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आ. श्री विद्यासागर जी के सानिध्य में श्रावक को मिली दुर्लभ समाधि


निर्मलकुमार पाटोदी
विद्या-निलय, 45, शांति निकेतन
(बॉम्बे हॉस्पिटल के पीछे),
इन्दौर-452010 (म.प्र.)
मोबा.- +91-07869917070
मेल: nirmal.patodi@gmail.com

समाधि मोक्ष का द्वार है। जहाँ आत्मा अन्दर-बाहर एकमेव हो जाती है। हर जन्म मरण के लिये होता है। सर्वथा कर्मों का अभाव होने से आत्मा का जीवन-मरण से मुक्त हो जाना सम्भव है। मोक्ष को मनुष्य-गति से मानव ही प्राप्त कर सकता है। धर्म, अर्थ और काम से आगे मोक्ष के लिये पुरुषार्थ की साधना ही जैन दर्शन का सार है। यही जैन संस्कृति की आत्मा है। देन है। जैनागम के अनुसार समाधिमरण का महत्त्व यह है कि उत्कृष्ट समाधि-मरण से सात-आठ भव के बाद और जघन्य से दो-तीन भव में नियम से आत्मा को मोक्ष मिल जाता है।

वर्तमान युग में मोक्ष-पथ के सद-राही, पूरे के पूरे 36, मूलगुणों के पालनकर्ता, महायोगीश्वर को विश्व आ. विद्यासागर जी के नाम से पहचानता है। वे सन्तों में महासन्त हैं। सन्त शिरोमणि हैं। उनकी साधना और चर्या उत्कृष्ट है, अनुपम है, अद्वितीय है, अनुकरणीय है। इसलिये श्रमण-शिरोमणि भी है। जिनकी चर्या की एक झलक पाने को विश्व के कोने-कोने से श्रद्धालु स्वत: खिंचे चले आते हैं। जो कोई भी इनके दर्शन कर लेते हैं, वह अपने भाग्य को सराहता है। स्वयम् को शौभाग्यशाली मानता है। ऐसे तारणहार, परम उपकारी, तेजस्वी और तपस्वी विद्यासागर जी महामुनिराज के चरण-सानिध्य में न जाने कितने मुनि, आर्यिका, त्यागी-व्रतियों को अपने असीम पुण्योदय से समाधि/सल्लेखना धारण करने का अनुपम अवसर मिला है। वे इस जीवन से मुक्त होकर मोक्षमार्ग की ओर आगे बढ़ गये हैं। वर्तमान में उनके हज़ारों-हज़ार शिष्य जो तपस्वी, त्यागी-व्रति हैं। अपने अन्तर्मन में उत्कृष्ट भाव धारण कर के प्रतिक्षारत् हैं कि वे भी इस जीवन में परम उपकारी गुरुदेव के सानिध्य में समाधि धारण कर सके। अपने जीवन-मरण के बन्धन से सदा के लिये मुक्त हो सकें।

VimalChand Patodi Samadhiमन में यदि गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा हो, तो किसी भी व्यक्ति का जीवन अन्तिम समय में सुधर सकता है। ऐसी ही श्रद्धान का बीजारोपण शातिशयी पुण्योदय से आश्विन कृष्ण सप्तमी, सोमवार, 15 सितम्बर 2014 के दिन हुआ। परिवार के किसी भी सदस्य को कल्पना नहीं थी कि उनका मुखिया भवसागर से पार होने का संकल्प ले चुका है।

इन्दौर निवासी विमलचन्द पाटोदी (जन्म : 12, दिसम्बर 1926, समाधि : 13, अक्तूबर 2014) ने 15, सितम्बर की सुबह का भोजन लेने के बाद सभी खाद्य-पदार्थों का आजीवन त्याग कर दिया। पहले दो दिन तो जल पर रहे। कहा भी गया है- जब अशुभ कर्म कटने लगते हैं, तब शुभ कर्मों की प्रवृत्ति हो जाती है। ऐसा ही संयोग विमलचन्द जी के साथ हुआ। यद्यपि इन्हें सल्लेखना की विधि का ज्ञान नहीं था, इसके बावजूद बुधवार, 17 से 25 सितम्बर तक अर्थात् नो दिन तक जल का भी त्याग कर दिया, निर्जल रहे।

आपकी माता रतनबाई व पिता फूलचन्द जी पाटोदी पूर्णत: धार्मिक प्रवृत्ति के थे, स्वाध्यायी थे। उनका प्रभाव पुत्र विमलचन्द के जीवन पर भी पड़ा। शिक्षा भी इन्दौर के एकमात्र दिगम्बर जैन-तिलोकचन्द कल्याणमल विद्यालय में धर्म का एक विषय की अनिवार्यता के साथ हुई। बात लगभग पच्चीस साल पहले की है, जब चलते-फिरते तीर्थंकर- भगवन आ. श्री विद्यासागर जी के पावन वर्षायोग मुक्तागिरि, रामटेक, महुआ, कुण्डलपुर में हुए थे। तब आपका अपनी पत्नी कमलाबाई व कुछ साथियों के साथ पर्युषण पर्व के अवसर पर कई वर्षों तक जाना हुआ था। अन्तराल के बाद गोमट्टगिरि तथा अमरकण्टक में दर्शनार्थ जाना हुआ। गुरुवर विद्यासागर जी के प्रति आपके अन्तर्मन में बसी हुई गहरी श्रद्धान जीवन के अन्त समय तक बनी रही। कई बार मुझसे पूछा था कि क्या विद्यासागर जी से समाधि मिल सकती है?

सल्लेखना के भावक पुण्यात्मा विमलचन्द पाटोदी ने स्वविवेक से 15, सितम्बर के दिन सल्लेखना ग्रहण करने की जानकारी सबसे पहले मुझे (निर्मलकुमार पाटोदी को) जो उनका अनुज हूँ, फ़ोन पर बताई। कहा मेरा अन्त समय निकट है। मैंने सब कुछ त्याग कर दिया है। समाधि ग्रहण कर ली है। ज़रूरी बात करना है। सब काम छोड़कर आ जाओ। मेरे सामने भी यह समस्या थी कि समाधि के विषय में मुझे जानकारी नहीं थी। अत: मैं इस विषय की जानकार और परिचित बहनें ब्रह्मचारिणी शान्ता दीदी-स्वर्णा दीदी (आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की गृहस्थ अवस्था की बहनों) के पास इन्दौर के कंचनबाग स्थित श्राविकाश्रम पहुँचा। साथ में अपनी पत्नी इन्द्रा पाटोदी तथा छोटी बहन पुष्पा सेठी को लेकर हम भैया के निवास मल्हारगंज पहुँच गये।

आगे का संक्षिप्त वृतान्त स्वर्णा दीदी के शब्दों में :- निर्मलकुमार पाटोदी साहब सम्बोधन के लिये हमें इनके घर दो बार ले गये। हमने दादा जी से पूछा- आप क्या चाहते हैं? आपने, अपने मन से सब कुछ जीवन भर के लिये त्याग कर दिया है।

आपको ग्यारह दिन हो गये हैं। अपने घर में ही समाधि ले रखी है। जबकि समाधि उत्कृष्ट जीवों की हो पाती है। आपको मुनियों के सानिध्य में जाना चाहिये। दादा जी बोले- आप आचार्य श्री विद्यासागर जी के पास में विदिशा ले जाते हैं या मेरे कुटुम्बजन ले जाते हैं, तो मैं आज ही जाने को तैयार हूँ। गुरु की आज्ञा का पालन करूँगा। तो मैंने उनके बेटे अशोक पाटोदी से बात की। सभी कुटुम्बजनों की अनुमति से उनको विदिशा ले जाया गया।

विमलचन्द के प्रबल पुण्योदय से पण्डित रतनलाल जी शास्त्री, श्राविकाश्रम से विजया दीदी, शशि दीदी, आशा तथा रेखा दीदी के अलावा पं. रमेशचन्द जी बांझल, पं. तेजकुमार जी गंगवाल, पं. पदमकुमार जी आदि महानुभावों, विद्वतजनों के सम्बोधन का लाभ मिला। समवशरण मन्दिर जी में वर्षायोग कर रहे मुनि श्री विप्रणतसागर जी महाराज तो निवेदन करने पर दो दिन तक तपती धूप में और बाद में मोदी जी की नसिया जी में पधार गये। मुनि श्री जी ने भावना समझ कर कान में णमोकार मंत्र सुनाया। पिच्छी लगाई। नाड़ी, आँखें, गला देख कर स्वास्थ्य को समझा। आशीर्वाद दिया। संयोग से आचार्य श्री जी के ब्रह्मचारी शिष्य चिद्रुप भैया जी (हाटपिपल्या) को कहीं से मालुम पड़ने पर अनायास ही आना हो गया। सल्लेखनाधारी का पुण्य अति प्रबल था। भैया जी ने दिन-रात कई-कई घण्टों तक विधिवत् सम्बोधन दिया। गला नहीं सूखे, इस दृष्टि से मुँह तथा गले पर लगातार कपड़े की गीली पट्टियाँ लगाई।

कान में णमोकार मंत्र सुनाया। वैराग्य भावना और समाधि-मरण, अन्तिम-भावना आदि सुनाये। संयोग से भैया जी का ज्ञान, सेवा, समर्पण और सद्भावनापूर्ण सहयोग मिलना अतिशय पुण्य योग से ही सम्भव है. जिसे देख-सुन कर परिवारजन तथा समाज जन चकित थे। सल्लेखना वाले दादा जी तो बार-बार कहते थे कि इनके आने से मेरा जीवन सुधर गया। मैं धन्य हो गया हूँ। इन्दौर के समाज में सल्लेखना ग्रहण करने की ख़बर फैलने से हज़ारों की संख्या में श्रद्धालुओं का सुबह से रात तक आगमन होता रहा।

इन्दौर से जिस दिन 24, सितम्बर को विदिशा जाना निश्चित हुआ, उस दिन सन्ध्या काल में चिद्रुप भैया जी के साथी प्रिंकेश भैया जी का भी आना हो गया था। शुभ-संयोग कि बात है कि प्रिकेंश भैया जी का परिवारजनों के साथ विदिशा जाना हो गया। वहाँ आपका योगदान अविस्मरणीय अद्वितीय, अतुलनीय रहा। आप संस्कार के दिन 14, अक्तूबर तक उपस्थत रहे। जब-जब भी दादा जी को आचार्य महाराज जी के कक्ष में ले जाया गया, हर समय आपने आचार्य श्री का कहा- दादा जी को और दादा जी का कहा- आचार्य श्री को सुनाया। आप तो दादा जी की पूरे 19, दिन की सल्लेखना के साक्षी रहे हैं। यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं है कि आपने परिजनों से भी बढ़कर पूरे समर्पण भाव से सेवा-सुश्रुषा की। दिन-रात दादा जी को सावधान रखते रहे।

णमोकार मंत्र और भक्तियां सुनाया करते थे। आपने सबके बीच में सेतु की भूमिका का निर्वाह किया। निश्चित ही आप अपने आप पर आचार्य भगवन का आशीर्वाद और कृपादृष्टि को अपने जीवन का अहो भग्य मानते हैं। सल्लेखना काल में आपने दादा जी जैसी सेवा और भक्ति की, वह न तो गुरुवर आचार्य महाराज जी से और न संघ के सन्त गणों से छिप सकी है।

कहना होगा आचार्य श्री जी के शिष्य की हर चर्या जैनागम पर आधारित होती है। वे गुणी होते हैं। आत्म-कल्याण के प्रति सदैव सचेत रहते हैं। इसी विशेषता का अनुपम उदाहरण मुनि श्री सम्भवसागर जी में पाया। उन्हें सरल, सह्रदय और गुरु आज्ञा का मनोयोग से पालन करते हुए पाया। दादा जी की सल्लेखना जितनी उत्कृष्ट हो सकी है, उसका सम्पूर्ण श्रेय आपको जाता है। मुनि श्री ने अपने गुरु जी की आज्ञा को पूरी तरह से अपने निर्देशन में परिपूर्ण किया है। जिस कक्ष में सल्लेखना चल रही थी, उसके बाहर लिखा था:- कक्ष में ”केवल ब्रह्मचारी भैया ही प्रवेश करें।” इस कमरा नं. 7, के बाहर यह भी लिखा हुआ था:- “कृपया शोर न करें, यहाँ पर दादा जी की सल्लेखना चल रही है।” यह तो सिर्फ मुनि श्री सम्भवसागर जी की सूझ-बूझ का एक उदाहरण मात्र है। सल्लेखना को उसकी अन्तिम परिणिति तक पहुँचाने के श्रेय के अधिकारी तो ये मुनिराज जी हैं।

विदिशा आगमन:-

समाधि-मरण धारण करने के धारक विमलचन्द को गुरुवार 25, सितम्बर के दिन प्रात: विदिशा के शीतलधाम परिसर में स्थित मूलनायक भगवान आदिनाथ जी के मन्दिर पीछे, सीढ़ी के पास में लेटाया गया था। चलते-फिरते रत्नाकर आचार्य श्री जब जंगल से वापस लौट कर आये, तो दादा जी को देखकर रुक गये। दादा जी ने गुरुवर के श्री चरणों में विनयपूर्वक नमन किया। श्रद्धा से श्रीफल अर्पण किया। चरण स्पर्श किये। बोले- “हे गुरुदेव अपने मन से घर-परिवार का त्याग कर आपकी चरण-शरण में आया हूँ। आपके चरणों में विधिवत सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ। मन-वचन-काय से आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। मेरा समाधिमरण कर दो। मुझे अनुग्रहित कर दो।

समाधि-धारक की भावना को सुनकर आचार्य श्री ने आशीर्वाद दिया। 26, सितम्बर को प्रात:काल में पहली बार आपको आचार्य श्री के कक्ष में ले जाया गया। आचार्य श्री को दादा जी के बारे में जानकारी बताने के लिये मुझे (निर्मलकुमार पाटोदी) व उनके दोनों बेटों धनकुमार तथा अशोक पाटोदी को बुलाया गया। आचार्य श्री ने पूछा ये यहाँ क्यों आये हैं। हमें इनके बारें कुछ मालुम नहीं है। बिना बताए, बिना पूछे आये हैं। किसी ने हमें बताया कि इन्होंने अपने मन से उपवास कर लिये हैं। कौन ने किये हैं, मालुम नहीं था।

आचार्य श्री जी तक चार बार दादा जी की सल्लेखना से सम्बन्धित जानकारी अर्पित पाटोदी ने विदिशा के प्रमुख पदाधिकारियों के माध्यम से आचार्य श्री जी तक पहुँचाई थी। मैंने आचार्य महाराज जी को बताया कि इनका धार्मिक वातावरण रहा है। स्वाध्यायी रहे हैं। बहुत सी धार्मिक भक्तियां कण्ठस्थ हैं। दो-तीन वर्षों से आपके सान्निध्य में सल्लेखना ग्रहण करने का आग्रह कर रहे थे। कई वर्षों तक पर्युषण-पर्व पर आपके वर्षायोग में मुक्तागिरि, कुण्डलपुर, महुआ पारसनाथ, रामटेक गये हैं। कोई व्रत-प्रतिमा ली हुई नहीं है।

दोनों लड़कों धनकुमार, अशोक पाटोदी ने बताया:- बनेड़िया जी में सौ के लगभग विधान रचा कर पूजन की है। सोमवार 15, सितम्बर को सुबह के भोजन के बाद से दवा तथा सभी खाद्य-पदार्थों का अचानक बिना बताये त्याग कर दिया है। आचार्य श्री ने सब जानकारी सुनकर कहा- जल का त्याग, उपवास सल्लेखना में अपने मन से नहीं किये जाते हैं। समाधि में काफ़ी समय पहले से क्रम से नियमानुसार त्याग किया जाता है।

अब आचार्य श्री ने दादा जी से पूछा क्या चाहते हो? दादा जी हाथ जोड़कर बोले- आपकी चरण-शरण में रहना चाहता हूँ। मेरी समाधि करा दो। व्रति बना दो। शरीर का मोह नहीं है। यह तो नश्वर है। आप जैसा कहोगे, आज्ञा का पालन करूँगा। अनन्तानन्त भवों की सब से क्षमा चाहता हूँ। सब को क्षमा करता हूँ। यह सुनकर आचार्य श्री ने कहा- ‘अच्छा।’ फिर कहा- ‘बहुत अच्छा।’ दादा जी बोले- आपके चरण स्पर्श करना है। आचार्य श्री ने पैर आगे बढ़ा दिये। दादा जी ने चरण छूकर हाथ मस्तक पर लगा लिये।

आचार्य श्री ने कहा- आपको जैसा बतायेंगे, वैसा करना है। दादा जी ने हाथ जोड़कर कहा- जैसा आप कहेंगे, वैसा करूँगा। दादा जी की सजगता और समाधि के प्रति दृढ़ वैराग्य भावना के उदय से आचार्यश्री प्रसन्न दिख रहे थे। इसी दिन कायोत्सर्ग कराने के बाद दादा जी का परिवेश ब्रह्मचारी का कर दिया गया। अब दादा जी दस प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी हो गये थे। किसी भी गृहस्थ को इतने कम समय में वह भी आचार्य श्री जी जैसे आगम के दृढ़-पालक के सुसानिध्य में दस प्रतिमाएँ मिल जाना बहुत बड़ी बात है। इसके लिये साधना देखी जाती है। चर्या को आगम की कसौटी पर परखा जाता है। दादा जी संयम के पथ पर जिस दृढ़ता से आगे बढ़े, वह उनका पिछले दिनों में मन-वचन-काय से की गयी साधना और त्याग का फल था। दृढ़ इच्छा शक्ति से उत्कृष्ट साधक बन गये।

यह कोई सोच नहीं सकता था कि जिसने आज तक आचार्य श्री जी से कोई व्रत-नियम नहीं लिया हो, उसे आचार्य श्री ने शरण दे दी, समाधिमरण के लिये सान्निध्य प्रदान कर दिया। निश्चित ही यह जन्म-जन्म के महान पुण्य के बन्ध का फल है। अति दुर्लभ प्रमाण है। भक्ति-भावना उत्तरोत्तर विकसित होती गयी। यह साधना, संयम, तप-त्याग और गुरु आज्ञा का पालन का फल कहा जा सकता है। यह उनकी असार से सार की ओर बढ़ने वाली मोक्ष यात्रा है। यह सत्य है कि आचार्य श्री जी के संघ में साधक की चर्या को आगम की कसौटी पर परखा जाता है।

अब दादा जी की भावना पूछकर 24 घण्टे में दिन में एक बार जल दिया जाने लगा। 8वीं, 9वीं और 10वीं प्रतिमाओं के बारे में समझाया गया। तो बोले मेरा जीवन धन्य हो गया। तख़्त से नीचे पटिये पर लेटा दिया गया था। जितने दिन दादा जी की समाधि चली सभी दिन आचार्य महाराज जी के कक्ष में अनुमति लेकर ले जाया जाता। जब भी पिच्छी सिर पर लगाने की भावना कहते, तो आचार्य श्री पिच्छी लगा देते थे। चरण पखारने की इच्छा व्यक्त करते, तो चान्दी का कलश उनके हाथ में दे दिया जाता, वे चरण पखार कर, गन्धोदक सिर पर लगा लेते थे। आपको हर दिन गुरु महाराज जी का आशीर्वाद मिलता था। हर दिन मन्दिर के दरवाज़े के बाहर दर्शनार्थ ले जाया जाता था। जहां वे माला जप लेते थे।

कुछ उल्लेखनीय घटनायें :- 
(क). एक दिन की बात है ब्र. जी ने कहा घबराहट हो रही है, मुनि श्री योगसागर जी को बुला दो। कुछ ही समय में मुनि श्री योगसागर जी, प्रसादसागर जी व अन्य मुनिगण आ गये। योगसागर जी ने पूछा मुझे पहचानते हो। ब्र. जी बोले- गोमट्टगिरि में आये थे। फिर कहा- घबराहट हो रही है। पूर्ण त्याग करा दो। मुनि श्री ने कहा कुछ नहीं होगा, गुरु जी ने जो कहा है, उनके वचन पर श्रद्धान करो। समाधिस्थ भव्य आत्मा ने शान्त होकर नमन किया।

(ख). एक दिन आचार्य श्री ने समाधिस्थ से पूछा- जल ले रहे हो। बोले- गला सूख रहा है। आचार्य श्री ने कहा ठीक है, एक बार जल लेना है। आचार्य श्री ने कायोत्सर्ग के लिये चत्तारी मंगलम बोलने का कहा। ब्र. जी ने सुना दिया।

(ग). ऐसे ही एक दिन 3, अक्तूबर की बात है। इस दिन आचार्य श्री का उपवास होने से मौन था। नित्यानुसार आत्म-साधक को आचार्य श्री जी के कक्ष में ले गये थे। वहाँ ये बोले जब तक चरण स्पर्श नहीं करूँगा, जल नहीं लूँगा। संघ के साधुओं की उपस्थित में चरण-स्पर्श की भावना पूरी हो गयी थी।

(घ). एक दिन शान्ता दीदी, स्वर्णा दीदी ने कहा- दादा जी आप जीत गये हैं। अब थोड़ा समय और रह गया है। सीमन्धर भगवान के नन्दीश्वर द्विप में दर्शन करने जाओगे। सुनकर बहुत प्रसन्न हो गये। चित्त प्रफुल्लित हो गया।

(ङ). 30, सितम्बर के दिन आचार्य श्री जी से बोले- मेरा नाम बदल दो। पूछा आत्मा में कैसा लग रहा है? बोले- आत्मा शुद्ध है। 2, अक्तूबर को ब्र. जी पुन: आचार्य श्री जी से बोले- मेरा नाम रख दो। आचार्य श्री जी ने पूछा- आप कौन हो? बताया- ‘आत्मा’। आचार्य श्री जी ने कहा- ‘आत्माराम’।

(च). 8, अक्तूबर के दिन आचार्य श्री जी ने ब्र. जी से पूछा- कोई परिग्रह तो नहीं है? ब्र. जी ने बताया मैं सब परिग्रह का त्याग कर के आया हूँ। जो दान देना था, दे कर यहाँ आया हूँ।

(छ). विदिशा में समाधिस्थ साधक जी के आने पर उसी दिन से प्रात: से अन्त तक दोनों ब्र. दीदिया। शान्ता दीदी- स्वर्णा दीदी भी उपस्थित रहीं। दिन उगते ही आप साधक को स्तोपदेश की गाथाऐं, अनित्य, अशरण आदि भावनाऐं सुनाती थी। आध्यात्मिक गाथाऐं सुनाती थी। इनको सुन कर साधक को आत्म शान्ति मिलती थी। बड़े ख़ुश हो जाते थे।

(ज). 9, अक्तूबर को ब्र. जी आचार्य महाराज जी से बोले- भव-भव में आपकी शरण मिले। आख़री नमस्कार स्वीकार कर लो। आचार्य श्री बोले- ‘साहस रखो’। इस दिन कान में णमोकार मंत्र सुनाया।

(झ). 13, अक्तूबर के दिन ब्र. जी ने आचार्य श्री जी से कहा- मुझे लग रहा है। मेरा अन्तिम समय है। एक मुनिराज जी का सान्निध्य हमेशा मिलता रहे। आचार्य श्री जी- अच्छा, अच्छा एक मुनिराज जी। साधक ने पुन: कहा- जल भी बन्द करा दो। पूर्ण त्याग करा दो। आचार्य श्री जी बहुत ख़ुश हुए। आशीर्वाद दिया। फिर क्या था? दिन भर एक के बाद एक मुनिगण ब्र. जी के कमरें में आते रहे। इस दिन रात्रि में पहले मुनि श्री निस्संगसागर जी का आगमन हुआ। पहले दोनों महाराज जी के पैर पर हाथ रखा था। अन्त में निरामयसागर जी ‘अरिहन्त-अरिहन्त’ सुना रहे थे। इसी के साथ मुनिराज जी के चरण पकड़े हुए मुखारबिन्द से ‘अरिहन्त’ शब्द निकला। इस जीवन में दस प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी अवस्था में रहते हुए उनकी अन्तिम श्वांस पूरी हो गयी। यह समय रात के लगभग दस बजकर बीस मिनट का था।

(ञ). मंगलवार 14, अक्तूबर 2014 कार्तिक कृष्ण-6, के दिन प्रात: काल ब्र. जी की देह को पहले सन्त निवास के सामने बने पाण्डाल में दर्शनार्थ रखा गया। 9, बजे के लगभग विदिशा के पास साँची स्तूप के सामने स्थित पहाड़ी जो उदयगिरि के नाम से शीतलनाथ भगवान का प्राचीन कल्याणक स्थल है, उसकी तलहटी में पूर्व में दो समाधियाँ है। इन दोनों समाधियों के बीच में अन्तिम संस्कार के लिये चुना गया। समाज के पण्डित जी ने धार्मिक विधि से क्रियाएं कराईं। ब्र. प्रिंकेश भैया जी ने शान्ति पाठ बोला। उपस्थित अन्य भैयाजियों ने भी भक्ति बोली।

यहां परिवार के सभी सदस्य उपस्थित थे। विदिशा समाज के अध्यक्ष अशोक जी सिंघई, तथा महामंत्री प्रद्युमन जी, प्रमुख पदाधिकारी राजीव जी जैन, वरिष्ठ पत्रकार अविनाश जैन आदि महानुभाव मौजूद थे। क्रिया की पूरी सुव्यवस्था समाज की ओर से की गयी थी। समाधिस्थ का अन्तिम संस्कार मृत्यु-महोत्सव के रूप में मनाया गया। सभी के मन में आनन्द था, उत्साह था। मुख्य रूप से दोनों ब्र. दीदीयां शान्ता दीदी, स्वर्णा दीदी भी यहाँ पर उपस्थित हुई थीं। समाधि- साधक समाधिस्थ हो गये थे। उनका समाधि-मरण 29वें दिन हुआ।

आचार्य समन्तभद्र स्वामी जी की ‘श्रावकाचार’ की गाथा ‘सल्लेखना-अधिकार’, भगवती आराधना, ‘मरण-कण्डिका’, तथा ‘मृत्यु-महोत्सव’ के अनुसार समाधि-मरण तीन प्रकार से होता है। तदनुसार आत्म साधक की सल्लेखना ‘भक्त प्रत्याखान’ है।

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