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आहार ही औषधि

श्रीमती सुशीला पाटनी
आर.के. हाऊस,
मदनगंज- किशनगढ (राज.)

  • आहार के बाद जब साधु अंजलि छोड़ने के बाद कुल्ला करें तो उन्हें लौंग, हल्दी, नमक, माजूफल, शुद्ध सरसों का तेल, शुद्ध मंजन, अमृतधारा, नींबू का रस आदि अवश्य दें।
  • गेहूं और चने की बराबर मात्रा वाले आटे की रोटी में अच्छी मात्रा में घी मिलाकर देने से तथा सादा रोटी चोकर सहित देने से स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होती है।
  • एक जग पानी में अजवाइन डालकर उबाला हुआ जल जब साधु लेते हैं, उसकी जगह चलाने से गैस के रोगों में आराम मिलता है।
  • आहार के अंत में सौंफ, लौंग, अजवाइन और नमक, सौंठ, हल्दी तथा गुड़ की डली, नींबू का रस अवश्य चलाएं। सभी वस्तुएं मौसम, ऋतु के अनुसार मर्यादित भी होनी चाहिए एवं मसाले पूर्ण रूप से पिसे हों तथा इनमें सकरे हाथ न लगाएं। जब ये वस्तुएं चलाएं तो चम्मच से पहले खाली प्लेट में शोधन करके चलाएं और यदि साधु नहीं लेते हैं तो वापस उसी में डाल दें। भूलकर भी सकरे हाथ न लगाएं, क्योंकि सकरे हाथ लगा देने से उस पदार्थ की मर्यादा खत्म हो जाती है।
  • मूंग की दाल छिल्के वाली ही बनाएं तथा दाल का पानी भी घी मिलाकर देने से लाभदायक होता है।
  • जल एवं दूध के आगे-पीछे खट्टे पदार्थ, दही, रस आदि भी न चलाएं।

आहारदान की महिमा :

  • दरिद्र रहना अच्छा है किंतु दानहीन जीना अच्छा नहीं है, क्योंकि धन महामोह का कारण है। दुष्परिणामयुक्त पाप का बीज है, नरक का हेतु, दु:खों की खान एवं दुर्गति देने में समर्थ है।
    जिस प्रकार सब रत्नों में श्रेष्ठ वज्र (हीरा) है, पर्वतों में श्रेष्ठ सुमेरु पर्वत है, उसी प्रकार सभी दानों में श्रेष्ठ आहार दान जानना चाहिए।
  • जो पुरुष कभी न तो जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं और न सुपात्रों को दान देते हैं, वे अत्यंत दीन दुर्गति के पात्र हो जाते हैं तथा मांगने पर भी भीख नहीं मिलती।
  • कंजूस का संचित धन धर्म-प्रभावना, परोपकार व पात्र दान के लिए नहीं होता, जैसे मधुमक्खियों द्वारा संचित मधु ही उनकी मृत्यु का कारण होती है तथा उसका भोग भी अन्य ही करते हैं।अतिथि की पूजा न करने वाला व्यक्ति मृत्यु के समय में पछताएगा कि हाय! मैंने इतना धन संचय किया किंतु वह कुछ काम नहीं आया।
  • जो मनुष्य अपनी रोटी दूसरों के साथ बांटकर खाता है, उसे भूख की बीमारी कभी स्पर्श नहीं करती।
  • आचार-विचार की शुद्धि मन शुद्धि पर अवलंबित है।
  • भोजन-शुद्धि में मर्यादा पर बहुत जोर दिया जाता है, क्योंकि इससे साधना व स्वास्थ्य की रक्षा होती है।
  • जो श्रावक जैन व्रत को स्वीकार कर भाव सहित होते हुए पात्रों के लिए आहार, औषध, अभय और ज्ञान (शास्त्र) दान देते हैं, वे धर्मात्मा, विद्याधर तथा चक्रवर्ती का पद एवं देवों की लक्ष्मी का उपभोग कर मोक्ष संबंधी अनुपम परमार्थ सुख को प्राप्त करते हैं।
  • सत्य पात्र को दान देने से मनुष्य धनाढ्य होता है। पुन: धन की अधिकता से पुण्य प्राप्त करता है। पुण्य का अधिकारी मनुष्य स्वर्ग में इन्द्र होता है, वहां से आकर पुन: धनाढ्य होता है और पुन: दानी होता है।
  • आहार दान से तीनों लोक की संपत्ति सुखादिक मनुष्य भव, भोग-भूमि तथा स्वर्गादिक संपूर्ण विश्व-कीर्ति और देव-पूजा (देवों के द्वारा पूज्यता) प्राप्त होती है।
  • अन्न (आहार) दान से भार्या (स्त्री), पुत्र, यश, विद्या, सुख, ज्ञान, सुबुद्धि, लक्ष्मी, आभूषण और वस्त्र प्राप्त होते हैं।
  • जिनके घर में महापूज्य मुनीश्वर आहार हेतु आते हैं वे गृहस्थ, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि द्वारा पूज्यता को प्राप्त हुए। वे गृहस्थ ही पुण्यात्मा हैं।
  • जो पूजादि दान से रहित होता हुआ मात्र धन की वृद्धि में लगा हुआ है, ऐसे कृपण मनुष्य के जीवन व धन से लोक में क्या प्रयोजन? आगे चलकर उस पापी मनुष्य की बहुत रोग, शोक, संक्लेश आदि दु:खों सहित कुगति नियम से होने वाली है।
  • अतिथि लाभ संभव न होने पर भी यदि मनुष्य भोजन के समय सदा अतिथियों की प्रतीक्षा करके ही भोजन करता है तो भी वह दाता है, क्योंकि संत पुरुषों ने दान देने के लिए किए गए मनुष्यों के प्रयत्न को ही सच्चा दान माना है।
  • दान बिना गृहस्थ के चूल्हा-चौका श्मशान के समान है, क्योंकि यत्नाचार करते हुए भी उसमें नित्य 6 काय के हजारों जीव जलते हैं अतएव आहार दान देने से गृहस्थ का चौका सफल है।
  • अपनी दैनिक आय में से चतुर्थ भाग (25%), 6ठे भाग (17%) अथवा 10वें भाग (10%) का जो सत्पात्र दानादि में सदुपयोग किया जाता है, उसे यथाक्रम से उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य शक्ति जानना चाहिए।
  • सैकड़ों मनुष्यों में एक मनुष्य वीर होता है, हजारों में एक विद्धान पंडित तथा लाखों में एक वक्ता और दाता करोड़ों में एक मिलता है।
  • दान, भोग, नाश- धन की ये 3 गतियां होती हैं। जो न दान करता है और न भोग, उसकी तीसरी गति होती है अर्थात वह नष्ट हो जाता है।
  • आहार देते समय दाता को ‘मां के समान’ कहा गया है, जैसे मां बच्चे के हाव-भाव देखकर भोजन कराती है, उसी प्रकार साधु के हाव-भाव देखकर दाता आहार करवाएं।

कुएं बन सकते हैं प्रत्येक घर में :

राजस्थान एवं गुजरात प्रांत में देखा जाता है कि जहां कुएं नहीं हैं, वहां श्रावक मंदिर या अपने घरों में लगभग 8-10 फुट चौड़ा और 20-25 फुट गहरा जमीन के अंदर एक कुआं जैसा खोद लेते हैं जिसे ‘टांकी’ कहते हैं। उसे भरने से पहले अच्छे ढंग से साफ (धो-पोंछ) करके 1-2 बार वर्षा हो जाने पर छत को धोकर रात्रि के समय उस छत से वर्षा का पानी पाइप से ‘टांकी’ में उतारकर भर देते हैं।

पानी भरने से पूर्व 1-2 घड़े चूना भरकर रख देते हैं। उस कुएं (टांकी) के ऊपर एक कमरा भी बना देते हैं। वह पानी सूर्योदय या सूर्यास्त के समय निकालते हैं। पानी छानकर जिवाणी उसी टांकी में डाल देते हैं। ऐसी व्यवस्था अन्य सभी जगहों पर भी की जा सकती है। ऐसा पानी स्नान, अभिषेक, पूजन एवं आहार बनाने के कार्य में लाया जा सकता है।

कुओं में पानी बढ़ता है सोकपिट से :

यदि आप वर्तमान में पानी की समस्या से बचना चाहते हैं तो अपने-अपने घरों में सोकपिट बनवाएं।

सोकपिट बनाने की सरल विधि :

1. घर के आंगन अथवा उपयुक्त स्थान पर जो आपके घर की छत के नजदीक होगा वहां बरसात का पानी बहकर आ रहा है तो 5x5x5 फुट (5 फुट लंबा, 5 फुट चौड़ा, 5 फुट गहरा) एक गड्ढा तैयार करवाएं।

2. गड्ढे के अंदर चारों ओर ईंट की दीवार बिना मिट्टी या सीमेंट की मदद से तैयार करें।

3. अब इस गड्ढे में 1 फुट की ऊंचाई तक रेत भरें।

4. रेत के ऊपर 1 फुट तक कोयला भरें।

5. कोयले के ऊपर 1 फुट तक मोटी बजरी भरें। गड्ढे के शेष भाग को ईंटों के अर्द्ध रोढ़ से भर दें और फिर उसे चिपों से ढंक दें। लीजिए आपका सोकपिट तैयार है।

नोट : सोकपिट को ऊपर से चीपों को अच्छे से पूरी तरह ढकवाएं ताकि उसमें मच्छर न पनप सकें।

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