कुण्डलपुर। सुप्रसिद्ध जैन सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर में श्रमण शिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि स्व-अर्थ की पूर्ति स्वस्थ होने पर ही संभव है। द्वेष की अग्नि राख में दबे अंगारे की भांति भीतर सुलगती रहती है। अंगारे हो अंदर तो बाहर शांति कैसी? विद्यासागर सभागार में श्रोताओं को सीख देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि नत भावों के साथ ही उन्नत बन सकते हैं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि राम-रावण द्वन्द थम चुका था कि चारों ओर सन्नाटा छाया था। राम ने लक्ष्मण से कहा लक्ष्मण प्रजा पालन की नीति का ज्ञान लेना चाहते हो तो जीओं, रावण से नीति की शिक्षा सीख कर आओ। ऐसा सुनते ही लक्ष्मण की भृकुटी टेढ़ी हो गई, इतना संघर्ष किया जिस रावण से हमारा शत्रु है, इससे ज्ञान सीखना है, ऐसा विचार मन में तैरने लगा। राम ने लक्ष्मण के अर्न्तद्वन्द को भांप लिया। क्या सोच रहे हो प्रजापालक बनना है तो शत्रु से भी ज्ञान मिल, ग्रहण करना चाहिए। रावण नीति निपुण शासक है। लक्ष्मण भ्राता के वचन सुनकर जाने को उक्त हुए तब राम ने कहा कि स्वास्थ्य होने पर ही स्व अर्थ की पूर्ति संभव है। भीतर द्वेष के अंगारे हो तो स्वास्थ्य अच्छा है ऐसा संभव नहीं। लक्ष्मण ने कहा कि आपके वचन का अर्थ समझ गया तथा जैसा आपने कहा कि आपके वचन का अर्थ समझ गया तथा जैसा आपने कहा कि उन्ही वचनों के साथ आग्रह करूंगा।
राम की आज्ञा से लक्ष्मण रावण के निकट पहुंचे तथा राम द्वारा बताए वचनों को कहकर नीति ज्ञान प्रदाय करने का आग्रह किया। अहत रावण ने सिर के समीप खड़े लक्ष्मण को देखा और वहां से का संकेत किया। तब लक्ष्मण रावण के इस व्यवहार से खींचते हुए वापस राम के निकट पहुंचे। क्या हुआ लक्ष्मण पूछने पर कहा कि खाली हाथ वापस कर दिया। क्या तुमने स्वस्थ भाव भाव से आग्रह किया था? ज्ञान लेने के लिए तुम्हे रावण के सिर के निकट नहीं चरण के समीप होना था, तुम खींचने गये थे, सीखने वाले का स्थान चरण के निकट होता है। पुनः जाओं जैसा मैने कहा है वैसा ही कहना। लक्ष्मण लौटकर रावण के पास पहुंचे और राव के चरण के समीप विनयपूर्वक नीति ज्ञान देने का आग्रह किया। क्षण भर रावण ने लक्ष्मण की ओर देखा और कहा विनय के बिना प्रजा पालक नहीं बन सकते। जो रावण ने सीख दी वह स्वंय ने पालक किया होता तो परिणाम पृथक होता। रावण ने लक्ष्मण को राज्य शासन और प्रजा पालन तथा धर्म की अनेक नीतियों का ज्ञान प्रदान किया। युद्ध में पराजित होकर भी विनयपूर्वक साधना करने पर रावण ने ज्ञान दान दिया।
राम-रावण-लक्ष्मण के इस प्रसंग के माध्यम से आचार्यश्री ने विनय के महत्व को बताते हुए कहा कि ज्ञान सिंर पर चढ़कर नहीं चरण पकड़कर प्राप्त किया जाता है, तथा आचरण में विनम्रता ही सार्थक परिणाम देती है। द्वेष की अग्नि जब तक भीतर सुलगती रहेगी स्वस्थ होना संभव नहीं है, स्व अर्थ की प्राप्ति के लिए तनम न वचन से स्वस्थ्य विनम्र होना आवश्यक है। द्वेष की अग्नि युद्ध से भी अधिक घातक होती है, जैसे ही भावों में विनय का समावेष होता है। द्वेष-द्वन्द्ध समाप्त हो जाता है, शांति व्याप्त हो जाती है। शत्रु को युद्ध से नहीं विनम्रता से पराजित किया जा सकता है। यह शत्रु भीतर हो या बाहर समाधान विनय में ही निहित है। (कुण्डलपुर दमोह से वेदचन्द्र जैन)