महावीर जयंती
श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ
तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म–दिन महावीर जयंती के नाम से प्रसिद्ध है। महावीर स्वामी का जन्म चैत्र त्रयोदशी को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था। ईस्वी काल गणना के अनुसार सोमवार, दिनांक 27 मार्च, 598 ईसा पूर्व के मांगलिक प्रभात में वैशाली के गणनायक राजा सिद्धार्थ के घर महावीर स्वामी का जन्म हुआ।
महावीर स्वामी का तीर्थंकर के रूप में जन्म उनके पिछले अनेक जन्मों की सतत साधना का परिणाम था। कहा गया है कि एक समय महावीर का जीव पुरूरवा भील था। संयोगवस उसने सागरसेन नाम के मुनिराज के दर्शन किये। मुनिराज रास्ता भूल जाने के कारण उधर आ निकले थे। मुनिराज के धर्मोपदेश से उसने धर्म धारण किया। महावीर के जीवन की वास्तविक साधना का मार्ग यहीं से प्रारम्भ होता है। बीच में उसे कौन-कौन से मार्गों से जाना पडा, जीवन में क्या-क्या बाधायें आयीं और किस प्रकार भटकना पडा? यह एक लम्बी और दिलचस्प कहानी है, जो सन्मार्ग का अवलम्बन कर जीवन के विकास की प्रेरणा देती है। महावीर स्वामी का जीवन हमें एक शांत पथिक का जीवन लगता है जो कि संसार में भटकते-भटकते थक गया है। भोगों को अनंत बार भोग लिये, फिर भी तृप्ति नहीं हुई। अतः भोगों से मन हट गया, अब किसी चीज की चाह नहीं रही। परकीय संयोगों से बहुत कुछ छुटकारा मिल गया। अब जो कुछ भी रह गया उससे भी छुटकारा पाकर महावीर मुक्ति की राह देखने लगे।
एक बार बालकों के साथ बहुत बडे वटवृक्ष के ऊपर चढकर खेलते हुए वर्द्धमान के धैर्य की परीक्षा करने के लिये संगम नामक देव भयंकर सर्प का रूप धारण कर उपस्थित हुए। सर्प को देखकर सभी बालक भाग गये, किंतु वर्द्धमान इससे जरा भी विचलित नहीं हुए। वे निःशंक हो कर वृक्ष से नीचे उतरे। संगमदेव उनके धैर्य और साहस को देख कर दंग रह गया। उसने अपना असली रूप धारण किया और उनकी महावीर स्वामी नाम से स्तुति कर चला गया।
महान पुरुषों का दर्शन ही संशयचित लोगों की शंका का निवारण कर देता है। संजय और विजय नामक दो ऋद्धिधारी देव थे जिन्हें तत्त्व के विषय में कुछ शंका थी। कुमार वर्द्धमान को देखते ही उनकी शंका दूर हो गयी। उन दो यतियों ने प्रसन्नचित्त हो कुमार का सन्मति नाम रखा।
एकदिन 30 वर्ष का यह त्रिशलानन्दन कर्मों का बन्धन काटने के लिये तपस्या और आत्मचिंतन में लीन रहने का विचार करने लगा। कुमार की विरक्ति का समाचार सुनकर माता-पिता को बहुत चिंता हुई। कुछ ही दिनों पहले कलिंग के राजा जितशत्रु ने अपनी सुपुत्री यशोदा के साथ कुमार वर्द्धमान के विवाह का प्रस्ताव भेजा था। उनके इस प्रस्ताव को सुनकर माता-पिताअ ने जो स्वप्न सँजोए थे, आज वे स्वप्न उन्हें बिखरते हुए नजर आ रहे थे। वर्द्धमान को बहुत समझाया गया। अंत में माता-पिता को मोक्षमार्ग की स्वीकृति देनी पडी। मुक्ति के राही को भोग जरा भी विचलित नहीं कर सके। मंगशिर कृष्ण दशमी सोमवार, 29 दिसम्बर, 569 ईसा पूर्व को मुनिदीक्षा लेकर वर्द्धमान स्वामी ने शालवृक्ष के नीचे तपस्या आरम्भ कर दी। उनकी तप साधना बडी कठिन थी।
महावीर की साधना मौन साधना थी, जबतक उन्हे पूर्ण ज्ञान नहीं की उपलब्धि नहीं हो गयी, तबतक उन्होंने किसी को उपदेश नहीं दिया। वैशाख शुक्ल दशमी, 26 अप्रैल, 557 ईसा पूर्व का वह दिन चिरस्मरणीय रहेगा जव जृम्भक नामक ग्राम में अपराह्न समय।
गौतम उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) हुए। उनकी धर्मसभा समवसरण कहलायी। इसमें मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी प्राणी उपस्थित होकर धर्मोपदेश का लाभ लेते थे। लगभग 30 वर्ष तक उन्होंने सारे देश में भ्रमणकर लोकभाषा प्राकृत में सदुपदेश दिया और कल्याण का मार्ग बतलाया। संसार-समुद्र से पार होने के लिये उन्होंने तीर्थ की रचना की, अतः वे तीर्थंकर कहलाये।
आचार्य समंतभद्र ने भगवान के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ कहा है। व्यक्ति के हित के साथ-साथ महावीर के उपदेश में समष्टि के हित की बात भी निहित थी। उनका उपदेश मानव मात्र के लिये सीमित नहीं था, बल्कि प्राणीमात्र के हित की भावना उसमें निहित थी। महावीर भ्रमण परम्परा के उन व्यक्तियों में थे जिन्होंने यह उद्घोषकिया था कि प्राणीमात्र समान है। मनुष्य और क्षुद्र कीट-पतंग में आत्मा के अस्तित्व की अपेक्षा कोई अंतर नहीं था। उस समय जबकि मनुष्य के बीच में दीवालें खडी हो रहीं थीं, किसी वर्ण के व्यक्ति को ऊँचा और किसी को नीचा बता कर एक वर्ग विशेष का स्वत्वाधिकार कायम किया जा रहा था, उस समय मानवमात्र क्या प्राणीमात्र के प्रति समत्वभाव का उदघोष करना बहुत बडे साहस की बात थी। तत्कालीन अन्य परम्परा के लोगों द्वारा इसका घोर विरोध हुआ। अंत में सत्य की विजय हुई। करोडों-करोडों पशुओं और दीन-दुःखियों ने चैन की साँस ली। समाज में अहिंसा का महत्व पुनर्स्थापित हुआ।
महावीर स्वामी ने नारा बुलन्द किया कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकता है। कर्मों के कारण आत्मा का असली स्वरूप अभिव्यक्त नहीं हो पाता है। कर्मों को नाश कर शुद्ध, बुद्ध, निरज्जन और सुखरूप स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार तीस वर्ष तक तत्त्व का भली-भाँति प्रचार करते हुए भगवान महावीर अंतिम समय मल्लों की राजधानी पावा पहुँचे। वहाँ के उपवन में कार्तिक कृष्ण अमावस्या मंगलवार, 15 अक्टूबर, 527 ई. पू. को 72 वर्ष की आयु में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।