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सुशीलता

संकलन : प्रो. जगरूपसहाय जैन
सम्पादन : प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन

निरतिचार शब्द बडे मार्के का शब्द है। व्रत के पालन में कोई गडबड न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी छाप पडती है कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस व्रत और व्रती के सम्पर्क में आ जाते हैं, वे भी तिर जाते हैं।

शील से अभिप्राय स्वाभाव से है। स्वभाव की उपलब्धि के लिये निरतिचार व्रत का पालन करना ही ‘शीलव्रतेष्वनतिचार’ कहलाता है। व्रत से अभिप्राय नियम, कानून अथवा अनुशासन से है। जिस जीवन में अनुशासन का आभाव है वह जीवन निर्बल है। निरतिचार व्रत पालन से एक अद्भुत बल की प्राप्ति जीवन में होती है। निरतिचार का मतलब ही है जीवन अस्त व्यस्त न हो, शांत और सबल हो।

रावण के विषय में विख्यात है कि वह दुराचारी था किंतु वह अपने जीवन में एक प्रतिज्ञा से आबद्ध था। उसका व्रत था कि वह किसी नारी का बलात्कार नहीं करेगा, उसकी इच्छा के विरुद्ध नहीं भोगेगा यही कारण था वह सीता को हरण कर तो ले आया था किंतु उसका शील भंग नहीं कर पाया। इसका कारण केवल उसका व्रत था, उसकी प्रतिज्ञा थी। यद्यपि यह सही है कि सीताजी के साथ बलात्कार का प्रयास भी करता तो भस्मसात हो जाता किंतु ऐसा करने से उसकी प्रतिज्ञा ने उसे रोक लिया।

निरतिचार शब्द बडे मार्के का शब्द है। व्रत के पालन में कोई गडबड न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी छाप पडती है कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस व्रत और व्रती के सम्पर्क में आ जाते हैं, वे भी पप्रभाविर हुए बिना नहीं रह सकते। जैसे कस्तूरी को अपनी सुगन्ध के लिये किसी तरह की प्रतिज्ञा नहीं लरनी पडती, उसकी सुगन्ध स्वतः चारों ओर व्याप्त हो जाती है, वैसी ही इस व्रत की महिमा है।

‘अतिचार’ और ‘अनाचार’ में भी बडा अंतर है। ‘अतिचार’ व्रतों मे लगने वाले दोष को कहते हैं। ‘अतिचार’ दोष लगाया नहीं जाता, प्रमादवश लग जाता है। किंतु अनाचार तो सम्पूर्ण व्रत को विनष्ट करने की क्रिया है। मुनिराज निरतिचार व्रत के पालने में पूर्ण सचेष्ट रहते हैं। जैसे कई चुंगी चौकियाँ पार कर गाडी यथास्थान पहुँच जाती है उसी प्रकार मुनिराज को भी बत्तीस अंतराय टाल कर निर्दोष आहार और अन्य उपकरण आदि ग्रहण करने पडते हैं।

निरतिविचार व्रत की महिमा अद्भुत है। एक भिक्षुक था। झोली ले कर एक द्वार पर रोटी मांगने पहुँचा। रूखा जवाब मिलने पर भी नाराज नहीं हुआ बल्कि आगे चला गया। एक थानेदार को उसपर तरस आ गया और उस भिक्षुक को रोटी देने के लिये बुलाया। पर भिक्षुक थोडा आगे जा चुका था इसलिये उसने अपने नौकर को रोटी देने भेज दिया। “मैं रिश्वत का अन्न नहीं खाता भैया!” ऐसा कह कर भिक्षुक आगे बढ गया। नौकर ने वापस आकर थानेदार को भिक्षुक द्वारा कही गयी बातें सुना दी और वे शब्द उस थानेदार के मन में गहरे उतर गयी। उसने सदा-सदा के लिये रिश्वत लेना छोड दिया। भिक्षुक की प्रतिज्ञा ने, उसके निर्दोष व्रत ने थानेदार की जिन्दगी सुधार दी। जो लोग गलत तरीके से रुपये कमाते हैं, वे दान देने में अधिक उदारता दिखाते हैं। वे सोंचते हैं कि इस तरह थोडा धर्म इकट्ठा कर लिया जाये, किंतु धर्म ऐसे ही नहीं मिलता। धर्म तो अपने श्रम से निर्दोष रोटी कमाकर दान देने में ही है।

अंग्रेजी में कहावत है कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं जीता, उससे भी ऊँचा एक जीवन है जो व्रत साधना से उसे प्राप्त हो सकता है। आज हम मात्र शरीर के भरण-पोषण में लगे हैं। व्रत, नियम और अनुशासन के प्रति भी हमारी रुचि होनी चाहिये। अनुशासन विहीन व्यक्ति सबसे गया-बीता व्यक्ति है। अरे भैया! तीर्थंकर भी अपने जीवन में व्रतों का निर्दोष पालन करते हैं। हमें भी करना चाहिये।

हमारे व्रत ऐसे हों जो स्वयं को सुखकर हों और दूसरों को भी सुखकर हों। एक सज्जन जो सम्भवतः ब्राह्मण थे, मुझ से कहने लगे- महाराज, आप बडे निर्दयी हैं। देनेवाले दाता का आप आहार नहीं लेते। मैनें उन्हें समझाया- “भैया! देनेवाले और लेने वाले दोनों व्यक्तियों के कर्म क्षमोपशम होनी चाहिये। दाता का दानांतर कर्म का क्षमोपशम होना आवश्यक है, पर लेनेवाले का भोगांतराय कर्म का क्षमोपशम होना चाहिये। दाता लेनेवाले के साथ जबर्दस्ती नहीं कर सकता क्योंकि लेने वाले के भी कुछ नियम या प्रतिज्ञाएँ होती हैं, जिन्हें पूरा करके ही वह आहार ग्रहण करता है।

सारांश यही है कि सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना चाहिये, वे व्रत-नियम बडे मौलिक हैं। सभी यदि व्रत ग्रहण करके उनका निर्दोष पालन करते रहें तो कोई कारण नहीं कि सभी कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न न हों।

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मेरी भावना है कि संत शिरोमणि विद्यासागरजी महामुनिराज का विहार यहां होना चाहिए :




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