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जैन धर्म

जैन धर्म (Jain Religion)

‘जैन’ कहते हैं उन्हें, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों। ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से। ‘जि’ माने-जीतना। ‘जिन’ माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’। जैन धर्म अर्थात ‘जिन’ भगवान्‌ का धर्म।

जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-

णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥

अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।

धन दे के तन राखिए, तन दे रखिए लाज
धन दे, तन दे, लाज दे, एक धर्म के काज।
धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण
धर्म ग्रंथ साधे बिना, नर तिर्यंच समान।

जिन शासन में कहा है कि वस्त्रधारी पुरुष सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। भले ही वह तीर्थंकर ही क्यों न हो, नग्नवेश ही मोक्ष मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग है- मिथ्या मार्ग है।

– आचार्य कुंदकुंद

जैन कौन?

जो स्वयं को अनर्थ हिंसा से बचाता है।
जो सदा सत्य का समर्थन करता है।
जो न्याय के मूल्य को समझता है।
जो संस्कृति और संस्कारों को जीता है।
जो भाग्य को पुरुषार्थ में बदल देता है।
जो अनाग्रही और अल्प परिग्रही होता है।
जो पर्यावरण सुरक्षा में जागरुक रहता है।
जो त्याग-प्रत्याख्यान में विश्वास रखता है।
जो खुद को ही सुख-दःख का कर्ता मानता है।
 

संक्षिप्त सूत्र- व्यक्ति जाति या धर्म से नहीं अपितु, आचरण एवं व्यवहार से जैन कहलाता है।

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  • पंच कल्याणक
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    ▪ जब आप पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में भागीदारी करें तो नई दृष्टि, नए विचार और वैज्ञानिक विश्लेषण को आधार बनाएँ।
    ▪ पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में दिखाई जाने वाली घटनाएँ काल्पनिक नहीं, प्रतीकात्मक हैं। हमारी आँखें कितनी भी शक्तिशाली हो जाएँ, लेकिन वे काल की पर्तों को लाँघकर ऋषभ काल में नहीं देख सकतीं। आचार्यों ने 2500 साल से तो कम से कम हमारे लिए तथ्यों को संग्रहीत किया है, जिसमें पूर्व परंपरा से चले आ रहे घटनाक्रम का परीक्षण करें किंतु तब तक अविश्वास न करें जब तक अन्यथा सिद्ध न हो जाए।

    ▪ तीर्थंकर एक सत्य, एक प्रकाश है जो मानव की भावभूमि प्रकाशित करता रहा है। तीर्थंकर की वाणी को एक क्षण मात्र के लिए भूल कर देखिए- जीवन शून्य हो जाएगा- सभ्यता के सारे ताने-बाने नष्ट हो जाएँगे।

    ▪ पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के आप प्रत्यक्षदर्शी न हों पर अपने हृदय में उसकी भावनात्मक कल्पना अवश्य कीजिए। तीर्थंकर आपके हृदय में विराजमान हो जाएँगे। फिर आपकी जीवन यात्रा अर्थपूर्ण और सत्य के अधिक निकट होगी।

    ▪ हे तीर्थंकर वाणी! हमारे हृदय में प्रवेश कर हमें अपने अज्ञान और पूर्वाग्रहों से मुक्त होने में सहायक हो।

    ▪ पंच कल्याणक महोत्सव में कई रूपक बताए जाते हैं, जैसे गर्भ के नाटकीय दृश्य, 16 स्वप्न, तीर्थंकर का जन्मोत्सव, सुमेरु पर्वत पर अभिषेक, तीर्थंकर बालक को पालना झुलाना, तीर्थंकर बालक की बालक्रीड़ा, वैराग्य, दीक्षा संस्कार, तीर्थंकर महामुनि की आहारचर्या, केवल ज्ञान संस्कार, समवशरण, दिव्यध्वनि का गुंजन, मोक्षगमन, नाटकीय वेशभूषा में भगवान के माता-पिता बनाना, सौधर्म इंद्र बनाना, यज्ञ नायक बनाना, धनपति कुबेर बनाना आदि। ऐसा लगता है जैसे कोई नाटक के पात्र हों। किन्तु सचेत रहें ये नाटक के पात्र नहीं हैं। तीर्थंकर के पूर्वभव व उनके जीवनकाल में जो महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं, उन्हें स्मरण करने का यह तरीका है। उन घटनाओं को रोचक ढंग से जनसमूह में फैलाने का तरीका है। हमारी मुख्य दृष्टि तो उस महामानव की आत्मा के विकास क्रम पर रहना चाहिए जो तीर्थंकरत्व में बदल जाती है।

    ▪ जैनागमों में प्रत्येक तीर्थंकर के जीवनकाल में पाँच प्रसिद्ध घटनाओं-अवसरों का उल्लेख मिलता है- वे अवसर जगत के लिए अत्यंत कल्याणकारी होते हैं। अतः उनका स्मरण दर्शन भावों को जागृत करता है व सही दिशा में उन्हें मोड़ सकता है। वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसा ही घटनाक्रम घटित होता है किंतु साधारण व्यक्ति गर्भ और जन्म और (तप कल्याण के पूर्व) बाल क्रीड़ा, राज्याभिषेक (जीवन में सांसारिक सफलता पाना) आदि क्रियाओं से गुजर जाता है किंतु वैराग्य उसके जीवन में फलित नहीं होता। उसका कारण पूर्व जनित कर्म तो होते ही हैं किंतु उसके संस्कार और संगति अध्यात्म परक न हो पाने के कारण वैराग्य फलित नहीं होता। जैन धर्म भावना प्रधान है। भावनाओं को कड़ियों में पिरोकर जैन धर्म के दर्शन व इतिहास की रचना हुई है। यदि हम भावनाओं को एक तरफ उठाकर रख दें तो जैन धर्म के ताने-बाने को हम नहीं समझ पाएँगे। पंच कल्याणक महोत्सव इसी ताने-बाने का एक भाग है।

    ▪ पंच कल्याणक को महोत्सव बनाने वाला पहला व्यक्ति महान इतिहासकार होना चाहिए। जिन घटनाओं ने – परिवर्तनों ने मानव को महामानव बना दिया, उसे भगवान बना दिया- लोग उसे नहीं भूले, उनके सामने उसे बार-बार दोहराया जाए ताकि वे सदैव स्मरण करते रहें कि आत्मा को परमात्मा बनने के लिए कई पड़ावों से होकर गुजरना पड़ता है। कोई आत्मा तब तक परमात्मा नहीं बन सकती जब तक उसे संसार से विरक्ति न हो, वह तप न करे, केवल ज्ञान न उत्पन्न हो तब तक वह परमात्मा बनने का अधिकारी नहीं है।

    ▪ पहले लिखित रिकॉर्ड तो नहीं थे- जो पुरानी घटनाओं को याद रखने का सहारा बनते। पहले तो मनुष्य की विचार जनित वाणी और कुछ दृश्य दिखाना ही- घटनाओं को याद रखने का तरीका था। तीर्थंकर प्रकृति का बंध होने के बावजूद, तीर्थंकर की आत्मा को त्याग-तपस्या का मार्ग अपनाना ही पड़ता है। सांसारिक प्राणी के सामने इस प्रक्रिया को बार-बार दोहराया जाए ताकि, जैन दर्शन के मूल सिद्धांतों को वह सफलता से समझ जाए। ‘जंबूदीवपण्णत्ति संग हो’ अधिकार संख्या 13/गाथा सं. 93 में लिखा है- जिसका अर्थ इस प्रकार है- जो जिनदेव, गर्भावतार काल, जन्मकाल, निष्क्रमणकाल, केवल ज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्वाण समय, इन पाँचों स्थानों (कालों) से पाँच महाकल्याण को प्राप्त होकर महाऋषि युक्त सुरेन्द्र इंद्रों से पूजित हैं।

    ▪ पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव जैन समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण नैमित्तिक महोत्सव है। यह आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया का महोत्सव है। पौराणिक पुरुषों के जीवन का संदेश घर-घर पहुँचाने के लिए इन महोत्सवों में पात्रों का अवलम्बन लेकर सक्षम जीवन यात्रा को रेखांकित किया जाता है। थोड़ा इसे विस्तार से समझने का प्रयत्न करते हैं।

    गर्भ कल्याणक

    1) भगवान के गर्भ में आने से 6 माह पूर्व से लेकर जन्म पर्यन्त 15 मास तक उनके जन्म स्थान में कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती है। यह भगवान के पूर्व अर्जित कर्मों का शुभ परिणाम है।
    2) दिक्ककुमारी देवियाँ माता की परिचर्या व गर्भशोधन करती हैं। यह भी पुण्य योग है।

    3) गर्भ वाले दिन से पूर्व रात्रि को माता को 16 उत्तम स्वप्न दिखते हैं- जिन पर भगवान का अवतरण मानकर माता-पिता प्रसन्न होते हैं- इन स्वप्नों के बारे में विधानाचार्य आपको बताएँगे ही। इस कल्याणक को आपको इस प्रकार दिखाया जाएगा-

    (अ) सबसे पहले मंत्रोच्चार पूर्वक उस स्थान को जल से शुद्ध किया जाएगा। यह जल घटयात्रापूर्वक शुद्धि स्थल तक लाया जाएगा।

    (ब) शुद्धि के पश्चात उचित स्थल पर घटस्थापना होगी। उसके पश्चात जैन-ध्वज को लहराया जाएगा। जैन ध्वज – जैन दर्शन, ज्ञान और चरित्र की विजय पताका है। यह तीर्थंकरों की विजय पताका नहीं है- किसी राजा या राष्ट्र की विजय पताका नहीं है। यह चिन्तन-मनन, त्याग-तपस्या व अंतिम सत्य को पालने वाले मोक्षगामियों की विजय पताका है। इस भाव को ग्रहण करना आवश्यक है। दिग्‌दिगंत में लहराने वाला यह ध्वज प्रतीक है उस संदेश का जो तीर्थंकरों- आचार्यों, मुनियों के चिंतन-मनन व आचरण से परिष्कृत है। ध्वजारोहण की एकमात्र आकांक्षा यही होती है कि प्राणिमात्र को अभय देने वाले जैन धर्म की स्वर लहरी तीनों लोकों में गूँजे। इस ध्वजा के फहराने का भी अधिकार उसे ही है जिसकी पूर्ण आस्था जैन जीवन शैली पर हो। जैन ध्वज के पाँच रंग होते हैं- क्रमशः सफेद, लाल, पीला, हरा और नीला। पंडित नाथूलालजी शास्त्री के अनुसार इन रंगों को गृहस्थों के पंचाणुव्रत का सूचक भी माना गया है। इस ध्वजारोहण के साथ ही पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का शुभारंभ हो जाता है।

    (स) पंच कल्याणक में गर्भ कल्याणक के साथ संस्कारों की चर्चा अत्यंत महत्वपूर्ण है। व्यक्ति के जीवन की संपूर्ण शुभ और अशुभवृत्ति उसके संस्कारों के अधीन है जिनमें से कुछ वह पूर्व भव से अपने साथ लाता है व कुछ इसी भव में संगति व शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न करता है। इसीलिए गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्ध संस्कार उत्पन्न करने के लिए विधान बताया गया है। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त यथा अवसर जिनेन्द्र पूजन व मंत्र विधान सहित 53 क्रियाओं का विधान है – जिनसे बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए एक दिन वह निर्वाण का भाजन हो जाता है- ‘जिनेन्द्रवर्णी’ पंचास्तिकाय, सिद्धिविनिश्चय, मूलाचार, धवला, महापुराण आदि ग्रंथों में संस्कारों पर बहुत कुछ लिखा गया है। पंचकल्याणक के शुभ संयोग से यदि संस्कारों के बारे में अधिक गहराई से विचार करेंगे तो उन्नत जीवन का हमारा नजरिया अधिक तार्किक हो जाएगा।

    हमें दो बातों पर अवश्य ध्यान रखना होगा कि परिवार मे होने वाली माताओं को लेडी डॉक्टर जो निर्देश देती हैं, उसका मूल आधार इन्हीं संस्कारों में छिपा है। पूजा मंत्र आदि पर आधारित ग्रंथों का सृजन हुआ, उसका आधार भिन्न सामाजिक परिस्थितियाँ थीं किंतु भावों की निर्मलता गर्भावस्था से ही प्रारंभ होना चाहिए। मजे की बात है कि डॉक्टर की इस बात पर तो हम ध्यान दे रहे हैं पर आचार्यों की बात को पढ़ना भी नहीं चाहते।
    भले ही अपने आचार्यों की बात को न मानें, किंतु एक बार उनको पढ़ें तो सही। अब तो अधिसंख्य जैन समाज पढ़ा-लिखा है और ग्रंथ पढ़ सकता है। हिन्दी रूपांतर भी उपलब्ध हैं। संस्कार एक ऐसी प्रकाश की किरण है जो हमेशा आदमी के साथ रहती है। उसे अपने से जोड़े रखना नितांत आवश्यक है। संस्कार कोई बंधन नहीं है, यह मनोवैज्ञानिक इलाज है। एक हानिकारक बात ऐसी हुई कि वैदिक परंपराओं से जैन समाज का जब संपर्क आया तो वैदिक रूढ़िवादिता हमारे संस्कारों में भी घुस आई। आज समय आ गया है कि हम इसका स्क्रीनिंग करें व जो अच्छा हो, उसे अपना लें।

    जन्म कल्याणक

    भगवान होने वाली आत्मा का जब सांसारिक जन्म होता है तो देवभवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घंटे बजने लगते हैं और इंद्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं। यह सूचना होती है इस घटना की कि भगवान का सांसारिक अवतरण हो गया है। सभी इंद्र व देव भगवान का जन्मोत्सव मनाने पृथ्वी पर आते हैं।
    बालक का जन्म और जन्मोत्सव आज भी घर-घर में प्रचलित है, किन्तु सुमेरु पर्वत पर भगवान का अभिषेक एक अलग प्रकार की घटना बताई जाती है। तीर्थंकर के मामले में ऐसा गौरवशाली अभिषेक उनके पूर्व जन्मों के अर्जित पुण्यों का परिणाम होता है किन्तु प्रत्येक जन्म लेने वाले मानव का अभिषेक होता ही है। देवता न आते हों किन्तु घर या अस्पताल में जन्म लिए बालक के स्वास्थ्य के लिए व गर्भावास की गंदगियों को दूर करने के लिए स्नान (अभिषेक) आवश्यक होता है। तीर्थंकर चूँकि विशेष शक्ति संपन्न होते हैं, अतः पांडुक वन में सुमेरु पर्वत पर क्षीरसागर से लाए 1008 कलशों से उनका जन्माभिषेक शायद कभी अवास्तविक लगे। हो सकता है इसमें भावना का उद्वेग व अपने पूज्य को महिमामंडित करने का भाव हो लेकिन संस्कारों की सीमा से परे नहीं है। एक तुरंत प्रसव पाए बालक की अस्पताल में दिनचर्या को देखने पर यह काल्पनिक नहीं लगेगा।

    देवों द्वारा प्रसन्नता व्यक्त करना स्वाभाविक प्रक्रिया है। पुत्र जन्म पर खुशियाँ मनाते, मिठाई बाँटते हम सभी लोगों को देखते हैं। फिर तीर्थंकर तो पुरुषार्थी आत्मा होती है।

    जिन आचार्यों ने पंच कल्याणक के इस लौकिक रूप की रचना की, उसको समझने में कोई त्रुटि न हो जाए, इसके लिए 2000 वर्ष पूर्व हुए आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति की गाथा क्र. 8/595 में स्पष्ट किया है कि ‘गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर जन्म स्थानों में सुखपूर्वक स्थित रहते हैं।’

    यह गाथा अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि सांसारिक कार्यों में देवादि भाग नहीं लेते किन्तु तीर्थंकरत्व की आत्मा को सम्मान देने व अपना हर्ष प्रकट करने के लिए वे अपने उत्तर शरीर से उपस्थित होते हैं। इतना प्रतिभाशाली व्यक्ति जन्म ले तो सब तरफ खुशियाँ मनाना वास्तविक और तर्कसंगत है। यह आवश्यक नहीं कि तीर्थंकरों के जन्म लेते समय आम नागरिकों ने देवों को देखा हो। देवत्व एक पद है जिसका भावना से सीधा संबंध है।

    तप कल्याणक/दीक्षा कल्याणक

    अब तक के समस्त कार्य तो मनुष्य मात्र में कम-ज्यादा रूप में समान होते रहते हैं किन्तु संसार की विरक्ति का कोई कारण बने बिना मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। यह भी तभी संभव है जब मनुष्य के संस्कार चिंतन को सही दिशा में ले जाने की क्षमता रखते हों। भगवान के कर्मयोगी जीवन, जिनमें सांसारिक कार्य, राज्य संचालन, परिवार संचालन आदि सम्मिलित होते हैं, के बीच एक दिन उन्हें ध्यान आता है (भगवान चंद्रप्रभु के जीवन चरित्र के अनुसार) ‘आयु का इतना लंबा काल मैंने केवल सांसारिकता में ही खो दिया। अब तक मैंने संसार की संपदा का भोग किया किन्तु अब मुझे आत्मिक संपदा का भोग करना है। संसार का यह रूप, सम्पदा क्षणिक है, अस्थिर है, किन्तु आत्मा का रूप आलौकिक है, आत्मा की संपदा अनंत अक्षय है। मैं अब इसी का पुरुषार्थ जगाऊँगा।’
    इस प्रकार जब चंद्रप्रभु अपनी आत्मा को जागृत कर रहे थे, तभी लोकान्तिक देव आए और भगवान की स्तुति करके उनके विचारों की सराहना की। जरा देखें कि यहाँ आत्मोन्नति के विचार को कोई है जो ठीक कह रहा है। उसे आचार्यों ने लोकान्तिक देव कहा और उसे हम ऐसा भी कह सकते हैं किसी गुणवान- विद्वान ने चंद्रप्रभु महाराज को प्रेरक उद्बोधन दिया। यह तो बिलकुल संभव है- इसे काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। आज भी प्रेरणा देने वालों और मैनेजमेंट गुरुओं की मान्यता है और बनी रहेगी।

    चंद्रप्रभु राजा थे- उन्होंने राज्य अपने पुत्र वरचंद्र को सौंपा और पालकी में बैठकर जिसे बड़े-बड़े लोगों ने उठाया सर्वतुर्क वन में चले गए। वहाँ उन्होंने दो दिन के उपवास का नियम लेकर जैनेन्द्री दीक्षा धारण कर ली। उन्होंने केशलुंचन किया और दिगम्बर मुद्रा में ध्यान मग्न हो गए। दो दिन के पश्चात वे नलिन नामक नगर में आहार के निमित्त पधारे। वहाँ सोमदत्त राजा ने उन्हें नवधाभक्तिपूर्वक आहार दिया। त्याग की यह प्रक्रिया स्वभाविक है। आज भी सब कुछ त्याग कर समाजसेवी लोगों की लंबी परंपरा है।

    क्यों वे त्यागी हुए?

    – इसके भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं, पर ऐसा होता है।

    इसके बाद चंद्रप्रभु मुनि की तपस्या प्रारंभ होती है। समस्त घातिया कर्मों को निर्मूल करने में चंद्रप्रभु मुनि जैसी उच्च आत्मा को भी तीन माह लगे। वे पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पंचेंद्रिय निग्रह, दशधर्म आदि में सावधान रहते हुए कर्मशत्रुओं से युद्ध करने में संलग्न रहने लगे। अंत में वे दीक्षा वन में नागवृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यान लीन हो गए और क्रमशः शुक्ल ध्यान के बल से मोहनीय कर्म का नाश करने में सफल हो गए। फिर बारहवें गुणस्थान के अंत में द्वितीय शुक्ल ध्यान के प्रभाव में शेष तीन घातिया कर्मों का भी क्षय कर दिया। इसके साथ ही वे संयोग केवली हो गए। उनकी आत्मा अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य से संपन्न हो गई। उन्हें पाँचोंलब्धियों की उपलब्धि हो गई। अब वे सर्वज्ञ- सर्वदर्शी बन गए। इंद्रों और देवों ने भगवान के केवल ज्ञान की पूजा की। उन्होंने समवशरण की रचना की और उसमें भगवान की प्रथम दिव्य ध्वनि निखरी।

    भगवान समस्त देश में विहार करते हुए सम्मेद शिखर पर पहुँचे और वहाँ 1 हजार मुनियों के साथ एक माह तक प्रतिमायोग धारण करके आरूढ़ हो गए। यह मोक्ष प्राप्ति के पूर्व की परमोच्च देह स्थिति है। यह तप की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है।

    यहाँ यह कहना ठीक होगा कि समवशरण में दिव्य ध्वनि का गुंजन हो किंतु एक नज्ज़ारा और होना चाहिए- वह है धर्मचक्र प्रवर्तन का। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण व महापुराण में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। उसका सारांश इस प्रकार है- ‘भगवान का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है। भगवान के चरणों के नीचे देवलोग सहस्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं। और भगवान इनको स्पर्श न कर अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे-नगाड़े बजते हैं। पृथ्वी इति-भीति रहित हो जाती है। इंद्र राजाओं के साथ आगे-आगे जयकार करते चलते हैं। आगे धर्मचक्र चलता है। मार्ग में सुंदर क्रीड़ा स्थान बनाए जाते हैं। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामंडल, छत्र, चंवर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इंद्र प्रतिहार बनता है। अनेक निधियाँ साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर-विरोध भूल जाते हैं। अंधे, बहरों को भी दिखने-सुनने लग जाता है।’

    जनसमूह यह दृश्य देखकर भाव-विह्वल हो सकता है। यह भगवान के जननायक होने का संदेश देता है।

    मोक्ष कल्याणक

    हम अक्सर एक त्रुटि करते हैं कि मोक्ष कल्याणक को अंतिम कल्याणक कहते हैं। एक तरह से चंद्रप्रभु की आत्मा के लिए मोक्षगमन के साथ यह अंतिम पड़ाव हो, किन्तु तीर्थंकरत्व की यात्रा जो एक दर्शन को समग्र रूप देती है, अंतिम कहना विचारणीय है। वास्तव में मोक्षगमन जैन दर्शन के चिंतन की चरमोत्कृष्ट आस्था है जो प्रत्येक हृदय में फलित होना चाहिए। समस्त कल्याणक महोत्सव का यह सरताज है। मोक्षगमन को देखना इस निश्चय को दोहराना है कि जीवन के सभी कार्य तब तक सफल नहीं कहे जा सकते जब तक उसका अंतिम लक्ष्य मोक्षगमन न हो।

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    Rega.
    akhilesh jain
    Indore
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