संकलन:
श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ
चार पुरुषार्थ बताये गये हैं जो गृहस्थ जीवन के आधार स्तम्भ हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चार पुरुषार्थों में धर्म को हम अपने जीवन के मन्दिर की नींव समझें, मोक्ष को उसका शिखर और बीच की जो स्थिति है वह अर्थ और काम मय है। गृहस्थ का जीवन अर्थ और काम के बिना नहीं चल सकता। उसकी मजबूरी होती है, उसकी सीमाएँ होती हैं। वह अर्थ और काम का आश्रय तो लेता है लेकिन धर्म के नियंत्रण में। धर्म के नियंत्रण में अर्थ और काम का आश्रय लेकर वह आगे बढता है और मोक्ष को हमेशा अपना लक्ष्य बना कर के चलता है। इसलिये गृहस्थ धर्म, अर्थ और काम के मध्य सम्यक संतुलन स्थापित करके अपने जीवन को गति देता है, अपनी दिशा निर्धारित करता है। आज इसी चर्चा को आगे बढाते हुए कहा गया है कि गृहस्थ को धर्म, अर्थ और काम जिसे त्रिवर्ग भी कहा जाता है, इसकी सिद्धि के लिये योग्य गृहणी से जुडने की आवश्यकता रहती है। गृहस्थ के लिये तो सीधा-सीधा कहा गया है, “न गृहं गृहमित्याहु गृहणी गृह मुच्यते” ईंट-गारे का मकान घर नहीं कहलाता, घर तो वह है जो गृहणी से जुडा हुआ है, जिसमें गृहणी है, गृहस्थ जब गृहणी से जुडता है तब गृहस्थ कहलाता है, और गृहणी से जुडने के बाद ही वह त्रिवर्ग के योग्य बनता है तभी वह धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ की सिद्धि कर पाता है।
गृहणी से जुडने के लिये गृहस्थ को विवाह करना पडता है, विवाह के सूत्र में बँधना पडता है। हमारे संतों का एक ही कहना है या तो तुम साधना के मार्ग में उतरो, साधु-जीवन बिताओ या फिर गृहस्थ जीवन को स्वीकार करो। तीसरा कोई मार्ग नहीं। या तो तुम ब्रह्मचर्य की साधना करो या स्वदार संतोष व्रत को धारण करो, एक पत्नीव्रत का पालन करते हुए सामाजिक मर्यादाओं को अक्षुण्ण बनाओ। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। इसलिये भारतीय संस्कृति में गृहस्थ को विवाह के सूत्र में बाँधकर एक मर्यादित जीवन जीने का उपदेश तो दिया गया है, लेकिन वह बिना विवाह के मर्यादाहीन पाश्विक वृत्ति का जीवन जीने की कोई इजाजत नहीं दी गयी। और विवाह जैसी निर्मल परम्परा भारतीय संस्कृति में दी गयी। विवाह को बहुत अच्छा सामाजिक अनुष्ठान कहा गया है। सब प्रकार की नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं का पालन करने का आधार बताया गया है। विवाह को संतों ने पवित्र संस्कार माना है।
जैन ग्रंथों में विवाह के तीन उद्देश्य बताये गये हैं:
- धर्म सम्पत्ति
- प्रजा उत्पत्ति
- रति
इन्हें पढकर मैं बिल्कुल आश्चर्य में पड गया कि कहाँ तो कहते हैं कि गृहस्थी में फँसनेवाला धर्मभ्रष्ट हो जाता है। वह धर्म नहीं कर सकता, साधना के मार्ग में नहीं बढ सकता, जंजाल में फँस गया। और यहाँ पहला उद्देश्य बताया जा रहा है “धर्म सम्पत्ति” विवाह के बाद धर्म सम्पत्ति कैसी। और रति को तो एकदम अंत में ले जाकर रखा है। यही तो हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता है। वह भोग और विलासिता की संस्कृति नहीं है, भारत की संस्कृति तो त्याग और संयम है, योग, साधना है। हमेशा भोग से योग की ओर बढने की शिक्षा और प्रेरणा भारतीय वसुन्धरा में दी गयी है, इसलिये रति को सबसे अंत में रखा गया है और सबसे पहले धर्म को।
दूसरा है प्रजा उत्पत्ति-वंश परम्परा के संचालन के लिये। संतान के क्रम के विकास के लिये विवाह किया जाता है। अगर कोई विवाह न करे तो वंश परम्परा नहीं चल सकती और हर व्यक्ति में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि व्ह ब्रह्मचर्य का पालन कर सके तो आवश्यक है कि वंश चलाने के लिये विवाह हो।
विवाह किससे करें? “समशील कृतद्वोहान्यत्र गोत्रजैः” समान कुल और समान शील होना चाहिये। जब कभी किसी से किसी का विवाह हो रहा है उसमें अगर समानता नहीं हो तो मित्रता नहीं होगी, प्रेम नहीं होगा, प्रेम नहीं होगा तो सामंजस्य नहीं होगा, सामंजस्य नहीं होगा तो जीवन कभी सुखी नहीं होगा। सामंजस्य स्थापित करने के लिये दो बातें हैं परस्पर विश्वास और समानता। परस्पर विश्वास हो तो प्रेम स्थापित हो सकता है, समानता हो तो दो हृदय आपस में जुड सकते हैं। और यह नहीं है तो दोनों में जुडाव नहीं होगा। कोई कन्या अगर भिन्न कुल में चली जाती है, जहाँ के रीति-रिवाज, रहन-सहन और आचार-विचार से बिलकुल अपरिचित और अनभिज्ञ है, तो वहाँ वह अपने आप को एडजस्ट नहीं कर सकेगी, अपने जीवन को चला नहीं पायेगी। भिन्न कुल में जाने के बाद अपने मन को प्रसन्न नहीं रख सकेगी। न पत्नी को प्रसन्नता होगी, न पति को प्रसन्नता होगी, न सास-ससुर को, न परिवार के किसी व्यक्ति को प्रसन्नता होगी।
इसके साथ दूसरी बात कही कि कुल की समानता हो, अन्य गोत्र से हो। आज का विज्ञान भी यह बात कहता है। विज्ञान भी कहता है कि सगोत्री से विवाह करेंगे तो संतान उत्तम उत्पन्न नहीं होगी। अन्य गोत्री से करेंगे तो संतान उत्तम उत्पन्न होगी। इसके साथ-साथ शील की समानता होनी चाहिये, वैचारिक समानता होनी चाहिये। अगर वैचारिक समानता नहीं होती तो गडबड हो जाता है। एक धार्मिक परिवार में पली-पुसी लडकी, जिसकी धार्मिक विचारधारा हो, और एकदम आधुनिक विचारधारा वाले किसी अधिकारी के बेटे से उसकी शादी कर दी जाये तो वह जीवन भर दुःखी होती है क्योंकि उसे वैसा वातावरण नहीं मिलता, सब तरह से बाध्य होना पडता है।
इसलिये कहते हैं समानता में ही मैत्री होती है। “समानशीलव्यसनेसु सख्यं” समान शील और समान रुचि में ही मित्रता होती है। मित्रता का आधार जहाँ एक सी विचारधारा हो, जहाँ एक सा आचार हो, जहाँ एक सी सोच हो और परस्पर में दोनों के प्रति सम्मान हो वहाँ मित्रता है। इस चीज का ध्यान रखा जाता है। एक लडकी अगर दूसरे घर में जाती है, जैसे ही शादी होती है, वह पराई हो जाती है, और पराये घर में तो सबकुछ नया होता है। वहाँ एडजस्ट करने के लिये उसे आत्मीयता मिलनी चाहिये और वह आत्मीयता तभी मिलेगी जब वैचारिक समानता होगी, जब धार्मिक समानता होगी, तब वह आत्मीयता उपलब्ध होगी, और ऐसी समानता नहीं होती तो वह आत्मीयता नहीं होती, और अपने ही घर में बेटी पराई हो जाती है। एक विचारक ने बडी अच्छी बात कही है, उन्होनें कहा कि “कन्या के पाँच रूप होते हैं, जिसमें एक उसके पिता के गृह से संबन्धित रहता है और चार उसके पति के गृह से संबन्धित रहते हैं”। पहला रूप कन्या का है। दूसरा रूप वधु का है, जब शादी होती है। तीसरा रूप है भार्या का-वधू बनते ही वह पूरे कुटुम्ब का भरण पोषण करती है इसलिये भार्या कहलाती है। चौथा रूप है जननी का, जब वह संतान को उत्पन्न करती है तो वह जननी कहलाती है। और जैसे ही संतान को उत्पन्न करती है तो वह माता कहलाने लगती है।
कन्या, वधू, भार्या, जननी और माता ये एक स्त्री के पाँच रूप हैं। जिसमें एक रूप पिता के घर में और चार रूप पति के घर में रहते हैं। अगर कोई स्त्री अपने पति के घर में आई है, तो यहाँ उसको चार रूपों का पालन करना पडता है, तो उसे ऐसा वातावरण बनाने के लिये हमें इन सब बातों का पहले से ही विचार करना चाहिये। हमेशा कुल और शील की समानता में ही विवाह करना चाहिये।
जीवन भर प्रेम आत्मीयता, यह भारतीय संस्कृति है। इसका अनुपालन व्यक्ति को करना चाहिये, अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण रखकर के चलना चाहिये। जीवन सिर्फ भोग और विलासिता के लिये नहीं मिला है, ये जीवन को त्याग और संयम के मार्ग पर आगे बढने के लिये मिला है। हम अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकते हैं। यह हमारे यहाँ विवाह की पद्धति है, धर्म विवाह ही सबसे मान्य विवाह है।
शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाह बताये गये हैं-
- ब्रह्म विवाह
- प्रजापत्य विवाह
- आर्ष विवाह
- देव विवाह
- आसुरी विवाह
- पैशाचिक विवाह
- गन्धर्व विवाह और
- राक्षस विवाह
ऐसे आठ प्रकार के विवाह बतलाए। जिसमें ब्रह्म विवाह- वह विवाह कहलाता है जहाँ माता-पिता अपनी इच्छा से योग्य वर को अपनी कन्या का दान करते हैं और उनके लिये उपहार स्वरूप सामग्री आदि भी दिया करते हैं। प्रजापत्य विवाह कहलाता है- जहाँ संभ्रांत व्यक्ति को अपनी बेटी देते हैं। देव विवाह- पुराने समय में जब बडे-बडे यज्ञ होते थे तो यज्ञकर्मियों को यज्ञकर्ता अपनी कन्यायें दे दिया करते थे। आर्ष विवाह, वह विवाह कहलाता है जो आज विवाह की पद्धति है, जिसमें अग्नि को साक्षी मानकर उसके फेरे लगते हैं, वह आर्ष विवाह कहलाता है। लेकिन आसुरी विवाह और इसके आगे के जो विवाह हैं वह योग्य विवाह नहीं हैं। जिस विवाह में लेन-देन को लेकर झगडे होते हैं उस विवाह को आसुरी विवाह कहते हैं, क्योंकि उनके ऊपर आसुरी वृत्ति हावी हो जाती है। आजकल ऐसे ही विवाह हो रहे हैं क्योंकि व्यक्ति के अन्दर आज मनुष्य नहीं रहा, उसके ऊपर असुर और पिशाच की छाया पड गयी है। वह पिशाच और कोई नहीं धन का पिशाच है जिसने मनुष्य की आत्मा को पूरी तरह जकड लिया है। राक्षसी विवाह- जिसमें किसी का अपहरण करके विवाह किया जाता है उसे राक्षसी विवाह कहा गया है।
विवाह मात्र आवश्यक नहीं है। बिना विवाह के भी जीवन चलता है। फिर भी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था में अशांति तथा स्वच्छता उत्पन्न न हो उसके लिये स्वजातीय विवाह लाभदायक है।
उच्छृंखलता व वासना के कारण जो विवाह होते हैं वे तीव्रकषाय के वशीभूत होकर होते हैं। अंतरजातीय विवाह अशांति के कारण बनते हैं। इसलिये समाज को सदाचार एवं अनुशासनबद्ध चलाने के लिये विवाह संस्कार में इनका ध्यान रखना चाहिये कि स्वजातीय वर न मिलने से दूसरा धर्म मानने वाले ले यहाँ लडकी देते है उसके साथ-साथ अपना धर्म, धन, कुल, आचारण आदि सभी उस लडकी के साथ चले जाते हैं। तथा धर्म की हानि होती है।