संकलन:
श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ
ज्ञान और दर्शन के विषय में प्रदोष, निहव, मात्सर्य, अंतराय, असादन और उपघात- ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्त्रव हैं।
दूसरे शब्दों में ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म के आस्त्रव के निम्न छः कारण हैं-
- प्रदोष- मोक्ष का कारण तत्त्वज्ञान है, उसका कथन करने वाले पुरुष की प्रशंसा न करते हुए, अंतरंग में जो दुष्ट परिणाम होता है, उसे प्रदोष कहते हैं।
- निहव- वस्तु स्वरूप के ज्ञानादि का छुपाना, जानते हुए भी ऐसा कहना कि “मैं नहीं जानता” यह निहव है।
- मात्सर्य- ज्ञान का अभ्यास किया है, वह देने योग्य भी है, तो जिस कारण से वह नहीं दिया जाता, मात्सर्य है।
- अंतराय- ज्ञान का विच्छेद करना, यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति में विघ्न डालना, अंतराय है।
- आसादन- दूसरा कोई ज्ञान का प्रकाश कर रहा हो, तब शरीर, वचन से उसका निषेध करना, रोकना आसादन है।
- उपघात- यथार्थ प्रशस्त ज्ञान में दोष लगाना अथवा प्रशंसा योग्य ज्ञान को दूषण लगाना सो उपघात है।
वेदनीय कर्म: इसके दो भेद हैं-
- असातावेदनीय कर्म के आस्त्रव के कारण के निम्न भेद हैं-
- दुःख करना, शोक करना, संसार में अपनी निन्दा आदि होने पर पश्चाताप करना, पश्चाताप से अश्रुपान करके रोना अर्थात क्रन्दन करना, वध करना, और संक्लेश (अशुभ) परिणामों के कारण से ऐसा रुदन करना कि जिससे सुनने वाले के हृदय में दवा उत्पन्न हो जाये। स्वयं को या पर को या दोनो को एक साथ दुःख शोक आदि उत्पन्न करना सो असातावेदनीय कर्म के आस्त्रव का कारण है।
- सातावेदनीय कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
- जिन्होंने सम्यग्दर्शन पूर्वक अणुव्रत या महाव्रत धारण किये हों ऐसा जीव, तथा चारों गतियों के प्राणी, इन पर भक्ति, दया करना, दुःखित, भूखे आदि जीवों के उपकार के लिये धन, औषधि, आहारादि देना, व्रती सम्यग्दृष्टि सुपात्र जीवों को भक्तिपूर्वक दान देना, सम्यग्दर्शनपूर्वक चारित्र के धारक मुनि के जो महाव्रत रूप शुभभाव हैं, संयम के साथ वह राग होने से सराग संयम कहा जाता है। शुभ परिणाम की भावना से क्रोधादि कषाय में होने वाली तीव्रता के आभाव को करने से सातावेदनीय कर्म का आस्त्रव होता है।
मोहनीय कर्म: इसके दो भेद है-
- दर्शन मोहनीय कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
- केवली भगवान में दोष निकालना, आगम में, शास्त्रों में दोष निकालना, रत्नत्रय के धारक मुनिसंघों में दोष निकालना, धर्म में दोष निकालना, देवों में दोष निकालना आदि दर्शनमोहनीय कर्म के आस्त्रव के कारण हैं।
- चरित्रमोहनीय कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
- क्रोध-मान-माया-लोभ रूप कषाय के उदय से तीव्र परिणाम होना सो चरित्रमोहनीय के आस्त्रव का कारण है।
आयुकर्म: इसके निम्न चार भेद हैं-
- नरकायु के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
- बहुत आरम्भ करना, बहुत परिग्रह का भाव नरकायु का आस्त्रव है।
- तिर्यंच आयु के आस्त्रव के निम्न कारण हैं-
- मायाचारी करना, धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उसका प्रचार करना, शील रहित जीवन बिताना, मरण के समय नील व कापोत लेश्या और आर्तध्यान का होना आदि तिर्यंच आयु के आस्त्रव हैं।
- मनुष्य आयु के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
- नरकायु के आस्त्रव के कारणों से विपरीत कार्य करना अर्थात अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह का भाव करना इसके अतिरिक्त, स्वभाव का विनम्र होना, भद्र प्रकृति का होना, सरल व्यवहार करना, अल्पकषाय का होना और मरण के समय संक्लेश रूप परिणति का नहीं होना, स्वभाव की कोमलता भी मनुष्यायु का आस्त्रव है।
- देवआयु के अस्त्राव के निम्न कारण हैं-
- सम्यग्दर्शन पूर्वक मुनिव्रत पालना, अन्यथा प्रवृत्ति करना, मिथ्यादर्शन, चुगलखोरी, चित्त का स्थिर न रहना, मापने और बाँट घट-बढ रखना, दूसरों की निन्दा करना अपनी प्रशंसा करना आअदि से अशुभ नामकर्म का आस्त्रव होता है।
- शुभ-नामकर्म के आस्त्रव के निम्न कारण हैं-
- मन-वचन-काय की सरलता, धार्मिक पुरुषों व स्थानों का दर्शन करना, आदर-सत्कार करना, सद्भाव रखना, संसार से डरना, प्रमाद का त्याग करना आदि ये सब शुभ नाम कार्य के आस्त्रव के कारण हैं।
गोत्रकर्म: यह निम्न दो प्रकार का होता है-
- नीचगोत्र कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
- दूसरे की निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना, दूसरे के विद्यमान गुणों को छिपाना और अपने अप्रगट गुणों को प्रकट करने से नीचगोत्र का आस्त्रव होता है।
- उच्चगोत्र कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
- एक दूसरे की प्रशंसा करना, अपनी स्वयं निन्दा करना, नम्रवृत्ति का होना, मद का आभाव होना, इससे उच्चगोत्र का आस्त्रव होता है।
अन्तराय कर्म-आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि ॥विघ्नकरणमतंरायस्य॥ (तत्त्वार्थसूत्र, अ.6)
किसी के दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न डालना, अंतरायकर्म के आस्त्रव का कारण है। इस प्रकार योग संसार में प्रवृत्ति रूप है, बन्ध का कारण है, संसार में रुलाने वाला है।