आषाढ़ सुदी ५ वि.सं. २०२५, तदनुसार ३० जून ६८ का दिन। शहर अमजेर। स्थान सोनीजी की नसिया। सूर्य की प्रथम किरण नृत्य कर रही है। अभी-अभी बाल अरुण ने नेत्र खोले हैं। मठ, मढ़िया, मंदिर, नसिया, चैत्यालय मुस्करा रहे हैं। उनके गर्भ से गूँजती पीतल के घंटों की आवाजें कोई संदेश बार-बार दोहरा रही हैं। देवालयों के बाहरी तरफ कहीं सिंहपौर के समीप श्यामपट्ट पर खड़िया से लिखा गया समाचार आज भी चमक रहा है। जिसे कल सारा नगर पढ़ चुका था, उसे आज फिर वे ही लोग पढ़ रहे हैं। कुछ स्थानों पर हार्डबोर्ड पर लिखकर टाँगा गया है। वही समाचार। नगर के समस्त दैनिकों ने समाचार छापकर अपना विनम्र प्रणाम ज्ञापित किया है योगियों के चरणों में। कुछ प्रमुख अखबार ब्रह्मचारी विद्याधर का चित्र भी छाप पाने में सफल हो गए हैं। अनपढ़ों से लेकर पढ़े-लिखे तक समाचार सुन-पढ़कर चले आ रहे हैं नसिया के प्रांगण में। धनिक आ रहे हैं। मनीषी आ रहे हैं। हर खास आ रहा है। हर आम आ रहा है। कर्मचारी-अधिकारी एक साथ आ रहे हैं। परिवारों के झुण्ड समाते जा रहे हैं पांडाल में। नारियों का उत्साह देखने लायक है, वे अपनी अति बूढ़ी सासों तक को साथ में लाई हैं। बच्चों का जमघट हो गया है। सभी के कान माइक से आती आवाजों पर बार-बार चले जाते हैं। पूर्व घोषणा के अनुसार आज परम पूज्य गुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज अपने परम मेधावी, परम-तपस्वी शिष्य, युवा योगी, ब्रह्मचारी श्री विद्याधरजी को जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान करेंगे। बोलिए-गुरु ज्ञानसागर की —जय। बोलिए- युवा तपस्वी ब्रह्मचारी विद्याधर की —जय।
सोनीजी की नसिया के प्रांगण में भगवान महावीर के समवशरण जैसा दृश्य बन गया है। मंच लंबा-चौड़ा है, ऊँचा है। मंच के सामने जनसमुदाय है। जनसमुदाय के समक्ष मंच पर एक ऊँचे सिंहासन पर गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी विराजित हैं, साथ ही क्षुल्लकश्री सन्मतिसागरजी, क्षुल्लकश्री संभवसागरजी, क्षुल्लकश्री सुखसागरजी एवं संघस्थ अन्य ब्रह्मचारी भी आसीन हैं।
उनके कुछ ही दूरी पर ब्र. विद्याधर बैठे हैं। समीप ही शहर के श्रेष्ठी विद्वान, गुणीजन बैठे हैं। सर सेठ भागचंद सोनी, प्राचार्य निहालचंद जैन, श्री मूलचंद लुहाड़िया, श्री दीपचंद पाटनी एवं श्री कजौड़ीमल सरावगी को दूर से ही पहचाना जा सकता है।
दीक्षा समारोह प्रारंभ
दीक्षा समारोह प्रारंभ होता है। ब्र. विद्याधर खड़े होकर गुरुवर की वंदना करते हैं, हाथ जोड़कर दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं। गुरुवर का आदेश पाकर विद्याधर वैराग्यमयी, सारगर्भित वचनों से जनता को उद्बोधन देते हैं तदुपरान्त विद्याधर ने हवा में उड़ने वाले केशों का लुन्चा करना प्रारंभ कर दिया। अपनी ही मुष्टिका में सिर से इतने सारे बाल खींच ले जाते कि देखने वाले आह भर पड़ते हैं। फिर दूसरी मुष्टिका। तीसरी। फिर सिर के बाल निकालते हुए कुछ स्थानों से रक्त निकल आया है। विद्याधर के चेहरे पर आनंद खेल रहा है। हाथ आ गए दाढ़ी पर। दाढ़ी की खिंचाई और अधिक कष्टकारी होती है। वे दाढ़ी के बाल भी उसी नैर्मम्य से खींचते हैं। हाथ चलता जाता है, बाल निकलते जाते हैं, पूरा चेहरा लहूलुहान हो गया है। श्रावक सफेद वस्त्र ले उनकी तरफ दौड़ पड़ते हैं। वे अपने चेहरे को छूने नहीं देते। बाल खींचते जाते हैं। रक्त बहता जा रहा है। विद्याधर जहाँ के तहाँ / अविचलित खुश हैं। आनन्दमय हैं। केश लुन्च पूर्ण होते ही पंडितों-श्रावकों और अपार जनसमूह के समक्ष गुरु ज्ञानसागरजी संस्कारित कर उन्हें दीक्षा प्रदान करते हैं। विद्याधर वस्त्र छोड़ देते हैं दिगम्बरत्व धारण कर लेते हैं। तभी एक आश्चर्यकारी घटना घटी। राजस्थान की जून माह की गर्मी और खचाखच भरे पांडाल में २०-२५ हजार नर-नारी। समूचे प्रक्षेत्र पर तेज उमस हावी थी। लोग पसीने से नहा रहे थे। वातावरण ही जैसे भट्टी हो गया हो। जैसे ही विद्याधर ने वस्त्र छोड़े, पता नहीं कैसे कहाँ से बादल आ गए और पानी की भीनी-भीनी बौछार होने लगी, हवाएँ ठंडी हो पड़ी, वातास शांति एवं ठंडक अनुभव करने लगा। ऐसा लगा कि प्रकृति साक्षात् गोमटेश्वरी दिगम्बर मुद्रा का महामस्तकाभिषेक कर कर रही हो अथवा देवों सहित इन्द्र ने ही आकर प्रथम अभिषेक का लाभ लिया हो। कुछ समय बाद पानी रुक गया। सूर्य ने पुनः किरणें बिखेर दीं। सभी दंग रह गए, कहने लगे यह तो महान पुण्यशाली विद्यासागरजी की ही महिमा है। सभी अपने-अपने मनगढ़ंत भाव लगाकर विद्याधर के पुण्य का बखान कर रहे थे। वहीं छोटे बालक कह रहे थे विद्याधर ने जैसे ही धोती खोली वैसे ही इन्द्र का आसन काँप गया सो उसने खुशी जताने के लिए नाच-नाचकर यह वर्षा की है। ज्ञानसागरजी पिच्छी कमण्डल सौंपते हैं और मुनिपद को संबंधित निर्देश देते हैं। दीक्षा संपन्न।
आचार्यश्री विद्यासागरजी के संयमित जीवन के आचार्यश्री शांतिसागरजी और आचार्यश्री ज्ञानसागरजी, दो स्वर्णिम तट हैं। एक ने उनके जीवन में धर्म का बीज बोया तो दूसरे ने उसे पुष्पित/पल्लवित कर वृक्ष का आकार प्रदान किया। आचार्यश्री शांतिसागरजी की सारस्वत आचार्य परम्परा में आचार्य शिवसागरजी के उपरान्त जब आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी ने श्रमण संस्कृति धर्म एवं समाज को उत्कर्ष तक पहुँचाने के उद्देश्य से अपने ही द्वारा शिक्षित/दीक्षित मुनि विद्यासागर को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो विद्यासागरजी अवाक् रह गए और अपनी असमर्थता जाहिर की।
आचार्य महाराज ने कुछ सोचकर कहा कि ‘देखो अंतिम समय आचार्य को अपने पद से मुक्त होकर, अन्य किसी संघ की शरण में, सल्लेखनापूर्वक देह का परित्याग करना चाहिए। यही संयम की उपलब्धि है और यही आगम की आज्ञा भी है। अब मैं इतना समर्थ नहीं हूँ कि अन्यत्र किसी योग्य आचार्य की शरण में पहुँच सकूँ, सो मेरे आत्मकल्याण में तुम सहायक बनो और आचार्य-पद संभालकर मेरी सल्लेखना कराओ। यही मेरी भावना है।’
विद्यासागरजी को गुरुदक्षिणा के रूप में आचार्य पद ग्रहण करने की स्वीकृति अपने गुरु को देना ही पड़ी।
acharya shree ke charno me barambar namostu.
Acharyaji bhagwan hai
Today Acharyasri is a Sakshat Arihant Parmesthi. I have seen SIDHATVA in him. Wey Bhagwan ki Murti Hai
jai jinendra, i see this web site 1st time n i think every body should know abt acharyashree ,boz
humne bhagvan ko nahin dekha but hum is dharti par acharyashree ko dekh kar sakshat bhagvan ka darshan kar sakte hain.acharyashree ko bar bar namostu..namostu..namostu.
05 July ko acharyashri ke 44th Muni diksha divas par hum sabhi ka Namostu….. Namostu … Namostu Aap sabhi dongergarh amantrit hey.