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गुरू गौरव गीता

गुरू गौरव गीता


श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ

ज्ञान उजागर विद्यासागर

आचार्य श्री विद्यासागर को, शत् शत् वन्दन करती हूँ।
गुरु के उज्ज्वल संयम की मैं, गौरव गीता गाती हूँ ॥टेक॥
शरद पूर्णिमा के शुभ दिन, जनमें गुरु जैसे हो जिन।
बढे-पढे कर्नाटक में, पर न फसें भव नाटक में॥
शांतिसागराचार्य गुरु, मम गुरु के वैराग्य गुरु।
दीक्षा-शिक्षा गुरुवर को, दिये ज्ञान के सागर यों॥
गुरुवर का सारा परिवार, बने साधु साध्वी अविकार।
बीस साल में ही गुरुवर, बने दिगम्बर मुनि हितकर॥
बाल ब्रह्मचारी बनकर, चले, वीर के ही पथ पर।
महावीर की किये नकल, जिनवर जैसी अकल-शकल॥
ऐसे गुरु के श्री चरणों में, जो नित शीश झुकाती है।
वही सातिशय पुण्य प्राप्तकर, सर्वोत्तम सुख पाती है॥

त्याग के सागर विद्यासागर

आचार्य श्री विद्यासागर को, शत् शत् वन्दन करती हूँ।
गुरु के उज्ज्वल संयम की मैं, गौरव गीता गाती हूँ ॥टेक॥
क्या-क्या कब से ये गुरुवर, त्याग किया ये सुन चित्तधर।
गुरुवर सन् उनहत्तर से, ना मीठा ना नमक लिये॥
रस-फल-मेवा आदिक भी, तजे छिहत्तर से गुरु जी।
पूर्ण थूंकना जीवन-भर, तजे तिरासी से गुरुवर॥
गुरुवर सन पिच्चासि से, घास चटाई बिन सोते।
अरु चौरानवे से गुरुवर, त्यागे सब्जी हरी सकल॥
अरु दिन में भी सोने का, पूर्ण त्याग है गुरुवर का।
नहीं त्याग का मान करें, किंतु मान का त्याग करें॥
ऐसे गुरु के श्री चरणों में, जो नित शीश झुकाती है।
वही सातिशय पुण्य प्राप्तकर, सर्वोत्तम सुख पाती है॥

साधना के सागर विद्यासागर

आचार्य श्री विद्यासागर को, शत् शत् वन्दन करती हूँ।
गुरु के उज्ज्वल संयम की मैं, गौरव गीता गाती हूँ ॥टेक॥
सुनों साधना गुरुवर ने, अब तक कैसी-कैसी की।
रात-रात भर खडगासन, पद्मासन या शिरसासन॥
लगा-लगाकर मरघट में, किये ध्यान गुरु अटपट से।
तप्त सूर्य को ही लखते, घण्टों-घण्टों तप करते॥
नव-नव दिन तक निर्जल ही, किये उपोषण गुरुवर जी।
चाहे जितनी गर्मी हो, चाहे जितनी सर्दी हो॥
एक-एक दिन में गुरुवर, चलें पचासों किलोमीटर।
वचन कभी ना देते हैं, अडिग व्रतों में रहते हैं॥
ऐसे गुरु के श्री चरणों में, जो नित शीश झुकाती है।
वही सातिशय पुण्य प्राप्तकर, सर्वोत्तम सुख पाती है॥

संयम के सागर विद्यासागर

आचार्य श्री विद्यासागर को, शत् शत् वन्दन करती हूँ।
गुरु के उज्ज्वल संयम की मैं, गौरव गीता गाती हूँ ॥टेक॥
चाहे जितना आवे ज्वर, कुछ भी ना ओढे गुरुवर।
लघु आदिक शंका निश में, कभी न करते गुरुवर ये॥
रात्रि मे पाटा तजकर, कहीं न जाते ये गुरुवर।
प्रकाश का भी रात्रि में, प्रयोग ना करते गुरु ये॥
दो महीने में ही गुरुवर, केशलोंच करते अतिवर।
पूर्ण मौन भी रात्रि में, रखे सदा ही गुरुवर ये॥
तन का कोई भी श्रृंगार, करते ना गुरुवर अविकार।
इन्द्रिय अरु प्राणी संयम, पाल रहे हैं गुरु हरदम॥
ऐसे गुरु के श्री चरणों में, जो नित शीश झुकाती है।
वही सातिशय पुण्य प्राप्तकर, सर्वोत्तम सुख पाती है॥

शिष्यों के सागर विद्यासागर

आचार्य श्री विद्यासागर को, शत् शत् वन्दन करती हूँ।
गुरु के उज्ज्वल संयम की मैं, गौरव गीता गाती हूँ ॥टेक॥
गुरुवर के सब शिष्यों की, महिमा सुनो, मनीषों की।
कोई शिष्य कलेक्टर है, कोई तो इंसपेक्टर है॥
कोई शिष्य तो मास्टर हैं, और अनेकों डॉक्टर हैं।
कोई वक्ता बने प्रखर, देते सम्यक सुधा बिखर॥
बाल ब्रह्मचारी सारे, जैन धर्म के उजियारे।
प्रायः सारे रहे कवि, तप में भी, सब रहे रवि॥
गुरु के शिष्यों की गिनती, मुश्किल से ही मिल सकती।
फिर भी गुरु में मान नहीं, शिष्यों का अभिमान नहीं॥
ऐसे गुरु के श्री चरणों में, जो नित शीश झुकाती है।
वही सातिशय पुण्य प्राप्तकर, सर्वोत्तम सुख पाती है॥

जिनवर हैं विद्यासागर

आचार्य श्री विद्यासागर को, शत् शत् वन्दन करती हूँ।
गुरु के उज्ज्वल संयम की मैं, गौरव गीता गाती हूँ ॥टेक॥
जिनवर जैसा गुरुवर का, रहे रूप ये सुखकर का।
रहे वितरागी जिनवर, है वैरागी ये गुरुवर॥
जिनवर जग के शास्ता हैं, गुरु में सब की आस्था है।
वे भी पूर्ण दिगम्बर हैं, गुरु भी पूर्ण दिगम्बर हैं॥
जिनवर जी सर्वज्ञ रहें, गुरु मन के मर्मज्ञ रहें।
चार कर्म घाते जिनवर, कषाय चउ घाते गुरुवर॥
धरे चतुष्टय जिनवर, चौ, गुरु आराधन करते चौ।
जिनवर में ना दोष रहें, गुरुवर में ना रोष रहे॥
ऐसे गुरु के श्री चरणों में, जो नित शीश झुकाती है।
वही सातिशय पुण्य प्राप्तकर, सर्वोत्तम सुख पाती है॥

तीर्थंकर हैं विद्यासागर

आचार्य श्री विद्यासागर को, शत् शत् वन्दन करती हूँ।
गुरु के उज्ज्वल संयम की मैं, गौरव गीता गाती हूँ ॥टेक॥
गुरुवर, हैं ज्यों तीर्थकर, सिद्ध करूँगा सुन चित्त धर।
तीर्थ रचेंगे तीर्थकर, तीर्थ रक्षते हैं गुरुवर॥
मूल ग्रंथ कर्ता तीर्थेश, ग्रंथ रचेता गुरु गणेश।
समवशरण के वे नेता, सकल संघ के ये नेता॥
तीर्थंकर शिव-पथ दर्शी, गुरुवर भी शिव-पथ दर्शी।
तीर्थंकर केवल ज्ञानी, गुरुवर केवल निज ध्यानी॥
अनियत विहार जिन करते, अनियत विहार गुरु करते।
शिव को तीर्थकर ध्याते, गुरु भी शिव को ही ध्याते॥
ऐसे गुरु के श्री चरणों में, जो नित शीश झुकाती है।
वही सातिशय पुण्य प्राप्तकर, सर्वोत्तम सुख पाती है॥

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  • ऐसे गुरु के श्री चरणों में, जो नित शीश झुकाती है।
    वही सातिशय पुण्य प्राप्तकर, सर्वोत्तम सुख पाती है

  • ज्ञान उजागर विद्यासागर

    आचार्य श्री विद्यासागर को, शत् शत् वन्दन करती हूँ।
    गुरु के उज्ज्वल संयम की मैं, गौरव गीता गाती हूँ ॥टेक॥
    शरद पूर्णिमा के शुभ दिन, जनमें गुरु जैसे हो जिन।
    बढे-पढे कर्नाटक में, पर न फसें भव नाटक में॥
    शांतिसागराचार्य गुरु, मम गुरु के वैराग्य गुरु।
    दीक्षा-शिक्षा गुरुवर को, दिये ज्ञान के सागर यों॥
    गुरुवर का सारा परिवार, बने साधु साध्वी अविकार।
    बीस साल में ही गुरुवर, बने दिगम्बर मुनि हितकर॥
    बाल ब्रह्मचारी बनकर, चले, वीर के ही पथ पर।
    महावीर की किये नकल, जिनवर जैसी अकल-शकल॥
    ऐसे गुरु के श्री चरणों में, जो नित शीश झुकाती है।
    वही सातिशय पुण्य प्राप्तकर, सर्वोत्तम सुख पाती है॥

  • hey guruver saswat sukh dershak ye nagn swaroop tumhaara hai………………………………….

  • Namostu guruwar….AApki tyag tapasya ko shabdon mein bandhna asan nhin hian , par jis tarah ye upar ki kavita apka roop batati hain ,aaj k yug mein insan ki soch mein sirf bhagwan hi aisa kar skte hian..Sakshat mahavir ka roop hian aap..

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