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आचार्य श्री के 108 नाम

आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के 108 नाम


अधर्म मैल धोने को, धर्मसागर है गुरु।
मीन समान ज्ञानी को, ज्ञानसागर है गुरु ||1||

आचारण महाशुद्ध, स्वयं सदा करे गुरु।
करवाते सुशिष्यों से, अतः आचार्य है गुरु ||2||

आज संसार में ये ही, परमात्मा स्वरूप है।
शीत बाधा मिटाने को, ये ही प्रखर धूप है ||3||

करते यति स्वात्मा में, याते गुरु रहे यति।
महाव्रत सदा पाले, अतः रहे महाव्रती ||4||

करने भेद विज्ञान, गुरु हंस समान हैं।
गुरु चिंतामणी पाय, मिले चिंतित वस्तुयें ||5||

करे शमन अक्षों का, अतः शंकर है गुरु।
ब्रह्म ज्ञान सदा देते, याते ब्रह्मा रहे गुरु ||6||

कर्म लोहा गलाने को, ध्यान अग्नि रहे गुरु।
ज्ञान अन्न पचाने को, जठराग्नि रहे गुरु ||7||

कामना करे पूर्ण, कामधेनु अतः गुरु।
कल्पित वस्तु देते हैं, कल्पतरु अतः गुरु ||8||

कुंद कुंद मयी पुष्प, गुरु आध्यात्म बाग में।
अतः हम नमूँ भौरे, पाने सुगन्द ज्ञान ये ||9||

खुद की खोज करे नित्य, खुदा भी ये रहे अतः।
इष्ठ वस्तु सदा देते, गुरु ईश्वर भी अतः ||10||

गुरु की ही कृपा से तो, खुले भाग्य सुभव्य के।
याते सु भाग्यदाता तो, रहे सुगुरु विश्व के ||11||

गुरु चन्द्र लखेगे तो, बढे समुद्र हर्ष है।
धर्मी निर्धन जीवों को, गुरु अक्षय वित्त है ||12||

गुरु देते बिना दाम, अमोल गुण रत्न ही।
रत्नाकर अतः ये ही, मानो, संसार मे सही ||13||

गुरुमुद्रा रहे धेयेय, ध्यानियों को स्वध्यान को।
पूज्यपाद गुरु के ही, पूजनार्थ मनुष्य को ||14||

गुरु समान कोइ नहीं,नहीं महान आत्मा।
याते त्रिलोक में ये ही, रहे सही महात्मा ||15||

गृह त्याग किये याते, अनगारी रहे गुरु।
पाप कर्म कलंकों से, अकलंक रहे गुरु ||16||

घने बादल जैसे हैं, भव्य-मानव मोर को।
दीप स्तम्भ भवाब्धी में,गुरु निखिल विश्व को ||17||

चींटी स्वरूप भक्तों को गुरु गुड समान है।
आत्म ध्यान लगाने में, महामेरु समान है ||18||

ज्ञान-पद्म खिलाने को, पद्मबन्धु समानहै।
फोडने कर्म पहाड को, गुरु महान वज्र है ||19||

तारे जैसे सुशिष्यों में, गुरु ही शुभचन्द्र है।
सभी मुनि सदा वंदे, याते ही मुनिन्द्र हैं ||20||

तीर्थ यात्रार्थ भव्यों को, गुरु ही सब तीर्थ है।
धर्महीन अनाथों को, गुरु ही तो सुनाथ है ||21||

दुःखी संसार में मात्र, समंतभद्र हैं गुरु।
शिष्यों के तो सदा पास, व्रत रूप रहें गुरु ||22||

धरा जैसे क्षमा धारे, अतः गुरु धरा रहें।
मिथ्या तम विनाशार्थ, ज्ञान-भानु गुरु रहें ||23||

धर्म रहित अन्धों को, धर्म आँखे रहे गुरु।
पाप कीचड धोने को, सम्यक नीर रहे गुरु ||24||

पंचाचार मयी नित्य, पंचाग्नि करे तप।
याते तापस ये ही हैं, इन्ही का ही करुं जप् ||25||

पढने भव्य जीवों को, गुरु खुली किताब है।
भक्त रूपी सुभौंरों को, गुरु खुला गुलाब है ||26||

पढने नित्य शिष्यों को, अतः पाठक भी रहे।
पाप पिण्ड करे नाश, याते पण्डित भी रहे ||27||

परिग्रह महापाप, ऐसे गुरु विचार के।
पूर्ण त्याग किये याते, ये अपरिग्रही रहे ||28||

पात्र सर्व तजे याते, पाणी-पात्र गुरु रहे।
तजे यान पदत्राण, पदयात्री अतः रहे ||29||

पिता तुल्य सुशिष्यों को, पाले याते पिता रहे।
सभी कवि इन्हें पूजते, याते कवीन्द्र ये रहे ||30||

पुण्योदय निनित्तार्थ, गुरु दर्शन ही रहे।
याते सुपुण्यदाता तो, मात्र सुगुरु ही रहे ||31||

पूजते चक्रवर्ती भी, चक्रवर्ती अतः यही।
वैर भाव नहीं राखे, वैरागी भी सही यही ||32||

बिना माँगे सदा देते. परमार्थ धरोहर।
अकारण जगत बन्धु, रहे याते गुरुवर् ||33||

भव्य चातक जीवों को, मेघ धारा रहे गुरु।
त्याग धर्म रहे पास , याते त्यागी रहे गुरु ||34||

भव्य स्वर्णसमा होता, गुरु पारस पाद से।
पापी भी बनता ईश, सुगुरु नाम मंत्र से ||35||

भव्यों को गुरु नौका हैं, भव समुद्र तैरने।
मोक्ष मार्ग बटोही को, गुरु पाथेय से बने ||36||

भव्यों को निज आत्मा का, दिव्य स्वरूप देखने।
गुरु निर्मल आदर्श, आत्म रूप दिखावने ||37||

भाग्य उदय आने में, गुरु कृपा जरूर है।
भाग्योदय अतः मानों, निःसन्देह गुरु रहे ||38||

भेद विज्ञान विद्या को, पाने वाले सुविज्ञ को।
मात्र सच्चे गुरुदेव, विद्यासागर ही अहो ||39||

मन को गुरु जीते हैं मनस्वी भी रहे अतः।
पूर्ण यश किये प्राप्त, यशस्वी भी रहे अतः ||40||

माता समान शिष्यों पें, ममता नित्य ही करें।
अतः माता रहे ये ही, ममता अमृत से भरें ||41||

मिटे दुर्गुण दुर्गन्ध, गुरु सुगन्ध-इत्र से।
कर्म सर्प भगाने को, गुरु गारुड मंत्र से ||42||

मोक्ष भिक्षा सदा मांगे याते भिक्षु रहे गुरु।
शांति प्यास मिटाने को, शांतिसागर है गुरु ||43||

मोक्ष मंजिल पाने को, गुरु सोपान मोक्ष का।
मंत्रों के मूल ऊँ रूप, गुरु ही है अहो सदा ||44||

मोक्ष श्रम करे नित्य, अतः श्रमण करे गुरु।
मौन प्रिय रहे भारी, याते मुनि रहे गुरु ||45||

मोह नींद मिटाने को, शंकनाद रहे गुरु।
घोर तप करे नित्य, तपस्वी भी अतः गुरु ||46||

यम ले कर रोगों का, करे दमन ही सदा।
संयमी है अतः ये ही, पूजूं इन्हे बनू खुदा ||47||

राग रंग दिये त्याग, वीतरागी रहे गुरु।
प्रतिमा धारकों को तो, जिन मन्दिर रहे गुरु ||48||

राग रोग रहे शीघ्र, राज वैद्य अतः गुरु।
दया छाया सदा देते, पथिकों को अतः तरु ||49||

लिये सन्यास भोगों से, सन्यासी है अथ गुरु।
स्वात्म-ज्ञान रखे पूर्ण,महाज्ञानी रहे अतः ||50||

वर्णातीत स्व आत्मा को, ध्याते वर्णी रहे अतः।
साधना मे सदा लीन, महासाधक है अतः ||51||

शस्त्र, वस्त्र नहीं पास, दिगम्बर रहे गुरु।
छोडे सकल ग्रंथों को, याते निर्ग्रंथ है गुरु ||52||

शांत मुद्रा गुरुजी की, सम्यक दर्शन हेतु हैं।
भवाब्धि पार पाने को, गुरुदेव सु सेतु हैं ||53||

शिष्य रूपी गढे मूर्ति, श्रेष्ठ शिल्पी रहे गुरु।
क्लांत चित्त करें शांत, अतः संत रहे गुरु ||54||

संकलन- सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस
मदनगंज- किशनगढ

14 Comments

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  • kuch log kehte he aapke guruvar to chand ka tukda he|
    lekin hum kehte he chand to hamare guruvar ka tukda he||

  • guruvar ki stuti karne se kat jate janmo k paap,
    man me bhaav bahut hai kahne shabd nai h mere paas,
    jayvant rahein mere guruvar aur jiyo hajaron saal,
    guruvar hamko deejiye sanyam ka uphar.

    • Jab sa mugha guruvar ka,
      Sath mila hai,
      Mugha asa lagta hai ki,
      Mai guruvar kai sharan,
      Mai humasha kai liya rahu.

  • guruvar satya sanyam ka hridaya me beej na bote.
    sabi sansar sagar me kha rahe hote gote.
    na paawan atma hoti na jeevit mantra ye hote,
    kabhi ka dharm lut jata agar ye sant na hote.

  • acharya shree vidyasagarji me acharya shree dharasagarji aur gyansagarji ki chavi dikhai parti hai

  • jain dharam ki shaaaan hai ye
    hindustan ki aaaan hai ye
    naaag nigin sune jin k pravchan
    sant nahi bhagvan hai ye

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