है – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (25/08/2013)

परमपूज्य जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागरजी महाराज ने रामटेक स्थित भगवान श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र में उद्बोधन दिया है कि, तुमने जो विभिन्न माध्यमों से दुःख पायें है, उनका विचार करों। शारीरिक रोग ना हो और मन में कुछ विकल्प हो तो आप कैसा महसूस करते हो?

संबंध जोड़कर तोड़ना बहुत मुश्किल है, विवाहित होकर के फिर संबंध तोड़ना कठिन कार्य है। मन की वैयावृति मानसिक वैयावृति कैसे होती है, यह जानना बहुत आवश्यक है। मोक्षमार्ग में असंख्यात गुनी निर्जरा होती है, ऐसा चिंतन करना चाहिए। तुमसे मेरे कर्म कटे, मुझसे तुम्हें क्या मिला? तुमने अनेकों गतियों में भ्रमण करके संख्यात या असंख्यात काल पर्यंत बिना विश्राम किए दुख सहे है, तब अति अल्प काल के लिए इस भव में यह थोडा सा दुःख क्यों नही सहते हो?

काल ज्वर जब आता है तब मृत्यु को लेकर ही जाता है। यदि तुमने परवश होकर पूर्व में वह वेदनाएं सही हैं तो इस समय इस वेदना को धर्म मानकर स्वयं अपनी इच्छा से क्यों नही सहते? यह जीव जहां जाता है, जिस भी योनी में जाता है वहीं रम जाता है।
रामटेक


रामटेक – आचार्य श्री विद्यासागरजी द्वारा 24 मुनिदीक्षा (10/08/2013)

रामटेक (नागपुर / महाराष्ट्र) में राष्ट्रीय दिगंबर जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के द्वारा 24 बाल ब्रह्मचारियों को दिगंबरत्व मुनि दीक्ष दी । इस अवसर पर 30-40 हजार की जनता अनुमानित होगी। उसी समय इंद्रदेव ने भी वर्षा के द्वारा दीक्षार्थियों का स्वागत किया। लोग छतों पर, टीनों के ऊपर बैठे थे। आचार्य श्री को भी नई पिच्छिका नये दीक्षार्थियों ने दी।

आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि यह दीक्षा खाने पीने की चीज नही है, अभी भी मेरा कहना है कि आप लोग की भावना देख कर मैं इससे स्थायी मान लूं। उनकी यह भावना फलीभूत होने जा रही है। हमने पहले कहा था कि आप उपवास का अभ्यास करिये। उसके लिये काफी तैयारी की आवश्यकता होती है। तो 64 ऋषि के उपवास दिये। सहर्ष रुप से स्वीकार किये इन्होने अल्प समय में पूर्ण किया। इन्होने कहा कि आगे कि साधना भी हमे दीजिये। इन्होने शीत, वर्षा, ग्रीष्म में उपवास किये। आज यह अवसर आपके सामने है। आगम में कहा है कि बार-बार मांगने पर एक बार दिया जाता है। हमें पूरे देश से नमोस्तु आते है। लोग कहते है कि हमें बहुत सारा आशीर्वाद दीजिए तो हम कहते है कि एक बार ही आशीर्वाद देते हैं। आपने इनको सुना और चेहरो को भी देखा होगा। अनुमोदना से सहयोग कर रहे है । कुछ चंद मिनटों के बाद उस लक्ष्य तक पहुचेंगे। त्याग करके आजीवन निर्वाह करना महत्वपूर्ण है। किसी को 30-40 वर्षो तक लग सकते है। लेने के बाद इन व्रतों को धारणाओ को मजबूत करते चले जाये। यह शांतिनाथ का क्षेत्र माना जाता है। वर्षो से लाखों की जनता ने उपासना की है। यह मंगल कार्य इस क्षेत्र पर सम्पन्न होने जा रहा है। आचार्य गुरुदेव ने कहा था कि दीक्षा तिथि नहीं दीक्षा क्यों ली यह याद रखना। जिन-जिन मुनियों से वैराग्य बढ़ता है उनको याद रखना। निश्चय से अनुभव ही हमारा व्यवहार चलाता है। आप लोग अपने सिरों से पगढ़िया उतार लें।

आचार्य श्री ने मंत्रोच्चारण किया फिर गंधोतक के जल से सिर का प्रच्छालन किया। आप चिंतन करिये, उनको जीवन के अंतिम समय तक याद रखियें । नागपुर जैन समाज ने सर्व सम्मति से मंदिर का स्वप्न सजाया है । प्रतिमाओं को दुसरी जगह शिफ्ट करना है। जब तक चार-पाच वर्षों तक मंदिर नहीं बन जायेगा विश्व से अपनी स्मृति में रखेंगे। आचार्य श्री ने कहा कि वस्त्र से अपने सिर साफ कर ले, आचार्य श्री ने 28 मुल गुणों के बारे में बताया और कहा कि आप लोग गाडी में नही चल सकते । फोन का इस्तेमाल नही कर सकते। आप लोग 28 मुल गुणों का पालन करेंगे। अब आभुषण उतारेंगे। इस अभुतपुर्व दृश्य देखियें। 24 ब्रम्हचारी जो वस्त्राभूषण सहित थे उनको आप दिगंबर देख रहे है। जैसे भगवान दिगंबर होते है, वैसे ही ये हो गये हैं। अब घर नही जा पायेंगे। अभुतपुर्वक दृश्य चेतन चैबीसी को आपने देख लिया। यह महावीर भगवान की आचार्य ज्ञान सागरजी की परंपरा में यह दीक्षित हो रहे है वीतराग मार्ग की ओर अग्रसर रहने का भाव बनायें रखेंगे। आज पंचम काल है डायरेक्ट इस मुद्रा के माध्यम से प्राप्त नहीं होता।

उपसर्गो के माध्यम से निर्वाह करना है। आपने घर को छोड दिया है, हमारे घर में प्रवेश कर गये है। अब इनका कोई नंबर नही रहेगा। आचार्य महाराज का महान उपकार है। जीव का जीव के ऊपर तो उपकार होता है। तु ज्ञानी और हम अचेतन यह बात तो आप करते है। अपने जीवन के बारे में जब सोचेंगे तो लगेगा कि यह क्या है? हमेशा हमेशा आपको अच्छे कार्य करना है। गुरुजी कों यह पसंद था कि गुरु का शिष्य के ऊपर तो उपकार होता है। जैसे सेवक के ऊपर मालिक करता है। ऐसे ही गुरु और शिष्य का आपस में उपकार होता है। जिस को आज्ञा दी है उसको पालन करेंगे तो गुरु के ऊपर भी उपकार होगा। शासन का प्रवाह चलेगा। जिनशासन का प्रवाह चलेगा, आप पालेंगे तो लोग देखेंगे। आप लोग शास्त्र और गुरु के कहे के अनुसार जैन धर्म और अहिंसा के क्षेत्र में कार्य करेंगे।

बहुत परिश्रम कर के शिक्षा और दीक्षा का प्रवाह बढ़ाया है। बढने से नही बढ़ता करना पडता है। आपने इस दृश्य को देखा है। गदगद होकर इस दृश्य को कैद कर लेना है। करोडो अरबों और खरबों रुपये खर्च कर के भी यह दृश्य नही मिलेगा। जो नही आये वह पश्चाताप करेंगे। जिस समय चर्या करेंगे तो लागों को यह दृष्य प्रेरक बनेगा। आज से असंख्यात गुणी कर्मो की निर्जरा प्रारंभ हो चुकी है। साहुकार तो ये हैं। हम हमेशा प्रसन्न रहें। हमेशा प्रसन्न रहेंगे तो सभी लोगों पर असर पडेगा। प्रतिकुलता में भी आनंद की अनुभूति होगी। जो हम चाहते थे वह मुद्रा मिल गयी। जीवन आनंदमय बन गया। इन लोगों के मुह में भी पानी आयेगा। इसको आप खर्चा करके नही खरीद सकते। यह हमारा स्वरुप आ गया। वीतरागता हमारा धर्म है। प्रभु और गुरुदेव से हम प्रार्थना करते है कि वह वीतरागता प्राप्त हो, अपना व्यापार बढाओं, हमें जल्दी ही मिल ही जायेगा। जितने आप प्रसन्न रहेंगे तो चुन-चुन कर ग्राहक आयेंगे। मोह को त्याग करना कठिन है। यह अनन्तकाल से लगा है।


तप की महिमा अपरंपार है – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (08/08/2013)

परमपूज्य जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागरजी महाराज ने रामटेक स्थित भगवान श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र में उद्बोधन दिया है कि, रोग होता है, जन्म-मरण, रूप, उसकी श्रेष्ठ औषधि तप है। अच्छी चीज के लिए विज्ञापन की आवश्यकता नही होती है वह स्वयं में विज्ञापन होती है। कलकत्ता मे एक वृक्ष है, किसी को पता नही है कि उस वृक्ष का मूल भाग कैनसा है?
संसार रूपी महादाह से जलते हुए प्राणी के लिए तप जल घर है, जैसे सूर्य की किरणो से जलते हुए मनुष्य के लिए धाराधर होता है। तप सांसरिक दुखों को दूर करता है। सम्यक तप करने से पुरूष बंधु की तरह लोगो को प्रिय होता है। तप से व्यक्ति सर्व जगत का विश्वासपात्र होता है। पंचकल्याणक आदि सुख तप से प्राप्त होते है। तप मनुष्य के लिए कामधेनु और चिंतामणि रत्न के समान है। आप लोगो को रोने की आदत पड गयी है। संसार मे मै किसी से बैर नही करूंगा ऐसे भाव रखना चाहिए।

जब शरीर को भोजनरूपी वेतन दिया जाता है। उस पर दया न करके उसको तप की साधना मे लगाना चाहिये। तपेा भावना मे जिसको आनंद नही आता है उसको अभी संयम बहुत दूर है। जीव पर दया की जाती है, शरीर तो जड है पुद्गल है उस पर दया नही करना चाहिये। यदि शरीर का पोषण करते है तो आत्मा का षोषन होता है। संज्ञाये तो बढती चली जाती है और कार्य करने की क्षमता बढती जाती है। भावना जितनी भायेगी उतनी विशुध्दी बढती जायेगी। संयम का फल इच्छा निरोधो तपः होना चाहिये।


एक क्षण का क्रोध हमारे जीवन को संपूर्णतः नष्ट कर देता है – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (07/08/2013)

परमपूज्य जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागरजी महाराज ने रामटेक स्थित भगवान श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र में उद्बोधन दिया है कि क्रोध रूपी आग मनुष्यों के धर्मवृत को जलाती है। यह क्रोध रूपी आग अज्ञानरूपी काष्ठ से उत्पन्न होती है। अपमान रूपी वायु उसे भडकाती है। कठोर वचन रूपी उसके बडे स्फुलिंग है। हिंसा उसकी शिखा है और अत्यंत उठा बैर उसका धूम है। यदि व्यक्ति कषाय करता तो उसका पाप का प्रमाण वढता है। कषाय करने वालो के उपर हम कषाय नही करेगे, यदि हम यह सोच लेंगे तो मोक्ष की प्राप्ति होगी। अपमान होता है तो क्रोध रूपी अग्नी उसे प्रज्जवलित कर देती है। ज्ञान के द्वारा कषायो का हनन होता है। जब तब व्यक्ति के ऊपर ऋण रहता है तब तक उसे चैन नही आता है। क्रोध इस लोक एवं परलोक मे बहुत दोषकारक है ऐसा जानकर क्रोध का त्याग करना चाहिये। जीव तत्व को देखकर यदि अक्ल आये, उस जीव तत्व पर श्रद्धान हम कैसे माने। श्रध्दान अलग वस्तु है और चर्चा अलग वस्तु है। एक क्षण का क्रोध हमारे जीवन को संपूर्णतः नष्ट कर देता है । अतः हमें क्रोध को त्यागना चाहिये।


संस्कृति बचाने गौरक्षा की ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (02/08/2013)

परमपूज्य जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागरजी महाराज ने रामटेक स्थित भगवान श्री शां‍तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र में उद्बोधन दिया है कि, गाय जीवित धन माना जाता है जो विभिन्न प्रकार की समस्याओ का हल करता है। काली गाय मनुष्य से भी ज्यादा जागृत रहती है। उसकी ज्यादा मांग रहती है। वातावरण शांत रहता है। मथुरा में गोवर्धन नगर है उधर की गायों में विशेषता है।

यदि कोई व्यक्ति गौ वध करता था तो पहले के शासक उसके हाथ अलग करवा देते थे। उस समय 4 लाख गायें थी, आज कितनी गायें है हमारे देश में ? अब कोई आवाज ही नही उठाता है । नगाडे की आवाज मे बाँसुरी की आवाज दब रही है। पहले के राजा गायों की रक्षा अपने प्राणों से भी ज्यादा करते थे। हमें अपनी संस्कृति बचाने गौरक्षा की ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

साथ ही आचार्यश्री ने कहा कि, इंद्रियाँ बूढी होने पर भी मन जवान है वह काम कराता रहता है। अपनी इन्द्रियों पर जो लगाम लगा कर ज्ञान, ध्यान और तप में व्यस्त रहता है वह तपस्वी होता है । इन्द्रिय और कषाय, ध्यान और गुप्ति से डरती है। शरीर सो जाये लेकिन अप्रमत रहे इसका नाम गुप्ति है।

साथ ही आचार्यश्री ने यह भी कहा कि, आज बच्चे सोचते है 365 दिन है तो पढाई कम करते है, खाने पीने मे, फिल्म एवं मोबाइल आदि मे समय खराब करते है। फिर दिन-रात रटकर पढते है एवं बीमार पड जाते है । विद्यार्थी वही माना जाता है जो प्रतिदिन अध्ययन करता है । कहते है 50 वर्ष की उम्र हो गयी, तो हिसाब लगाओ की खाने-पीने-सोने में आने कितना समय व्यर्थ गंवाया है। आचार्य कुंद कुंद स्वामी कहते है कि यदि तुम दुःख से मुक्ति चाहते हो तो क्षमा धर्म को धारण करो ।


वेल्कम नहीं वेल गो के बारे में सोचो – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (26/07/2013)

साधु को यह प्रषिक्षण दिया जाता है कि आप व्यापार कर रहे हो यदि अचानक कुछ हो जाये तो सावधानी से अंतिम समय अच्छे से निकल जाये। रत्नात्रय ऐसा माल है जो कोई लूट नहीं सकता यदि लूट ले तो माला – माल हो जायेगा। दुनिया छूट जाये तो कोई बाधा नहीं लेकिन रत्नात्रय नहीं छूटना चाहिये। संसार रूपी महान वन से पार कर देते हैं। आना इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना जाना है। अपनी – अपनी इन्द्रियों को चोर के समान समझो वेल्कम नहीं वेल गो के बारे मे ंसोचो। पाॅंच इंद्रिय और मन के द्वारा आप लूट रहे हैं। जो इंद्रियों का दमन करते हैं, कषायों का शमन करते हैं, देव उन्हे नमन करते हैं। इंद्रिय और मन को जो काबू में करता है वह सबको वष मे ंकरता है। आत्मा इंद्रियों से वषीभूत होकर भगवान को भूल जाती है। गुरू अपने आप में सहायक तत्व है मोक्ष मार्ग में । अनंत कालीन संस्कार रहते हैं जो छूटने के बाद भी बार – बार आ जाते हैं, उन्हे वह गुरू दूर करते रहते हैं। मोक्ष मार्ग में जो जाना चाहता है उसको मोह, प्रमाद से बचना चाहिये। यदि स्कूल में कोई प्रमाद करता है तो बैंच पर खड़ा कर देते हैं।


प्रतिभा स्थली के बच्चों को उद्‍बोधन – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (23/07/2013)

एक विशाल भवन में बहुत सारे बच्चों की व्यवस्था की गयी थी। बच्चों को जैसे संकेत मिलता था हजारों की आवाज आ रही थी। ताली बजाने का संकेत मिलते ही एक साथ ताली बजाने लगे। 700 बालिकायें हैं प्रतिभा स्थली में और संकेत मिलते ही 1400 हांथों से तालियाँ बजने लगी। छोटे बच्चे समझने के बाद भूलते नहीं। यह सुरभि दिगंतर तक फैल सकती है और प्रभाव डाल सकती है। कल्याण की जो भावना रखता है वह व्यवस्थित कार्य करे। आप लोग प्रतिभा स्थली से आये हैं, पहले प्रतिभा है बाद में स्थल है। प्रतिभा एक स्थान पर रूकती नहीं प्रवाहित होती रहती है। जबलपुर एवं चंद्रगिरी (डोंगरगढ़) से आये हैं बच्चे लेकिन ड्रेस और प्रतिभा एक सी है। जहाँ हम जाते हैं लोग प्रतिभा स्थली की मांग करते हैं। एकता से ही शांति और सब कार्य होते हैं। अपने वायर, कनेक्षन और बल्ब को अच्छा रखें तो अंधकार दूर होगा, हजारों बल्ब जलेंगे। प्रकाश आता है तो अंधकार दूर हो जाता है।


वीर शासन जयंती। – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (23/07/2013)

रामटेक में विराजमान संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने प्रतिभा स्थली के बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम के पश्चात कहा कि – एक बालिका ने कहा कि भूगोल ही क्या हम इतिहास बदल देंगे तो हमें भूगोल में जो विक्रतियाँ आ गयी है उनको हटाना है। हमें सीखना है किसी कि शिकायत नहीं करना है। शिक्षा सिखने के लिये होती है और जो दिक्षित होते हैं उन्हे अंतरंग में उतारने में कारण होती है।

‘‘जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि और जहाँ न पहुँचे कवि वहाँ पहुँचे आत्मानुभवि’’।
देश में परिवर्तन हो जाये, वेष में परिवर्तन हो जाये लेकिन उद्देश्य में परिवर्तन हो जाये तो कार्य नहीं होगा। बीच में कुछ ऐसी बच्चियाँ आयी जैसे कोई काव्य गोष्ठी हो रही हो, मंच का संचालन भी अच्छा हो रहा था। अभी – अभी डोंगरगढ़ में प्रतिभा स्थली खुली है उसकी खुशबू फैल रही है।

आज वीर शासन जयंती है यह दिन बताता है कि केवल ज्ञान होने के उपरान्त भी दिव्य ध्वनि नहीं खिर पा रही थी। 66 दिन तक दिव्य ध्वनि नहीं खिरी, फिर खिरी। समवशरण तो खचाखच भरा था।

बच्चे अपने साथ प्याऊ (बाटल) लेकर आये हैं। गाँधी जी चाहते थे कि इनकी शिक्षा ऐसी मटकी के जैसी हो जिसमें से सभी पी सके। यह बोतल की परंपरा बदलना होगी। भूगोल को बदलने की अपेक्षा बोतल को गायब कर दें। एक बार पीने के बाद प्यास बुझ जायेगी। आप बोतलों को समाप्त कर देंगे और सबकी प्यास बुझायेंगे। असर सर तक नहीं किन्तू हृदय तक पढ़ना चाहिये। कानों से जो सुनते हैं उसे हृदय की ओर ले जायें उसी का नाम वीर शासन जयंती है। वाचन की अपेक्षा पाचन महत्वपूर्ण होता है। स्वप्न यानि स्व ़ पन को साकार करें। हम भी भगवान की तरह बनें स्वप्न तभी साकार होंगे। दुनिया में सब कुछ मिल सकता है लेकिन स्वप्न नहीं। एक दृष्टांत देते हुये कहा कि एक बच्चे की माँ गुम गई पिता कि अपेक्षा माँ अधिक आत्मीयता एवं संस्कार देती है। किसी रहस्य को समझने में शब्द ही काम में नहीं आते अन्य भी चीजें काम आती है। ‘‘जवाब नहीं देना भी लाजवाब है’’ शब्दों के साथ भाव प्रणाली भी होना चाहिये। आज की शिक्षा शब्दों की ओर ही जाती है। आज के दिन दिव्य ध्वनि खिरी और वीर शासन जयंती प्रसिद्ध हुई।


साधक के दर्शन बडे़ पुण्य से होते हैं। – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (22/07/2013)

लोभ के कारण अपने कुटुम्बियों की और अपनी भी चिन्ता नहीं करता उन्हें भी कष्ट देता है और अपने शरीर को भी कष्ट देता है। साधक के दर्षन बडे़ पुण्य से मिलते हैं, महत्व समझ में आ जाये तो महत्व हीन पदार्थ छूट जायेगा। परिणामों की विचित्रता होती है। निरीहता दुर्लभता से होती है। परिग्रह कम करते जाओ निरीहता बढ़ाते जाओ। जिसको हीरे की किमत मालूम है वह तुरंत नहीं बेचता है। जो लोभ कषाय से रहित है उसके शरीर पर मुकुट आदि परिग्रह होने पर भी पाप नहीं होता अर्थात् सारवान् द्रव्य का सम्बन्ध भी लोभ के अभाव में बन्ध का कारण नहीं है। जिसका वस्तु मे ममत्व भाव नहीं है वह दरिद्र होते हुए भी सुख प्राप्त करता है। अतः चिŸा की शान्ति सन्तोष के अधीन है, द्रव्य के अधीन नहीं है। महान द्रव्य होते हुए भी जो असन्तुष्ट है उसके हृदय मे महान दुःख रहता है।


श्वेत पत्र पर, श्वेत स्याही से लिखा सो पढ़ो – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (17/06/2013)

थोड़ा सा असंयम संयम की शोभा को कम कर देता है। जैसे बकरी का बच्चा सुगन्धित तेल भी पिये फिर भी अपनी पूर्व दुर्गन्ध को नहीं छोड़ता। उसी प्रकार दीक्षा लेकर भी अर्थात् असंयम को त्यागने पर भी कोई – कोई इन्द्रिय और कषाय रूप दुर्गन्ध को नहीं छोड़ पाते। मन से कभी समझौता नहीं करना क्योंकि वह गिरा देगा। मन को छोड़ भी नहीं सकते हैं उससे काम भी लेना है। पँचेन्द्रियों से वषीभूत हुआ प्राणी क्या – क्या नहीं करता है। कषाय का उद्वेग संज्ञी पंचेन्द्रिय में ही है। हम आदी हो गये है, काला अक्षर भैंस बराबर। श्वेत पत्र पर श्वेत स्याही से लिखा सो पढ़ो। अकेले काल रंग से लिख नहीं सकते, अकेले सफेद से भी कुछ नहीं कर सकते हैं। शुक्ल लेष्या का प्रतीक है। रात्रि में अंधकार में इधर – उधर क्यों नहीं देखते। आँखे बंद करके ही बैठते हैं सामायिक में । आँखों की ज्योति का सरंक्षण करना सीखो। इधर – उधर नहीं देखो।


नर से नारायण हो सकते हैं। – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (16/06/2013)

सुप्रसिद्ध साधक श्रमण शिरोमणि दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी ने गर्भस्थ शिशु के वध को घृणित, तिरस्कृत अधोकर्म बताते हुए कहा कि होनहार संभावना का जन्म से पूर्व ही अन्त कर दिया जाता है। शोधों से ज्ञात होता है कि यह दुष्कृत्य अपेक्षाकृत शिक्षित समुदाय द्वारा अधिक अनुपात में किया जाता है। श्रीमान हो, विद्वान हो अथवा सामान्य हो सभी इस कर्म से बचें, इस दुष्कर्म को त्यागें। इन वचनों को सुनते ही अमरकण्टक के सर्वोदय तीर्थ सभागार में उपस्थित हजारों श्रोताओं ने भ्रूण हत्या से बचने का संकल्प लिया।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि धरती पर असंख्य जीव हैं, इनमें मनुष्यों की गणना की जा सकती है, की जाती है। जिन्होंने मन और इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली अथवा मन को जीत लिया, इंद्रियों को अपने वश में कर लिया ऐसे मनुष्यों की संख्या नगण्य है, धन्य है ऐसे महामानव जिन्होंने ऐसा दुर्लभ कार्य कर लिया। इंद्रियों को जीतना सेमीफाइनल और मन पर विजय पाना फाइनल जीतना है। फाइनल जितने पर पुरस्कार मिलता है।

मन अदृश्य है किन्तु सबको अपने अधीन में रखता है, संसार को नचा रहा है। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने बताया की लोकतंत्र में सब स्वतंत्र है। वासना से मुक्त होना ही स्वतंत्रता है, यह समझाते हुए कहा कि मन के अधीन और इंद्रियों के दास होकर स्वतंत्र कैसे हो सकते हो? प्रशंसा और ख्याति की चाहत रखना खाई में कूदना है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि अधीनता में रहते अनंत काल हो गया, काया के प्रति निरीह होना ही साधना है, तप है। तप कभी परवश होकर नहीं किया जाता स्ववश होकर ही दुर्लभता की प्राप्ति होती है। बंधन से मुक्ति की प्रक्रिया है बंध मुक्त होते ही स्वतंत्र हो जाते हैं, अनंत काल की परतंत्रता, परवशता छूट सकती है।

आचार्य श्री ने बताया कि भाड़ में चना सेका जाता है, सिककर चना फूट जाता है। वह चना बच जाता है जो उचटकर निकल जाता है, उचट गए तो ठीक नहीं तो गए भाड़ में, ऐसे ही मन और इंद्रियों के भाड़ से उचट कर बच लो। इंद्रियों और कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) से वशीभूत होकर दूसरे को तो दुख देते हैं स्वयं को भी पीड़ित करते हैं। जीभ के उपयोग से प्रस्फुटित वाणी द्वारा दूसरे जीव को जीत सकते हैं उसी जीभ की वाणी अपनी बत्तीसी भी तुड़वा देती है।

आचार्य श्री ने बताया कि मन और इंद्रियों पर अपना अधिकार है तो मोक्ष मार्ग पर जा सकते हैं और इनके अधिकार में हैं तो मोह मार्ग पर चल रहे हैं। यह निर्णय स्वयं करना है कि अधिपति होना है या दास बना रहना है। मन की आराधना छोड़कर मन को आत्मा की आराधना की ओर लगाना है। क्रोध में आपा खो देते हैं, आपे में आते ही सुख की अनुभूति होने लगती है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने बताया कि धारणा बनाते ही धारण करने की क्रिया आरंभ हो जाती है। किसी को जीवन दे नहीं सकते तो जीवन लेने का अधिकार किसने दिया? गर्भस्थ शिशु का वध अधोकर्म है, जिससे कि जन्म लेने के पूर्व ही संभावनाओं की समाप्ति हो जाती है। ऐसी हवा से बचना चाहिए। मनुष्य का जीवन वह दुर्लभ अवसर है जिसमें मोक्ष पाने की सामर्थ्य है, नर से नारायण हो सकते हैं।


अखबार में फ्रंट पर देखते हैं – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (14/06/2013)

तीव्र कषाय वाले के पास जाने से लोग डरते हैं। यह इन्द्रियों की दासता की कहानी की आदत पड़ी है। दूसरों के बारे में तो अचरज करता है लेकिन अपने बारे में अचरज नहीं करता। आपका इतिहास लाल स्याही से लिखा गया है वह पाँच पाप सहित है। करोड़पति होकर भी रोड़पति बन गये है। दरिद्रता रखो लेकिन कषाय की दरिद्रता रखो। ख्याति, पूजा, लाभ मिलने से कई लोगों के खून में वृद्धि हो जाती है। यह रस आत्मा को नहीं मन को मिलता है। डॉ. मान, सम्मान की खुराक नहीं दे पाते हैं। लागों को मान की खुराक होती है तो कहते हैं कि अखबार में मेरा नाम फ्रंट पर आना चाहिये और किसी का नाम नहीं आना चाहिये। ठंडे़ बस्ते में मन को रखना मोक्षमार्ग है। डॉ. को मन की दवाई भी ढूंढ़ लेना चाहिये। मन के विजेता इंद्रिय विजेता बनोगे तभी मोक्ष मार्ग के नेता बनोगे। मान – अपमान को जिसने समझ लिया उसने मोक्ष मार्ग को समझ लिया।


क्या है यह सुख-दुख? – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (02/06/2013)

सुप्रसिद्ध सन्त शिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने रमणिक स्थल अमरकण्टक में बताया कि सुख की प्रतिक्षा में दुख सहते जीवन बीत जाता है। सुख की अभिलाषा दुख सहने की क्षमता बढ़ा देती है, संसार दुख की खान है जिसमें सुख हीरा की एक कणिका के समान है।

संसार में दुख बहुत बाधा देता है यदि सुख की चाह न हो तो दुख सहन नहीं होता, यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि सुख एक अनुभूति है। सुख की अभिलाषा में दुख सह रहे हैं तो यह सुख ही तो दुख दे रहा है, क्या है यह सुख-दुख? राग द्वेष से दुखानूभूति होती है, राग द्वेष रहित होते ही सुखानुभूति होने लगती है। आचार्य श्री ने बताया कि हीरे की खान में हीरा की अपेक्षा अन्य पदार्थ मिट्टी, पत्थर आदि अधिक निकलता है। टनों टन मिट्टी पत्थर से मन का एक हीरा प्राप्त होता है।

हीरा की एक कणिका और अन्य पदार्थों की बाहुल्यता होते हुए भी खान हीरे की कहते हैं ऐसे ही संसार एक दुख की खान है जिसमें सुख हीरा की एक कणिका के समान है। आपने बताया कि कदिली (केला वृक्ष का तना) की एक – एक परत खोलने पर भी अंत में सार कुछ नहीं रहता और ऐसा ही संसार सारमय नहीं है, संसार भी कदिली की भांति है। सभी परते उतार दो सार प्राप्त नहीं होने वाला, असार है संसार।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि त्वचा के रोगी को खुजलाने पर सुख मिलता है, खुजलाते-खुजलाते रक्त निकलने पर जलन होती है, तीव्र पीड़ा से दुखी होकर खुजलाने की क्रिया पर पश्चाताप करते हैं, एक ही क्रिया से सुख की भी अनुभूति होती है वही अगले पल दुखी कर देती है क्या है यह सुख – दुख। सुख-दुख के भ्रम में आयु बीत जाती है।

आपने कहा कि क्रोध के कारण क्रोध आता है तो क्रोध को पकड़ो, ठीक करो, सामने वाले को क्रोध से देखने का क्या औचित्य है, यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि अपने दोषों पर दृष्टि डालते ही क्रोध ठण्डा हो जाता है, पछताते हुए सोचते हैं अब ऐसा नहीं करना है, ऐसा सोचते ही शांति की अनुभूति होने लगती है। एक ऐसा दर्पण मिल जाए जिसमें आत्मस्वरूप दिख जाए, आँखे खोलकर देखें तो संसार दिखता है, आँखे बंद कर देखें तो सार समझ में आता है, दर्पण में मुख निहारते युग बीत गए, दर्पण को कभी नहीं देखा। रूप देख लिया, स्वरूप देख लें।

क्षुधा को शांत करने के लिए अन्न पान का प्रबंध करते हैं, ठण्ड की ठिठुरन से बचने वस्त्र का, धूप, वर्षा से रक्षा के लिए भवन का, सुन्दरता के लिए आभूषण का, दुर्गन्ध दूर करने के लिए सुगंधि पदार्थ का प्रबंध कर पंचेंन्द्रिय की पीड़ा दूर करने का यत्न करते हैं, क्या सुख मिला, नहीं, दुख ही भोग रहे हैं, सुख की चाह है, यह गति तब तक रहेगी जब तक राग द्वेष से रहित नहीं हो जाते।


भारत का इतिहास स्वर्णिम था, वर्तमान क्यों नहीं? -आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (दिनांक – 26/05/2013)

उत्थान का आधार क्रमिक विकास है, गति, प्रगति तदोपरान्त उन्नति सोपान है। छलांग लगाकर प्रमाण-पत्र प्राप्त किया जा सकता है, योग्यता प्राप्त नहीं होती। भारत की श्रमण साधना के उन्नायक, प्रख्यात विचारक दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने अमरकण्टक में यू.एन.आई. की दिल्ली ब्यूरो प्रमुख सहित अन्य चिन्तनशीलजनों की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए सामाजिक, ऐतिहासिक, शैक्षिक सन्दर्भों में उपरोक्त मत व्यक्त कर बताया कि पाश्चात्य दृष्टि से आंकलन करने की अपेक्षा अपने गौरवशाली अतीत के दर्पण में देखना चाहिए।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि भारत का इतिहास स्वर्णिम है, वर्तमान क्यों नहीं? सोने की चिड़िया कहाँ उड़ गई? भारत ज्ञान का सिरमौर था, अब ज्ञान अर्जन के लिए परदेस गमन होता है। अतीत सम भविष्य का एकमात्र सूत्र है, ‘‘रूको, लौट चलें।’’

जटिल जिज्ञासाओं का सरल समाधान करते हुए बताया कि पारंगत होने की एक निश्चित प्रक्रिया है, क्रमिक विकास से ही उत्थान होता है। वयस्क होने की न्यूनतम आयु अठारह वर्ष है, इस आयु के पूर्व लिया गया निर्णय वयस्क का निर्णय नहीं माना जाता, यही नीति है। शिक्षा के क्षेत्र में परिपक्व आयु के पूर्व ही युवा प्रतिभा की दिशा निश्चित कर दी जाती है, किस विषय में अध्ययन करना है यह निर्णय थोप दिया जाता है। अवयस्क आयु के ऐसे निर्णय परिपक्व होने पर युवाओं को असमंजस में डाल देते हैं, ऐसे अनेक उदाहरण हैं, अनेक घटनाएं हैं।

क्रमिक विकास के अभाव से प्रमाण-पत्र प्राप्त हो जाता है किन्तु उत्थान नहीं हो पाता। क्रीम शब्द की व्यापकता पाश्चात्य शैली की परिचायक है, यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि नवनीत (मक्खन) से भारतीयता की सुगंध आती है। नवनीत को तपाकर घृत प्राप्त किया जा सकता है, क्रीम बस क्रीम है। नवनीत से घृत बनाने की निश्चित प्रक्रिया है, इस कथन से ही भारतीय दर्शन को स्पष्ट करके बताया कि विज्ञान के शोध से इतिहास का बोध अधिक मूल्यवान है। संतोष, सौहार्द्र, समन्वय, सहयोग भारतीय संस्कृति की विशिष्टता है, इन गुणों की अपेक्षा असन्तोष बढ़ता जा रहा है। अपना आंकलन पश्चिम की आंखों से किया।


वचन में बल होता है – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (दिनांक –12/05/2013)

सुप्रसिद्ध सन्त शिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने अमरकण्टक में वचन – बल का बोध कराते हुए कहा कि अल्प वचन से पर्याप्त प्रभाव उत्पन्न हो जाता है, अधिक शब्द प्रयोग की आवश्यकता नहीं। सत्य वचन में अहिंसा की आराधना समाहित रहती है। वचन ऐसे हों जिससे किसी प्राणी का जीवन न रूके। शब्दों के अनुरूप अंगों – उपांगो की मुद्रा हो जाती है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने शब्द, अर्थ और भाव का महत्व बताते हुए कहा कि जिस वचन से हिंसा की संभावना हो वह सत्य वचन नहीं है, सत्य वचन से प्रत्येक प्राणी के जीवन को संरक्षण मिलता है। झूठ दोष से रहित वचन में सत्य की शक्ति निहित होती है। वचन में बल होता है, यह समझाते हुए आपने कहा कि काय बल, वचन बल, मनोबल में सर्वाधिक शक्ति युक्त मनोबल होता है। काय तथा वचन बल सीमित होता है किन्तु मनोबल की कोई सीमा नहीं। मनोबल का प्रयोग अहिंसा की उन्नति के लिए करने से असंख्य लाभान्वित हो जाते हैं।

एक स्थान पर बैठकर ही सूदूर तक प्रभाव पहुँच जाता है। सद्भावना के साथ सदुपयोग के लिए कदम उठाओ, कोई कार्य असंभव नहीं है। बैठे, सोते, करवटें बदलते हुए भी भावों को प्रदर्शित किया जा सकता है। जिस ओर सोचते हैं, उस ओर ही कार्य होता है, सही कार्य के लिए सही सोच आवश्यक है।

एक सूर्य सबको सम्हाल लेता है, यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि सूर्य के प्रताप से जग आलोकित होता है। अपने प्रताप से परिचित हो जाइए आलोक व्याप्त हो जाएगा। विचारों का सामंजस्य आज भी उपयोगी है, आगामी काल तक प्रभावी रहता है। व्यापक विचार काल की कविता कालजयी होकर युगों – युगों तक कार्य करती है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि वचन – भाव के अनुसार ही अंगों – उपांगो की मुद्रा वैसी हो जाती है। क्रोध के वचनों से चेहरा लाल, मुट्ठी मिंच जाती है, शरीर में हलचल मच जाती है, वचन – भाव शान्त हो तो शान्ति व्याप्त हो जाती है, चेहरा कांति मय हो जाता है। अधिक प्रभाव के लिए अधिक शब्द की आवश्यकता नहीं है, अल्प शब्द भी व्यापक प्रभाव उत्पन्न कर देते हैं। वचन का उद्देश्य सही होने पर पुण्य बंध होता है। घाव को ठीक करने के लिए पहले साफ करते हैं, फिर मरहम लगाकर पट्टी बांधते हैं, ऐसे ही दर्षन के क्षेत्र में पूर्व कर्म साफ (निर्जरा) करते हैं, इसके पष्चात पुण्य का बंध होता है।

पाप – पुण्य रहित होकर जीवन का घाव भर जाता है, सीधा मार्ग मिल जाता है। देष प्रान्त – राज्य को जनपद कहते हैं, जनपद की भाषा होती है। लोक विरूद्ध कार्य नहीं करना चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल देखकर वचन मुख से बोलना चाहिए। जहां अहिंसा दया का पालन होगा वहां असुरक्षा की संभावना समाप्त हो जाती है। एक व्यक्ति के वचन से असंख्य व्यक्ति प्रभावित हो जाते हैं। वचन की स्थापना से धारणा एवं बिम्ब की स्थापना से अवधारणा बनती है। एकलव्य को द्रोणाचार्य के वचन नहीं मिले किन्तु बिम्ब से प्रषिक्षित दीक्षित पारंगत होकर अर्जुन से अधिक कुषल हो गया।


भेद – भाव, छुआ – छूत एक बीमारी है – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (दिनांक – 28-4-2013)

तपोनिधि, ज्ञान वारिधि, साधना षिरोमणि दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने मैकल पर्वत माला के षिखर अमरकण्टक में कहा कि औषधि का आधार वनस्पति है, संसार की प्रत्येक वनस्पति औषधि गुण युक्त है, वनस्पति के विनाष से औषधि भी नष्ट हो जाती है। ताल (वृक्ष) में पल्लव, कोपल, लता, छाल, जड़ आदि सभी निहित है। सरल हृदय से निकली बोली व्याकरण युक्त सुसंस्कृत भाषा से अधिक प्रभावी है यह समझाते हुए बताया कि छुआ – छूत की भावना एक बीमारी है जो कि ‘स्टैन्डर्ड’ वृद्धि प्रतिस्पर्धा की देन है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि भेद – भाव, छुआ – छूत एक बीमारी है, यह कहाँ से आयी, इसका उपचार कहाँ है ? इसका समाधान करते हुए कहा कि यह सब ‘स्टेण्डर्ड’ वृद्धि की चाह, क्रिया, भाव से उत्पन्न द्वेष की देन है। दूसरे को देखकर अपनी सुविधा साधन सम्पन्नता संग्रहण अधिक करने की लालसा में इस रोग से ग्रस्त हो गए। ऊँच – नीच, भेद – भाव, छुआ – छूत रोग का उपचार के लिए कौन सा चिकित्सालय है ? द्वेष दंभ त्याग दो निदाह हो जाएगा, त्यागी का सानिध्य सर्वोŸाम चिकित्सालय है संग्रही वृŸिा छूटते ही संयत हो जाते हैं। वस्त्र त्यागने के साथ ही अन्य त्याग स्वमेव हो जाते हैं, वस्त्र का त्याग तब ही संभव है जब संग्रही वृŸिा से छुटकारा मिल जाता है पृथक रूप से भिन्न – भिन्न त्याग के विवरण की कोई आवष्यकता नहीं है । काया के प्रति भी मोह से मुक्त होने वाला ही वस्त्र का त्याग करता है। अपना आंगन छोड़कर पर स्थान गमन करने वाला जीवन पर्यन्त संग्रहण (परिग्रह) करता रहता है किन्तु अपने आंगन की याद कभी नहीं मिटती। अपना गांव छोड़ा, नगर, महानगर जाकर भी संतुष्ट नहीं। वहां कोई कुषल क्षेम पूंछने वाला नहीं। निज को देखो, अपना आंगन भला है। जितनी आवष्यकता है उतनी पूर्ति का प्रयास करो समस्त रोग मिट जाएंगे। कोई प्रभावित न हो तो लम्बा परिचय व्यर्थ है। जीवन गाथा रटने की नहीं खोलने की आवष्यकता है यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि सरल हृदय से निकली बोली सुसंस्कृत भाषा से अधिक प्रिय लगती है।

अनेक वाक्य के भाव मे अकथ वाक्य के भाव भी गर्भित होते हैं, जिन्हे पृथक रूप में कथन की आवष्यकता नहीं। जीवन के लिए श्वास लेना आवष्यक है, इस वाक्य में विष्वास होने का भाव भी निहित है। यह बोध कराते हुए आचार्य श्री ने कहा कि अमरकण्टक में प्रदूषण रहित वायु प्रचुरता में है जिसे प्राण वायु भी कहते हैं। प्राणवायु भर लीजिए किन्तु कितनी भर पायेंगे। जब तक अंदर की वायु बाहर नहीं होगी क्या भरना संभव है। प्राण वायु तो उपलब्ध है किन्तु अन्दर की वायु बाहर नहीं निकली तो प्राणवायु भी प्राणों को संकट में डाल देगी। श्वास के पूर्व निष्वास होना अनिवार्य है, रिक्त होगा तब ही भरना संभव है। दोषों से रिक्त होने पर ही सद्गुण भरे जा सकते हैं। प्राण वायु का भी आवष्यकता से अधिक संग्रहण नहीं किया जा सकता। संग्रही प्रवृŸिा हिंसा है। परिग्रह भाव साथ अहिंसा संभव नहीं यह समझाते हुए कहा कि संग्रही असत्य भी बोलेगा, चोरी भी करेगा और वासना से पीडि़त होकर ब्रह्मचर्य खण्डित करेगा। आवष्यकता से अधिक पाने की चाह पथ भ्रष्ट कर देती है इसीलिये संयत वही है जिसने संग्रह का त्याग कर दिया। साधु वस्त्र त्याग देते हैं तात्पर्य है समस्त संग्रह छूट चुके हैं, काया से भी मोह नहीं। काया से निर्मोही केष लोंच करता है, अपना केष अपने कर से लोंच कर पृथक करता है पर से कोई सरोकार नहीं। छोटी चाबी से वृहद् आकार का ताला भी खुल जाता है, संयम की चाबी हमारे हाथ में हैं अब किसी भी ताला की कोई चिन्ता नहीं। गाथा एक ताला है तथा सूत्र चाबी है, इसीलिये सूत्र से किसी भी गाथा का ताला खुल जाता है।


मन के हारे हार है, मन के जीते जीत  – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी  (दिनांक – 21-4-2013)

सन्त षिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने रमणीक स्थल अमरकण्टक में संस्कृति और विकृति के मध्य भेद का बोध कराते हुए कहा कि विकृति की उपासना कर मानव मन भटक रहा है। संस्कृति की उपासना कर मानव महामानव बन गया। मानव से महामानव बनने का क्रम विष्वास – आस्था से आरंभ होता है। प्रयोग की महŸाा बताते हुए कहा कि खोज इसके आधार पर ही होती है।

दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने बताया कि अठारह दोषों से रहित आत्मा ही भगवान है। आस्था और विष्वास के बल पर प्रयोग किया, साधना कर दोष मुक्त होकर मुक्ति को प्राप्त कर लिया। जीवन के लिए श्वास पर विष्वास रखना ही होता है । विष्वास की शक्ति से रोगी रोग से मुक्त हो जाता है उसे औषधि से उपचार की आवष्यकता नहीं है। विष्वास का अभाव हो तो बचाओ – बचाओ के स्वर गुंजने लगते हैं। यह विचार करो स्वर की शक्ति कहाँ से आयी, यह विष्वास है कि स्वर सुनकर कोई रक्षा करेगा। इसी प्रकार यह विष्वास रखो कि कोई आत्मा का बाल बांका नहीं कर सकता। मौत से निडर रहने वाला ही विष का स्वाद बता सकता है। आहार को औषधि की भांति प्रयोग करने वाला सदैव निरोग रहता है यह समझाते हुये आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि विषय रोगी की राषि चिकित्सक के कोष में समाती रहती है। सन्तुलन के महत्व को सहज रूप से दर्षाते हुए कहा कि आहार को पचाने वाला रसायन यदि अधिक मात्रा में हो तो इस रसायन को पचाने के लिए भी उपचार किया जाता है औषधि लेते हैं अन्यथा वमन क्रिया हो जाएगी। आत्मानूभूति रखने वाला ब्रह्मवेŸाा आत्म स्वरूप को जानता है। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इन पंक्तियों के माध्यम से बताया कि इस पर दृढ़प्रतिज्ञ जीवन पर्यन्त विकार से बच जाते हैं। बाहरी हवा से आत्मा की रक्षा का नाम गुप्ती है। आचार्य श्री ने कहा कि लक्ष्मी की आरती उतारने वालो, समय है सरस्वती की उपेक्षा मत करो।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि थल में जितना भार होता है वह नभ में नहीं रहता, भार हीन हो जाता है तथा जल में भी भार कम हो जाता है, क्या है वास्तविक भार ? विज्ञान की इस पहेली को दर्षन के माध्यम से स्पष्ट करते हुए कहा कि आत्मा भार रहित है, मोह कि काया का भार है, मोह का आवरण छूटते ही ऊध्र्व यात्रा आरंभ हो जाती है। आचार्य श्री ने सचेत करते हुए कहा कि भारत में औषधि व सर्जरी ज्ञान  पूर्व काल से पारंगत था, भारत में इस ज्ञान का अभाव मानने वालो को इतिहास का ज्ञान नहीं। मोह वष ऋद्धि – सिद्धि कम हो गई। धन संचय के कारण हाथ से यष कम हो गया। स्वास्थ्य सेवा न होकर व्यापार हो गया इसीलिए पूर्वजों से प्राप्त पूर्व काल के ज्ञान का अभाव हुआ। लोभ वह विष है जो निरंतर डस रहा है। लोभ बचा रहे हो पचा नहीं रहे, लोभ पच जायेगा प्राचीन यष पुनः हाथ में आ जाएगा। आचार्य श्री ने बताया की आत्मा अमूर्त है इसीलिए देखो मगर राग द्वेष से मत देखो। बोलो मगर सत्य वचन बोलो, असत्य मत बोलो। इन्द्रिय विजेता को शीघ््रा सिद्धि प्राप्त हो जाती है, विकृति के कारण न तो योग हो पाता है न हि सिद्धि मिलती, आकाष को देखो वह निर्विकार है निज पर दृष्टि डालो पर में मत उलझो।


‘‘शब्द भी होते हैं विस्फोटक’’ – आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी (दिनांक – 31-3-2013)

अमरकण्टक में विराजमान सन्त षिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि स्व प्रषंसा, पर आलोचना ध्यान में नहीं लाना एक साधना है। वचनों की व्याख्या करते हुए बताया कि वचन से विस्फोट हो जाता है, अप्रिय वचन अर्पित वचन नहीं है। परस्पर आरोप प्रत्यारोप में व्यस्त पक्ष विपक्ष से राष्ट्रीय पक्ष पीछे रह जाता है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने षिष्य, साधकों एवं श्रोताओं को समझाते हुए कहा कि कौन से वचन कथनीय है कौन से नहीं, वचन व्यक्त करने के पूर्व विचार कर लेना चाहिए। अपने कथन पर ध्यान नहीं पर कथन की समीक्षा कर रहें हैं। कठोर वचन सुनकर विचार करते हैं कि वह क्रोध शेष में दोष कर रहा है, आवेष का आवेग है। ज्ञानी आवेष के आवेग में नहीं आता। संसार में दोषों के उन्मूलन की व्यवस्था है। आचार्यों से पुराण ग्रन्थों से ज्ञान हो जाता है। संसारी प्राणी संयम के अभाव में आवेषित होकर कठोर व अप्रिय वचनों का उपयोग करता है किन्तु मोक्ष मार्ग का साधक प्रत्येक अवस्था में व्यवस्थित रहता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि आवेग पर नियंत्रण रखने का पुरूषार्थ करें। विस्फोटक पदार्थों में अग्नि के सम्पर्क से भयंकर विस्फोट हो जाता है। ऐसे ही क्रोध के आवेग में कठोर वचनों से भी स्थिति विस्फोटक हो जाती है। हिंसा उत्पन्न करने वाले वचनों का प्रयोग मत करो। संयम धारण करने वाला विस्फोट से स्वयं की रक्षा करने के साथ – साथ अन्य को भी बचा लेता है। यही मोक्षमार्ग है।

सरल शब्द नरम होकर भीतर तक प्रभाव डालते हैं, शब्दों के प्रभाव को समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि महान तपस्वी स्वयं के दोष देखता है, कोई सुने या न सुने, स्वयं सुनता है एवं प्रायष्चित करता है। दूसरे के गुस्से को पियो और पचाओ। सामने वाला उबाल में और दूसरा उससे अधिक उबल जाता है। ईंट का जवाब पत्थर से देने की योजना बनाते हैं, इससे स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती है। दो युद्ध हो चुके यदि तीसरा हुआ तो सब समाप्त हो जाएगा तब चैथा तो पाषाण युद्ध ही होगा। संयम और शीतलता ही शांति की धारा है यह बताते हुए कहा कि साबुन से नहीं जल से ही निर्मलता आती है। आचार्य श्री ने कहा कि प्रष्न को उपयुक्त बनाओ तब ही सार्थक उŸार मिलेगा। निरर्थक प्रष्न स्वयं प्रष्न वाचक है! हित की विवक्षा में कदाचित कभी अप्रिय वचन की आवष्यकता एक विरेचन की भांति की जा सकती है जिसमें पर का अहित हो ऐसा प्रिय वचन वर्जित है। विरेचन क्रिया का एक सुनिर्धारित क्रम है ऐसा ही क्रम वचनों के प्रयोग के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है। स्वयं की प्रषंसा पर की आलोचना संसार की बीमारी है यह असंयम की पहचान है। निष्ठुर वचन से तोबा करने की सीख देते हुए कहा कि अधिक बोलना दण्डनीय होता है, अभिव्यक्ति आवष्यकतानुसार अल्प शब्दों से की जाती है। ऐसे वचनों का प्रयोग हो जिससे पर दोष भी दूर हो जाए।

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