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पर्युषण – दश लक्षण : एक शाश्वत महापर्व

दश लक्षण : एक शाश्वत महापर्व

– एलक वात्सल्यसागर

पर्युषण पर्व साल में तीन बार आते है जो माघ , चैत्र , भाद्प्रद तीनो माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी से प्रारम्भ होकर चौदश तक चलते है| पर्युषण पर्व (दश लक्षण पर्व) भी एक ऐसा ही पर्व है, जो आदमी के जीवन की सारी गंदगी को अपनी क्षमा आदि दश धर्मरूपी तरंगों के द्वारा बाहर करता है और जीवन को शीतल एवं साफ-सुथरा बनाता है। प्रस्तुत है- क्षमा आदि दश धर्मों का संक्षिप्त स्वरूप-

क्षमा

जब दो वस्तुएँ आपस में टकराती हैं, तब प्रायः आग पैदा होती है। ऐसा ही आदमी के जीवन में भी घटित होता है। जब व्यक्तियों में आपस में किन्हीं कारणों से टकराहट पैदा होती है, तो प्रायः क्रोधरूपी अग्नि भभक उठती है और यह अग्नि न जाने कितने व्यक्तियों एवं वस्तुओं को अपनी चपेट में लेकर जला, झुलसा देती है। इस क्रोध पर विजय प्राप्त करने का श्रेष्ठतम उपाय क्षमा-धारण करना ही है और क्षमा-धर्म को प्राप्त करने का अच्छा उपाय है कि आदमी हर परिस्थिति को हँसते-हँसते, यह विचार कर स्वीकार कर ले कि यही मेरे भाग्य में था। पर्युषण पर्व का प्रथम ‘उत्तम क्षमा’ नामक दिन, इसी कला को समझने, सीखने एवं जीवन में उतारने का दिन होता है।

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मार्दव

प्रायः सभी व्यक्तियों के अंतःकरण में यह भाव रहता है कि लोग मुझे अच्छा-भला आदमी कहें और मेरा सम्मान करें, साथ ही मेरे हर कार्य की प्रशंसा करें, मेरे पास जो ज्ञान और वैभव आदि है, वह सर्वश्रेष्ठ है, ऐसा दुनिया के सभी लोग कहें एवं स्वीकार करें। इस तरह के भाव मान-कषाय के कारण आदमी के अंतःकरण में उठते हैं। मान के वशीभूत होकर व्यक्ति जिस धरातल पर खड़ा होता है, उससे अपने आपको बहुत ऊपर समझने लगता है। इसी अहंकार के कारण आदमी पद और प्रतिष्ठा की अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है, जो उसे अत्यंत गहरे गर्त में धकेलती है। पर्युषण पर्व का द्वितीय ‘उत्तम मार्दव’ नामक दिवस, इसी अहंकार पर विजय प्राप्त करने की कला को समझने एवं सीखने का होता है।

आर्जव

क्रोध और अहंकार की ही तरह आदमी के जीवन में छल-कपट भी व्याप्त रहता है। इसे ही विद्वानों ने माया-चारी या माया-कषाय कहा है। इसके ही कारण आदमी सोचता कुछ और है, कहता कुछ और है और करता कुछ और ही है। जैन मनीषियों ने कहा है कि सुख और शांति कहीं बाहर नहीं, अपने अंदर ही हैं और अपने घर में प्रवेश पाने के लिए वक्रता या टेड़ेपन को छोड़ना परम अनिवार्य है, जैसे सर्प बाहर तो टेड़ा-मेड़ा चलता है, पर बिल में प्रवेश करते समय सीधा-सरल हो जाता है, वैसे ही हमें भी अपने घर में आने के लिए सरल होना पड़ेगा। सरल बनने की ही कला सिखाता है ‘उत्तम आर्जव धर्म।’

शौच

क्रोध, अहंकार और छल-कपट से भी अधिक घातक जीव की लोभी-लालची प्रवृत्ति होती है, जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूपी पाँचों पापों के लिए प्रेरित करती है। इसी वृत्ति के वशीभूत होकर प्राणी दिन-रात न्याय और अन्याय को भूलकर धन आदि के संग्रह में लगा रहता है। आत्मा को निर्मल, पवित्र या शुचिमय बनाने की प्रेरणा ‘उत्तम शौच धर्म’ देता है।

सत्य

जब व्यक्ति क्रोध, अहंकार, माया-चारी एवं लोभ को नियंत्रित कर लेता है, तो सहज ही उसके जीवन में सत्य का अवतरण होता है। फिर उसकी ऊर्जा कभी भी क्रोध आदि के रूप में विघ्वंसक रूप धारण नहीं करती। सत्य को धारण करने वाला हमेशा अपराजित, सम्माननीय एवं श्रद्धेय होता है। दुनिया का सारा वैभव उसके चरण चूमता है। यह सब ‘उत्तम सत्य धर्म’ की ही महिमा है।

संयम

जैसे किसी भी वाहन को मंजिल तक सही-सलामत पहुँचाने के लिए नियंत्रण की आवश्यकता होती है, वैसे ही कल्याण के पथ पर चलने वाले प्रत्येक पथिक के लिए नियंत्रण (संयम) की परम आवश्यकता होती है और वह नियंत्रण- इंद्रिय एवं मन पर रखना होता है। प्रायः मन और इंद्रिय रूपी घोड़े, मनुष्य के जीवन रूपी रथ को पाप रूपी गर्त की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं। इससे बचने के लिए हमें संयम रूपी लगाम की आवश्यकता होती है। इंद्रिय एवं मन को जो सुख-इष्ट होता है, वह वैषयिक सुख कहलाता है। जो मीठे जहर की तरह सेवन करते समय तो अच्छा लगता है, पर उसका परिणाम दुःख के रूप में ही होता है। ऐसे दु:खदायक वैषयिक सुख से ‘उत्तम संयम धर्म’ ही बचाता है।

तप एवं त्याग

जिसके माध्यम से जीव या आत्मा का शोधन किया जाता है, वह ‘उत्तम तप धर्म’ कहलाता है। प्रायः प्रत्येक पदार्थ का शोधन तपन के द्वारा होता है। आत्मा का शोधन भी तपरूपी अग्नि से किया जाता है। जीव को बारह प्रकार के तप-अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शरयासन, काय क्लेश, प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान द्वारा कर्मरूपी किट्ट-कालिमा से शुद्ध किया जाता है।
अज्ञानता एवं लोभ-लिप्सा के कारण जीव, धन, संपत्ति आदि को ग्रहण करता है। ये ही पदार्थ दुःख, अशांति को बढ़ाने का कारण बनते हैं। ऐसे पर पदार्थों को छोड़ना ही ‘उत्तम त्याग धर्म’ कहलाता है।

आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य

उक्त क्षमा आदि -आठ धर्म-साधन रूप धर्म होते हैं, जिनके अंगीकार करने पर साध्य रूप धर्म-आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य की उपलब्धि स्वयंमेव हो जाती है। जब कोई साधक क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पर-पदार्थों का त्याग आदि करते हैं और इनसे जब उनका किंचित भी संबंध नहीं रहता तो, उनकी यह अवस्था स्वाभाविक अवस्था कहलाती है। इसे ही ‘उत्तम आकिंचन्य धर्म’ कहा गया है। पर-पदार्थों से संबंध टूट जाने से जीव का अपनी आत्मा (जिसे ब्रह्म कहा जाता है) में ही रमण होने लगता है। इसे ही ‘उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म’ कहा जाता है।

ये ही धर्म के दश लक्षण हैं, जो पर्युषण पर्व के रूप में आकर, न केवल जैनों को, अपितु समूचे प्राणी-जगत को सुख-शांति का संदेश देते हैं।

22 Comments

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  • jai jenandra

    new mandir BANANA band karo jo puraney mandir hay unko hi swarlo aaj tak ka ITHAS kahta her new mandir jhagadane kaa isthal ban gaye hey jis jain jain may ber ho jata hey taygi varti ka apman hota hey

  • In short you have explained beautifully .May this all would assist us in becoming a true jain person.jaijenendera.

  • jai jinendra

    gurudev ko sat sat vandan

    Aaj ki nayi genretion ko daslaxan parv ke bare main kuch gyan nahi hai to hum kuch aisa karai jis se unko gyan mile .

  • ME KAUN HOO,KAHASE AAYA HOON AUR KAHA MUJE JANA HAI.

    MAI EK SWAYAMPURNA AATMA HOON. MUJE PARSE KOI SAMBANDH NAHI.
    JAYHO PUJAYA VIDYASAGARJI KI.

  • bolo daslakcchan mahaparva ki jai,charitrachakravarti acharya shantisagar ji maharaj ki jai, acharyashiromani dharam sagar ji maharaj ki jai ,santshiromani vidyasagar ji maharaj ki jai, panch bharat,panch eravat,bees videh chetro me vartman me virajman sabhi 89999997 bhavlingi muni maharajo ko barambar namaskar ho

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