संकलन:
श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ
अपने को आधुनिक कहने वाले कुछ लोगों की दृष्टि में अण्डा खाना आधुनिकता का प्रतीक है। वे अण्डे को शाकाहार स्वास्थ्यवर्धक और बलवर्धक बता कर भ्रामक प्रचार कर रहे हैं, किंतु वास्तव में कोई भी अण्डा शाकाहार नहीं है। अण्डा मुर्गी और मुर्गे के रज और वीर्य के सन्योग से बनता है। मुर्गी के गर्भ से निकलने के बाद भी वह कुछ समय रक बढता है। जीव के आभाव में वह बढ नहीं सकता था। अतः उसमें निश्चित रूप से जीवन है। किन्ही अण्डों में मुर्गी के बच्चे उत्पन्न करने की शक्ति है किन्हीं में नहीं, केवल अंतर यही है।
अमेरिकन वैज्ञानिक फिलिप जे स्केम्बेल ने पौलट्री फीड्स एंड न्युट्रीन नामक पुस्तक में अपने परीक्षणों से साबित किया है कि कोई अण्डा चाहे वह निषेचित हो या अनिषेचित, उसमें एक स्वतंत्र जीव होता है। अण्डे में स्थित जीव ऑक्सीजन को खींचता है और कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर छोडता है। श्वासोच्छ्र्वास की क्रिया बन्द हो जाती है तब अण्डे के अन्दर का जीव मर जाता है और अण्डा अन्दर से सड जाता है, ऐसा फूड पॉयजनिंग बन जाता है जिसे खाने वाला भयंकर रोग से पीडित हो जाता है, उसकी मृत्यु तक हो जाती है।
आज समाचार पत्रों और दूरदर्शन के माध्यम से यह प्रचार किया जा रहा है के अण्डे शाकाहारी हैं, निर्जीव है, स्वास्थ्यवर्धक हैं। हमें ऐसे भ्रामक प्रचार से स्वयं तो सावधान रहना ही चाहिये ही इसका प्रबल विरोध भी करना चाहिये। अण्डों के खाने से बच्चों मे प्रतिरोधक शक्ति का आभाव हो जाता है, स्मरण शक्ति क्षीण हो जाती है और पीलिया आंतों में मवाद आदि अनेक रोग हो जाते हैं।
अतः अहिंसा परमोधर्मः को मानने वाले धार्मपरायण भारतवासियों को कभी भी किसी भी स्थिति में अण्डे का सेवन न तो स्वयं करना चाहिये न दूसरों को प्रेरित करना चाहिये।