संकलन:
श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ
ऐहिक तथा पार्लौकिक सुख की प्राप्ति के लिये धर्म आवश्यक है और धर्म साधन के लिये शरीर की रक्षा करना, उसे स्वस्थ और शक्तिशाली बनाये रखना परम आवश्यक है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिस्क रहता है। शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की सिद्धि कर सकता है। वही विपुल वैभव को प्राप्त कर सांसारिक सुखों का भोग कर सकता है और वही अपने सर्वोत्तम लक्ष्य की प्राप्ति के कारणभूत उत्तम संयम का पालन भी कर सकता है। इसीलिये मनीषियों ने कहा है, “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं”। आगम के अनुसार उत्तम संयम के धारी महापुरुष ही मोक्षगामी हुए हैं, क्योंकि वे ही उत्तम ध्यान के धारी हो सकते हैं।
मनुष्य को स्वस्थ रहने, सुख से जीने तथा शक्ति प्राप्त करने के लिये जल एवं वायु के अतिरिक्त भोजन की आवश्यकता होती है। किंतु भोजन का उद्देश्य केवल उदरपूर्ति, स्वास्थ्य प्राप्ति तथा स्वाद की तृप्ति ही नहीं है, अपितु मानसिक और चारित्रिक विकास करना भी है। आहार का हमारे आचार विचार और व्यवहार से घनिष्ठ सम्बन्ध है। कहा गया है –
जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन
जैसा पीवे पानी वैसी होवे वाणी
मनुष्य की भोजन के प्रति रुचि को देख कर उसके चरित्र और आचरण की पहचान की जा सकती है। यही नहीं, उसके चरित्र और आचरण को देख कर उसके भोजन की जानकारी भी की जा सकती है। अतः हमारा भोजन ऐसा होना चाहिये जो हमारे शारीरिक, मानसिक, सामजिक तथा आध्यात्मिक विकास में सहायक हो सके, जो हमारे अन्दर स्नेह, प्रेम, दया, क्षमा, ममता, सहिष्णुता, परदुःख कातरता आदि कोमल भावों को जगा सके।
शरीर को शक्तिशाली तथा हृष्ट पुष्ट बनाये रखने के लिये हमारा भोजन ऐसा होना चाहिये, जिसमें उचित मात्रा में प्रोटीन, शर्करा, विटामिंस, खनिज, वसा आदि हो, जिनसे शरीर में रोगों की प्रतिरोधक क्षमता बनी रहे तथा जो व्यर्थ के मल आदि हानिकारक तत्वों को शरीर से बाहर निकालने में सहायक हो। रोग उत्पन्न करने वाले स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाले तथा उत्तेजना को बढाने वाले तत्वों से युक्त भोजन कभी नहीं करना चाहिये। क्योंकि ऐसा भोजन हमारे मानसिक संतुलन को बिगाडकर हमें उच्छृंखल बनाता है और हम आवेगवश उचित अनुचित कुछ भी करने को तत्पर हो जाते हैं।