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मुनि समतासागरजी ने नेमावर पहुंचकर आचार्यश्री विद्यासागरजी के चरण पखारे

• 17 दिन में 410 किमी का किया पदविहार
• 16 साल 5 महीने 13 दिन बाद मिला गुरु चरण वंदना करने का सौभाग्य

4 दिसम्बर (बुधवार) को 16 साल 5 महीने 13 दिन के लंबे इंतजार के बाद मुनिश्री समतासागरजी और ऐलकश्री निश्चयसागर जी ने सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर में अपने गुरु आचार्यश्री विद्यासागरजी के दर्शन कर चरण पखारे तो दोनों भाव विभोर हो गए। दोनों ने अपने गुरु के पादप्रक्षालन किए और गंधोदक को अपने सिरमाथे पर लगाया।

दोनों राजस्थान के घाटोल में चातुर्मासरत थे। गुरु से आज्ञा मिलते ही उनके दर्शन के लिए 17 नवंबर को घाटोल से लगभग 410 किमी का पदविहार करते हुए बुधवार को नेमावर पहुंचे। इसके पूर्व 21 जून 2003 को कटनी में गुरु दर्शन करने का सौभाग्य मिला था।

गुरु से मिला नहीं जाता, उनके चरणों की तो वंदना की जाती है: मुनि समतासागरजी

गुरु-शिष्यों के महामिलन के इन भावुक क्षणों में मुनिश्री समतासागरजी ने कहा कि गुरु से मिला नहीं जाता, उनके चरणों की तो वंदना की जाती है। उनकी शरण होना ही सबसे बड़ा सौभाग्य है। हमें तो गुरु के चरण में मिल जाना है। गुरु अपने शिष्यों को अच्छी तरह से जानते हैं। गुरु से शिष्य की कौन सी बात अनजानी है, सागर को पता होता है बून्द में कितना पानी है। मैंने गुरुवर की शरण में ही जीवन का गणित पढ़ने की शुरूआत की थी। आचार्यश्री विद्यासागरजी ने संघ, साधना, साहित्य, समाज और संस्कृति के लिए जो किया है वो अविस्मरणीय और अद्वितीय है। आचार्यश्री की जन्मभूमि सदलगा में जब चातुर्मास करने का सौभाग्य मिला तो लगा मानों तीर्थराज सम्मेदशिखर की यात्रा कर ली। गुरु से दूर जाने की दिशा में चाल धीमी होने लगती है लेकिन जैसे ही गुरु चरण वंदना की आज्ञा मिलती है तो चाल अपने आप तेज हो जाती है। नयन गुरु दर्शन के लिए लालायित रहते हैं, शरीर की पीड़ा अपने आप दूर हो जाती है। बीज बोने पर जब फसल आती है तो किसान को खुशी होती है, उसी प्रकार गुरुवर की साधना रूपी फसल हजारों शिष्यों के रूप में तैयार खड़ी है। गुरुवर के कारण आज नेमावर जैन धर्म का केंद्र बना हुआ है।

• गुरु-शिष्य एक दूसरे से कभी जुदा नहीं होते, चाहे कितनी ही दूर क्यों हों: आचार्यश्री विद्यासागरजी

इस अवसर पर आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा छोटा सा ठोस कंकर भी पानी में डूब जाता है, लेकिन लकड़ी के बड़े-बड़े टूकड़े भी पानी में तैरते रहते हैं। हमें अर्थ की ओर ना देखकर अर्थ के मूल्य को समझना चाहिए। हमारे अंदर मांगने की नहीं बनाकर दूसरों को देने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। गुरुजी कहा करते थे रोटी ना मांगो, बनाना सीखो, खिलाकर खाओ। किसान की नजर हमेशा बीज पर होती है। बीज खाने के नहीं खिलाने के काम आता है। गुरु शिष्य के दिल में बैठा होता है, इसलिए दोनों एक-दूसरे से कभी जुदा नहीं होते, चाहे कितने ही दूर क्यों ना हों। पढ़ने-लिखने के साथ सीखने की आदत डालनी चाहिए।


इससे पूर्व ज्येष्ठ मुनि समतासागरजी आगवानी के लिए मुनिश्री प्रमाणसागरजी, अजितसागरजी, विराटसागरजी, अरहसागरजी, संभव सागरजी के सानिध्य में संघस्थ मुनि, ब्रम्हचारी भैया, ब्रम्हचारिणी दीदियां और अपार जनसमुदाय नेमावर की नगर सीमा के बाहर पहुंचे। साफा पहने राजस्थान के श्रद्धालु, मंगल कलश लिए महिलाएं, दिव्य घोष, धर्मध्वजा और जयकारों और भजनों के बीच मुनिश्री की आगवानी हुई। ज्येष्ठ मुनि समतासागरजी की आगवानी करने के बाद सभी मुनिराजों ने उनकी परिक्रमा लगाकर उनकी कुशलक्षेप जानी। फिर सभी एक शोभायात्रा के रूप में सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र पहुंचे। जहां श्री पार्श्वनाथ जिनालय में दर्शन करने के बाद समतासागरजी और निश्चय सागरजी ने सीधे अपने गुरु के चरणों में अपना मस्तक रख आशीर्वाद लिया, परिक्रमा लगाई और गुरुवर के चरण पखारकर गंधोदक को अपने सिर-माथे पर लगाया। इस अविस्मरणीय क्षण को अपनी आंखों में कैद करने देश के कोने-कोने से श्रद्धालु नेमावर आए थे।

– पुनीत जैन (पट्ठा), खातेगांव

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