संकलन:
श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ
पहला सुख निरोगी काया।
दूसरा सुख घर में माया।
तीसरा सुख सुत आज्ञाकारी।
चौथा सुख मृदुभाषिणी नारी।
पाँचवा सुख सदन हो घर का।
छट्ठा सुख न कर्जा हो पर का।
सातवाँ सुख चले व्यापार।
आठवाँ सुख सबको प्यार।
नौवाँ सुख निराकुलता हो मन में।
दसवाँ सुख न बैर विरोध स्वजन में।
ग्यारहवाँ सुख मन लागे धरम में।
बारहवाँ सुख न फंसे कुकर्म में।
तेरहवाँ सुख हो साधु समागम।
चौदहवाँ सुख यर्मज्ञ जिनागम।
पन्द्रहवाँ सुख जैन शीलवृत धारी।
सोलहवाँ सुख अरिहंत के पुजारी।
“ये सब काय बने ग्रह त्यागी, धन्य व नर – अव
नारी, इस भाव साधू संत कहवे परभव सुरग मुक्ति पद पावे।
नर भव सकुले जिनवाणी, बार – बार नहीं पोवं प्रराणी।
ताते मक्खन धर्म कमाओ, बार – बार नरतन पावे।“
देर किस बात की, जयकारा बोलिये जय जिनेन्द्र…