जैन धर्म भाव प्रधान है- आचार्यश्री
चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने प्रातःकालीन प्रवचन में कहा कि जैन धर्म में भाव का महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य श्री ने उदाहरण के माध्यम से बताया कि जब वे आहार के लिए निकलते हैं तो उन्हें हाथों से इशारा कर बुलाया तो नहीं जा सकता, लेकिन जिन लोगों की आवाज और शरीर बड़ा होता है वे जोर-जोर से नमोस्तु कर पढ्गाहन करते हैं, जबकि जिसकी आवाज बांसुरी की तरह होती है वे अपने सिर को हिलाकर एवं हाथों में रखे कलश को जोर-जोर से हिलाकर पढ्गाहन करते हैं, इससे उनके भावों का पता चलता है कि वे कितने उत्सुक होकर नवधा भक्तिपूर्वक पढ्गाहन कर रहे हैं।
आचार्यश्री ने एक और उदाहरण देकर बताया कि जब आप लोग पूजा करते हो तो एक व्यक्ति को ही आगे आकर द्रव्य चढ़ाना होता है तो उस व्यक्ति के पीछे वाले उनके हाथ को छूकर एक के पीछे एक हाथ लगाकर चैन बना लेते हैं, जिससे सभी को उसका फल प्राप्त होता है और थाली में जितने चावल हैं, लगभग सबके हिस्से में दो- दो चावल तो आ ही जाते हैं। इस प्रकार जो द्रव्य चढ़ाता है उसको पुण्य तो मिलता ही है और जो हाथ लगाते हैं उनको भी दोगुना पुण्य मिलता है और जो हाथ नहीं लगाता है और सिर्फ ताली बजाता है तो उसको भी चार गुना पुण्य मिलता है। इसे ही कृत कारित अनुमोदन कहा जाता है, जिसे हम अपने मन, वचन और काया से भावपूर्ण करते हैं।यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।