जैन धर्म मे चौबीस तीर्थंकर माने गए है। एक कल्प काल के उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के चतुर्थ काल में अनादिकाल से चौबीस तीर्थंकर होने की परम्परा चली आ रही है। तीर्थंकर उन्हें कहते है कि जिन्हें तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृति का बंध होता है, वे समवशरण आदि विभूति से युक्त होते हैं। जिनसे धर्म तीर्थ का प्रवर्तन होता है वे स्वयं भी तिरते हैं व उनके उपदेश से अन्य भव्य जीव भी अपना आत्म कल्याण कर लेते है। 4 घातियां कर्म (ज्ञानवार्णी, दर्शनवार्णी, मोहनीय, अंतराय) जिनके नष्ट होकर जिन्हे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया है वे सभी सामान्य अरिहंत कहलाते है किन्तु देवों द्वारा जिनके पंचकल्याण मनाए जाते है, समवशरण की रचना की जाती है, जन्म से ही जिनके अतिशय प्रकट होते है ऐसे एक काल में एक क्षेत्र में चौबीस ही तीर्थंकर होते है। ढाई
द्वीप में 5 भरत व 5 ऐरावत क्षेत्र आर्यखण्डों में काल परिवर्तन होता रहता है। जिसे काल चक्र कहते है। एक कल्पकाल बीस कोडा कोडी सागर का होता है। जिसमें दस कोडा कोडी का अवसर्पिणी काल होता है। जिसके छः भेद हैं- 1. सुखमा सुखमा 2. सुखमा 3. सुखमा दुखमा 4. दुखमा सुखमा 5. दुखमा 6. दुखमा-दुखमा। इसी प्रकार दस कोडा कोडी सागर का उत्सर्पिणी काल होता है। उसके भी छः भेद है जो अवसर्पिणी से उलटे क्रम में रहते हैं। उत्सर्पिणी काल में ज्ञान, सुख, आयु, काया आदि की बढोत्तरी होती है तो अवसर्पिणी में न्यून होती जाती है।
वर्तमान में अवसर्पिणी काल चल रहा है। इसके प्रथम तीन काल में उत्तम, मध्यम व जघन्य भोग भूमि होती है, जहां पर गाँव, नगर आदि नहीं होते केवल 10 तरह के कल्पवृक्ष होते है जो जुगलों को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुओं को प्रदान करते है। भोग भूमि में पानांग (छः रसों से युक्त पेय देते है।) 2. तुर्यांग (वीणा, मृदंग आदि वदित्र देते है।) 3. भूषणांग (आभूषण देते है।) 4. वस्त्रांग (वस्त्र देते है।) 5. भोजनांग (विविध प्रकार को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ देते है।) 6. आलयांग (दिव्य भवन देते है।) 7. दीपांग (दीपक के समान प्रकाश देते है।) 8.भाजनांग (रत्नों से निर्मित कलश, आसनादिक देते है।) 9. मालांग (विविध पुष्प माला देते है।) 10. तेजांग (नक्षत्र,
चंद्र सूर्य की भांति/प्रकाश देते है।) इस भोग भूमि में स्त्री-पुरूष जुगल पेदा होते है तथा पति-पत्नी के रूप में रमण करते है, यहां के तिर्यंच भी बैर-भाव रहित होते है। तृतीय काल के, अंत में चतुर्थ काल के प्रारंभ के पूर्व भोग भूमि का अवसान हो रहा था और कर्मभूमि का प्रारंभ। उसी समय बालक ऋषभ का जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या में हुआ। आपका जीव स्वार्थसिद्धि से माता के गर्भ में आषाढ कृष्ण द्वितीया को आया था। आपके जीव ने सात भव पूर्व सम्यक दर्शन प्राप्त किया था। दो भव पूर्व विदेह क्षेत्र में वज्रनाभि चक्रवर्ती रहे तथा दिगम्बर मुनि दीक्षा लेकर अपने गृहस्थ अवस्था के पिता तीर्थंकर वज्रसेन के पादमूल में सोलह कारण भावना द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया था। आपके पिता राजा नाभिराय एवं माता रानी मरूदेवी थीं। पहले भोगभूमि में भोग सामग्री कल्पवृक्षों से मिलती थी। कर्मभूमि प्रारंभ होते ही कल्पवृक्षों ने भोग सामग्री देना बंद कर दिया था, जिससे जनता में त्राहि-त्राहि मच गई। सारे मानव इस समस्या को लेकर राजा नाभिराय के पास पहुँचे। राजा नाभिराय ने कहा इसका समाधान अवधिज्ञानी राजकुमार ऋषभदेव करेंगे। राजकुमार ऋषभदेव ने दुःखी जनता को देखकर आजीविका चलाने के लिए षट्कर्म का उपदेश दिया। असि (शस्त्र धारण), मसि (बही खाते लिखने), कृषि (खेती, पशुपालन), वाणिज्य (व्यापार करना), शिल्प (हस्तकौशल),
विद्या/व्यवहारिकता/(विद्या, न्याय, दान आदि) का ज्ञान कराया। इस उपदेश से मानवों में शांति आई और वह उस प्रकार जीवन जीने लगे जो आज तक इसी रूप में चला आ रहा है। कुछ समय के पश्चात् राजकुमार ऋषभदेव का विवाह नंदा एवं सुनंदा नामक दो कन्याओं से हुआ। पिता ने समय देखकर राजकुमार ऋषभदेव का राज्य तिलक कर दिया। राजा ऋषभदेव के 101 पुत्र व 2 पुत्रियाँ थीं। राजा ऋषभदेव ने ब्राह्मी को अक्षर एवं पुत्री सुंदरी को अंक विद्या सिखाई, जो आज तक चली आ रही है। आपने तीन वर्णों की व्यवस्था- क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र की थी, बाद में
चक्रवर्ती भरत ने चैथे वर्ण ब्राह्मण को शामिल किया था। एक समय राजा ऋषभदेव अपने राजदरबार में स्वर्ग की अप्सरा नीलांजना का नृत्य देख रहे थे कि उसका अचानक मरण हो गया। इन्द्र ने तुरन्त दूसरी अप्सरा भेजी किन्तु राजा ऋषभदेव ने अवधिज्ञान से जान लिया कि प्रथम अप्सरा का मरण हो गया। तत्काल उन्हें संसार से वैराग्य हो गया तथा उन्होंने अपना
राजपाट भरत-बाहुबली को देकर अपने जन्म दिवस चैत्र कृष्ण नवमीं को प्रयाग के सिद्धार्थक वन में वटवृ़क्ष के नीचे दिगम्बरी दीक्षा धारण की थी। आपके साथ 4000 राजाओं ने भी दीक्षा ली। आप दीक्षा लेकर छः मास तक ध्यानस्थ रहे, मगर साथ वाले राजा भूख-प्यास सहन नहीं कर सके। छः माह के उपवास के बाद जब वे पारणा (आहार) करने निकले तो कोई भी श्रावक नवधाभक्ति नहीं जानता था। अतः 7 माह 9 दिन के उपवास और हो गए। विहार करते-करते एक दिन मुनि ऋषभदेव का हस्तिनापुर में आगमन हुआ। मुनिश्री ऋषभदेव का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो गया कि पिछले आठवें भव में मैंने चारणऋद्धिधारी मुनिराज को नवधाभक्ति पूर्वक आहार दान दिया था। इसी नवधाभक्ति के न मिलने से आदिश्वर मुनि का आहार नहीं हो पा रहा है फिर उन्होने राजा सोम के साथ वैशाख शुक्ल तीज को उन्हें चक्षुरस का आहार दिया तभी से वह अक्षय तृतीया के नाम से प्रचलित है। एक हजार वर्ष तपस्या करने के
बाद आपको फाल्गुन कृष्ण एकादशी को तटवृ़क्ष के नीचे केवलज्ञान हुआ। हुंडा अवसर्पिणी काल दोष होने से, प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का एवं चक्रवर्ती भरत का जन्म एवं निर्वाण तृतीय काल में हो गया जबकि 63 शलाका पुरूष जिसमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण सभी चतुर्थ काल में ही होते है। सभी सलाका पुरूष स्वर्ण के समान वर्ण वाले, उत्तम बल एवं ऋषभ नाराच सहनन वाले शरीर के धारक होते है। इनके सिर में बाल होते है। मंगर दाडी, मूंछ से रहित रहते है। इनको आहार तो होता है किंतु निहार नहीं होता। आगम के अनुसार प्रतिनारायण को छोडकर शेष शलाका पुरूष 1-2 भव में मोक्ष जाते है। हूण्डा असपर्णिकाल के दोष होने से इस काल में 63 सलाका की जगह 60 शलाका पुरूष ही हुए क्योंकि 16-17-18 वें तीर्थंकर के साथ-साथ चक्रवर्ती भी थे। इसी दोष के कारण कुछ अनहोनी हुई है। जैसे, तीर्थंकर को पुत्री होना, तीर्थंकर पर उपसर्ग होना, सभी तीर्थंकर का जन्म अयोध्या में एवं निर्वाण सम्मेद शिखरजी में होता है किंतु वर्तमान में 4 तीर्थंकर का जन्म अयोध्या में हुआ तथा 20 तीर्थंकर ही शिखरजी से मोक्ष गए। चक्रवर्ती, तीर्थंकर का मान भंग होना आदि। तीर्थंकर जिन्हें अरिहंत परमेष्ठी कहते है, 46 गुणों के स्वामी एवं सर्वज्ञ होकर 18 दोषों से रहित होते
है। 18 दोष – जन्म, जरा, तृषा, क्षुधा, विस्मय, अरति, खेद रोग, शोक, मद, मोह, भय, निन्द्रा, चिन्ता, स्वेद (नसीना), राग, द्वेष, मरण। जन्म के 10 अतिशय- अति सुंदर रूप, सुगन्धित शरीर, पसीना नहीं, मल-मूत्र नहीं, प्रिय हित वचन, अतुल बल, सफेद खून, शरीर पर 1008 शुभ लक्षण, समचतुरस्प्र संस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन। केवलज्ञान के 10 अतिशय- 100 योजन प्रति दिशा दुर्भिक्षता नहीं, 2. चार मुख दिखाई देना, 3. पृथ्वी पर गमन नहीं, 4. सभी जीव अहिंसामय, 5. उपसर्ग नहीं, 6. आहार नहीं, 7. समस्त विद्या का स्वामित्व, 8. नख, केश नहीं बढते 9. पलके नहीं झपकती, 10. छाया रहित। देवकृत 14 अतिशय- 1. अर्ध मागधी भाषा, 2. सभी में मित्रता, 3. आकाश निर्मल, 4. दसो दिशा निर्मल, 5. छः ऋतु के फल-फूल, 6. पृथ्वी कंकर कांटे रहित, 7. मंद सुगंध पवन, 8. आकाश में जय-जयकार, 9. आकाश में स्वर्णमयी कमल रचना, 10. सुगंधित जल की वर्षा, 11. भूमि का स्वच्छ, 12. सभी जीवों का आनन्दमयी होना, 13. भगवान के आगे धर्म चक्र चलना, 14. चमरछत्रादि अष्ट मंगल के साथ रहना। 8
प्रतिहार्य- 1. अशोक वृक्ष, 2. रत्नमयी सिंहासन, 3. भामण्डल, 4. भगवान के सिर पर छत्र, 5. दिव्य ध्वनि खिरना, 6. पुष्पों की वर्षा होना, 7. दुदंर्भि नाद, 8. यक्ष जाति के देवों द्वारा 32-32 चमरों का ठोना। 4 अनन्त चतुष्टाय-अनन्त सुख, अनन्त दर्शन, अनन्त बल, अनन्त ज्ञान। उपरोक्त 46 गुणों के स्वामी तीर्थंकर आदिनाथजी के देवकृत पाँच कल्याणक मनाए गये।
तीन तीर्थंकर श्री सुपाश्र्वनाथ, श्री पश्र्वनाथ एवं श्री महावीर स्वामी पर उपसर्ग हुए। तथा तीन तीर्थंकर श्रीवासुपूज्य, श्री आदिनाथजी एवं श्री नेमिनाथजी पद्मासन से मोक्ष गए जबकि शेष 21 तीर्थंकर खडगासन से मोक्ष गए। 5 तीर्थंकर श्री वासुपूज्यजी, श्री मल्लिनाथजी, श्री पाश्र्वनाथजी, श्री नेमिनाथजी, श्री महावीर स्वामी बालब्रह्मचारी थे। 16 तीर्थंकर स्वर्ण वर्ण, 2 रक्त वर्ण, 2 हरित वर्ण, 2 धवल वर्ण एवं 2 नील वर्ण के हैं। तीर्थंकर में सबसे अधिक 83 लाख पूर्व आयु में आदिनाथ भगवान ने तथा सबसे कम 30 वर्ष की आयु में श्री पाश्र्वनाथ एवं श्री महावीर भगवान ने वैराग्य लिया। ऊचाँई में 500 धनुष आदिनाथ भगवान की थी, जबकि श्री
महावीर स्वामी की 7 हाथ थी। निर्वाण के 14 दिन पूर्व प्रभु आदिनाथजी ने कैलाश पर्वत पर जाकर शुक्ल ध्यान करते हुए माघ कृष्ण चतुर्दशी को मोक्ष प्राप्त किया। आपके निर्वाण के 3 वर्ष 8 माह 15 दिन के बाद चतुर्थ काल प्रारंभ हुआ।
-अभय बाकलीवाल
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