आचार्यश्री समयसागर जी महाराज इस समय डोंगरगढ़ में हैंयोगसागर जी महाराज इस समय चंद्रगिरि तीर्थक्षेत्र डोंगरगढ़ में हैं Youtube - आचार्यश्री विद्यासागरजी के प्रवचन देखिए Youtube पर आचार्यश्री के वॉलपेपर Android पर आर्यिका पूर्णमति माताजी डूंगरपुर  में हैं।दिगंबर जैन टेम्पल/धर्मशाला Android पर Apple Store - शाकाहारी रेस्टोरेंट आईफोन/आईपैड पर Apple Store - जैन टेम्पल आईफोन/आईपैड पर Apple Store - आचार्यश्री विद्यासागरजी के वॉलपेपर फ्री डाउनलोड करें देश और विदेश के शाकाहारी जैन रेस्तराँ एवं होटल की जानकारी के लिए www.bevegetarian.in विजिट करें

गिरनार एवं सम्मेद शिखर जी

यात्रा के सैकडों साल पुराने प्रमाण-
शिखर जी गिरनार जी तीर्थ सदा से हमारे थे, हैं और रहेंगे प्रमाण सहित अत्यन्त गर्व करने का प्रासंगिक विषय यह है कि दिगम्बर जैन धर्म, उसकी संस्कृति और तीर्थ भारत में प्राचिनतम हैं।
भारतवर्ष का प्राचिनतम धर्म ‘जैन धर्म’ है और संस्कृतियों में ‘श्रमण संस्कृति’ रही है। धर्म की दो धाराएँ हैं – 1. श्रमण, 2. वैदिक। वैदिक युग में आर्हत संस्कृति का प्रसार हमारे देष में भली-भाँति व्याप्त था। आर्हत ‘अर्हत्’ के उपासक थे। तीर्थन्कर पाष्र्वनाथ के समय तक जैन धर्म के लिए ‘आर्हत’ शब्द ही प्रचलित था। जो वैदिक युग के पूर्व में भी प्रचलित था। इस काल में ‘पणी’ और ‘व्रात्य’ अर्हत धर्म को मानने वाले थे। पणि भारत के ‘आदिम’ व्यापारी थे। वे समृद्ध थे, ज्ञान में बढ़े-चढ़े थे। आगे चलकर वणिक हो गये, जो बनिये नाम से पहचाने जाते हैं। ये आत्मा को सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि मानते थे। इनका कहना था ब्रह्म या ईषवर को मानने की क्या आवष्यकता है? अर्हत पद के तीन नाम ‘अरहन्त’, ‘अरिहन्त’ और ‘अरूहन्त’ हैं। ‘अरूहन्त’ पद में निहित रकारोन्तरवर्ती उकार उद्वेग स्तम्भनबीज हैं। इन पदों का प्रयोग छटवी-सातवीं शती में हुआ। खारवेल के षिलालेख में तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों की पाण्डुलिपियों में ‘अरहत’ पद भी उपलब्ध होता है। ‘‘णमोकार मन्त्र’’ के पाठालोचन में ‘अरहन्त’ पद है। अरिहन्त पद ‘अरि’ शब्द में निहित इकार शक्ति बोधक बीज है। इसका व्यवहार उस शक्ति के लिये किया गया है, जो लौकिक कामनाओं को पूर्ण करने वाली है।
दिगम्बर जैन धर्म प्राचीन है। स्वभाविक है इसके अनुयायी भी उसके उद्भव काल से रहे हैं। श्रमण धर्म संस्कृति के विकास ने तीर्थन्कर भगवंतों के आगमन के बाद एक नये काल में प्रवेष किया था। तीर्थन्कर भगवान की परंपरा आदि प्रभु ऋषभदेव से महावीर तक चली है। इनके समानान्तर संतगणों में आचार्य, मुनि होते रहे हैं। बाद में भट्टारकों का पदार्पण हो गया। इसी के साथ पंचकल्याणक/प्रतिष्ठाओं व मूर्ति/बिम्ब स्थापना का इतिहास भी कम प्राचीन नहीं है। शास्त्र भण्डार, मूर्ति लेखों, षिलालेखों, प्रषस्तियों, पट्टावलियों, अभिलेखों, हस्तलिखित पाण्डुलिपियों, सिद्धान्त ग्रंथों के साथ ही साथ जीवंत प्राचीन मंदिर आदि आज भी प्रमाण – स्वरूप हमारे समक्ष विद्यमान हैं।
साधारणतः हम जिस स्थान की यात्रा करने के लिये जाते हैं, उस स्थान को तीर्थ कहते हैं। तीर्थ भवगसागर से पार उतरने का मार्ग बताने वाला स्थान है। जिस स्थल से तीर्थन्कर भगवान को निर्वाण प्राप्त हुआ है, वह सिद्ध क्षेत्र है। ऐसे स्थानों को सौधर्मेन्द्र ने अपने वज्र दण्ड से चिह्मित कर दिया था। उस स्थान पर श्रद्धालु-चरण चिह्म बनवा देते थे। उन स्थानों पर प्राचीनकाल से अब तक चरण-चिह्म बने हुए हैं और आराधक/भक्त इन्हीके चरण-चिह्मों की पूजा-अर्चना करते रहे हैं।
तीर्थों में उच्च शिखर, युक्त आस्था का परम पावन अनादि निधन तीर्थाधिराज श्री सम्मेदशिखरजी (पाष्र्वनाथ पर्वत) दिगम्बर जैन धर्म का हमेषा से सिद्धभूमि शाष्वत धर्मतीर्थ है। वर्तमान चैबीस तीर्थन्करों में से भगवान आदिनाथ / ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीर को छोड़ कर शेष बीस तीर्थन्कर तथा करोड़़ों वीतरागी भव्य आत्माओं ने इस पर्वतराज के विभिन्न शिखर से निर्वाण पद पाया है। भगवान महावीर के गणधर गौतम स्वामीं को भी इसी सिद्धक्षेत्र से मोक्ष पद मिला है। इन सभी के दिगम्बर आम्नाय के चरण-चिह्म श्री सम्मेद शिखरजी पहाड़ पर विराजमान हैं।
दिगम्बर जैनियों में तीर्थयात्रा के लिये चतुर्विध संघ निकालने की परम्परा बहुत पुरानी है। सैकड़ों वर्ष पूर्व में जब आवागमन के साधन और सुविधाएँ बहुत कम थी, तब भी अपना इहलौकिक व परलौकिक जीवन मंगलमय बनाने और कर्मों की निर्जरा के लिए हजारों हजार दिगम्बर जैन श्रृद्धालु और यात्री संघ इस महापवित्र सम्मेद षिखर तीर्थराज तथा श्री गिरनारजी पर्वत आदि की वन्दना करते रहे हैं।
निर्वाण भूमि षिखर जी की महिमा का उल्लेख कुछ ऐसे भी हुआ हैः-
1. बीसों सिद्ध भूमि जा ऊपर षिखर सम्मेद महागिरि भूपर।
भाव सहित बन्दे जो कोई ताहि नरक पशु गति नहीं होई।।
श्री सम्मेद षिखर जी की बड़ी पूजन में कहा गया हैः-
2. श्री सम्मेद षिखर सदा, पूजों मन-वच-काय।
हरत चतुर्गति दुःख को, मन वांछित फल  दाय।।
पं. द्यानतराय जी के अनुसारः-
3. एक बार वन्दे जो कोई, ता ही नरक पशु गति नहीं होई।
कहा जाता है इस पर्वतराज की एक बार भी शुद्धभाव से जो वंदना करता है, तो इसके प्रबल प्रभाव से वह व्यक्ति अधिक से अधिक 49 भवों में मुक्ति द्वार का अधिकारी हो जाता है। षिखर जी तीर्थ क्षेत्र 38 वर्ग किलो मीटर अर्थात् 16000 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। भूतल से इसका वन्दना पथ 9 किलो मीटर की चढ़ाई, 9 किलो मीटर समतल चरण-चिह्म षिखर क्षेत्र और 9 किलो मीटर उतार का है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 5200 फीट है। परिक्रमां 30 किलो मीटर लम्बी है।
श्री सम्मेद षिखर जी की सैकड़ों वर्ष पहले यात्राएँ:-
1. वीतराग ऊर्जा की अवर्णनीय पावन धरा तीर्थों मंे पहला तीर्थ श्री सम्मेद षिखर जी का आठ सौ साल पहले संवत 1384 में आत्म कल्याण के लिये चाटसू (राजस्थान) से संघपति तीको एवम् उसके परिवार ने वन्दना की थी। उस समय प्रसिद्ध भट्टारक प्रभाचन्द्र का पट्टाभिषेक आत्मषोधन की इस पावन धरा पर संवत 1571 फागुन सुदी 2 के शुभ दिन हुआ था।
2. संवत 1658 में आमेर के पूर्व महाराजा मानसिंह के प्रधान अमात्य साह नानू गोधा ने यहाँ षिखर जी में दिगम्बर जैन मंदिर बनवाएँ तथा तीर्थन्करों के चरण स्थापित किये और कई बार वंदना की।
3. भट्टारक का पट्टाभिषेक सम्मेद षिखर जी में हुआ था। वे संवत 1622 से 40 साल तक पट्टस्थ रहे थे।
4. संवत 1719 फागुन सुदी 9 को साह नरहरिदास सुखानंद ने पहाड़ पर पंचकल्याण प्रतिष्ठा करवायी थी।
5. संवत 1632 में सम्मेद षिखर जी पर फिर से प्रतिष्ठा करवा कर महान पुण्य का अर्जन किया था। इस समय सुरेन्द्र कीर्ति भट्टारक की गादी पर विराजमान थे।
6. संवत 1863 की माघ बदी सप्तमीं को जयपुर के दीवान रामचन्द्र छाबड़ा ने अपने विषाल संघ के साथ सम्मेदषिखर जी की प्रथमबार वंदना की थी और वहाँ विकास के कार्य करवाये थे। इनकी यात्रा संघ में पाँच हजार स्त्री – पुरूष थे।
7. भादवा (राजस्थान) के सुखराम रावका (18 वीं शताब्दी) कवि ने संवत 1830 को रवाना होकर संवत 1831 के श्रावण मास के कृष्णपक्ष में यात्रा करके षिखर जी वापस लौटे थे।
8. विक्रम संवत 1867, कार्तिक कृष्ण पंचमीं बुधवार को मैनपुरी (उ.प्र.) से सम्मेद षिखर यात्रा के लिये एक यात्रा संघ गया था। यहाँ के दिगम्बर जैन धनाढ्य साहू धनसिंह का शुभ भाव श्री सम्मेद षिखर जी की यात्रा संघ सहित कराने का हुआ था। कहते हैं इस यात्रा संघ मंे करीब 252 बैलगाड़ियाँ और 1222 यात्रीगण थे। यात्रा का वृतान्त ‘‘सम्मेद षिखर की यात्रा का समाचार’’ नामक हस्त लिखित पुस्तिका में है। यात्रा संघ रास्ते की यात्रा करते हुए माघ बदी 3 को पालगंज पहुंचा था। माघ बदी 5 को संघ मधुबन में ठहरा था। बसंत पंचमीं को संघ ने श्री सम्मेद षिखर पर्वत की वंदना की थी। माघ सुदी 15 को मधुबन से वापसी के लिये संघ ने प्रस्थान किया था। बैसाख बदी 12-13 को यात्री संघ वापस मैनपुरी पहुंचा।
यात्राएँ: उज्र्जयन्त तीर्थ गिरनार जी की –
1. संवत 503 में महणसी बाकलीवाल के पुत्र कोहणसी ने 24 प्रतिष्ठाए करवायी थी। बाद में इन्हीं कोहणसी के पुत्र बीजल पुत्र गोसल ने संवत 625 में आचार्य भानचंद जी के सानिध्य में गिरनार तक संघ चलाया।
2. संवत 1245 माह सुदी को भट्टारक नरेन्द्र कीर्ति के समय मंे हेमू के पौत्र बैरा ने गिरनार तक यात्रा संघ चलवाया।
3. संवत 1709 में नेवटा निवासी तेजसी उदयकरण सम्यग्ज्ञान शक्ति यंत्र की प्रतिष्ठा गिरनार जी मंे करवा कर जयपुर के पाटोदियान मंदिर में उसे विराजमान किया था।
4. रचना ‘जात्रासार’ में गिरनार जी एवं तारंगा क्षेत्र की यात्राओं का वर्णन है। यात्रा संवत 1829 के पूर्व की थी।
5. संवत 1858 बैषाख सुदी 10 को संघ दीवान जयपुर के रामचन्द्र छाबड़ा ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करायी। रैवतकाचल (गिरनार) की पूरे संघ के साथ यात्रा की।
भारत में दिगम्बर जैन समाज की पाँच राष्ट्रीय संस्थाएँ हैं – 1. दिगम्बर जैन महा समिति, 2. अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद्, 3. दक्षिण भारत जैन सभा, 4. भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा, 5. भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी। इनमें से तीर्थक्षेत्र कमेटी, मुम्बई की ओर से मोक्ष सप्तमीं 2012 से 2013 तक श्री सम्मेद षिखर वर्ष मनाने की घोषणा की गयी है। श्रेयस्कर यह होता की घोषणा पाँचों राष्ट्रीय संस्थाओं के द्वारा बनी समन्वय समीति की ओर से होती। विडम्बना यह है कि राष्ट्रीय संस्थाओं की ओर से धर्म के सबसे बड़े तीर्थाधिराज वर्ष मनाने का निर्णय क्यों नहीं लिया गया? षिखर जी पूरे दिगम्बर जैन समाज का है। संदेष पूरे समाज की राष्ट्रीय संस्थाओं की ओर से जाना था, जिसमें आव्हान होता कि षिखर जी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जो प्रकरण विचारधीन है, उसकी जानकारी दी जाती । शिखर जी तीर्थ की रक्षा से जुडी आवष्यक जानकारियाँ समाज को व संतगणों को पहुंचाई जाती। सिर्फ पर्यावरण स्वच्छता, शुद्धता ही वहाँ की समस्याएँ नहीं हैं।


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निर्मलकुमार पाटोदी

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