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मृत्यु महोत्सवः एक वीतरागी संत की “यम सल्लेखना”

नई दिल्ली, 21 सितंबर (शोभना/अनुपमा जैन, वीएनआई) राजधानी स्थित कुंद कुंद भारती संस्थान,बादलों से घि्रा आसमान, माहौल में एक अजीब सी पवित्रता।।शांति। पिछले तीन दिन से यहा मंत्रोच्चार का पाठ निरंतर जारी था।।।मंत्रोच्चार, स्त्रोत पाठ की पवित्र ध्वनि, जप ध्यान के बीच, मुनिगण, आर्यिकाओं और श्रावकों के बीच बेहद अशक्त लेकिन चेतन, निराकुल अवस्था में महान तपस्वी, दार्शनिक, अध्येता संत आचार्य विद्द्यानंद लेटे थे।

कृशकाय देह, घोर, तप साधना से दैदीप्यमान। उन के आस पास दिव्यता का घेरा सा लगा नजर आया। यह दिव्यता थी आचार्य श्री “यम सल्लेखना महोत्सव” की। पिछले बारह वर्ष से सल्लेखना साधना कर रहे ९५ वर्षीय वयोवृद्ध तपस्वी संत ने तीन दिन पहले की सुबह तड़के विधि विधान से यम सल्लेखना ग्रहण कर समाधि मरण की और लंबा डग बढाया था। बड़े से कक्ष में मंत्रोच्चार के बीच जैन धर्म की चर्याओं के अनुरूप समाधि मरण का पाठ चल रहा था। वहा मौजूद संत जहा दार्शनिक मुद्रा में तटस्थ भाव के साथ आचार्य श्री को घेरे हुए थे, उन्हें “उद्बोधन” दे रहे थे, वही श्रधालु उन के दर्शन करते हुए कतार बद्ध तरीके से आगे बढ रहे थे। कुछ ऑखे नम थी, ऑसू पोंछ रही थी तो कुछ इस महान तपस्वी को वीतरागी भाव से मोक्ष मार्ग के लिये विदा दे रहे थे। लंबी अखंड साधना के बाद आचार्य श्री को आचार्य श्री श्रुत सागर और आचार्य श्री वसु नंदी जी ने यम सल्लेखना दिलवाई।

आचार्य श्री तभी से संयम , धैर्य से नियम पूर्वक यम सल्लेखना का पालन कर रहे है। यम सल्लेखना के लगभग ६४ घंटे के बाद उनकी शक्ति भले ही क्षीण है लेकिन स्वास्थ स्थिर है और पूर्ण मनोबल से यम सल्लेखना करते हुए समाधि मरण की और अग्रसर हैं। आयु कर्म पूरा होने पर जैन दर्शन में मृत्यु वरण के लिये सल्लेखना का उल्लेख किया गया हैं। ( यम सल्लेखना इसी सल्लेखना की अंतिम अवस्था हैं जब कि इस का कर्ता सल्लेखना काल में धीरे धीरे आहार का त्याग करने के बाद यम सल्लेखना ग्रहण करने के बाद मृत्यु वरण से पहले आहार जल, आषधि सभी का त्याग कर देता है और स्थिर प्रग्य भाव से समाधि मरण के लिये तप करते हैं)। यम सल्लेखना आयु कर्म पूरा होने के बाद मृत्यु महोत्सव की और बढते कदम हैं महान संत विनोबा भावे ने भी सल्लेखना के जरिये ही मृत्य वरण किया था।

तीन दिन पूर्व ही आचार्यश्री के अंतिम दर्शन का दृश्य ऑखों से हट ही नही रहा था। इसी रविवार हम सभी परिवार जन उन के दर्शनार्थ गये। सल्लेखना काल में उन्होंने आहार का त्याग कर रखा था। केवल तरल पदार्थ ग्रहण कर रहे थे वह भी केवल चावल का मांड ही ग्रहण ग्रहण कर रहे थे ( दिगंबर जैन धर्म की चर्या के अनुरूप जैन मुनि केवल दिन में एक ही बार आहार जल ग्रहण करते। आहार भी हाथ की अंजुरी में गहण करते हैं और वह भी ग्रास गिन कर) उस दिन वे बहुत निर्बल, अशक्त लग रहे थे, शांत निश्चल लेटे हुए थे, श्रद्धालु नारियल , पूजा समग्री चढाते हुए उन के दर्शन कर रहे थे।मैंने जब उन्हे परिवार की तरफ से नमोस्तु किया तो उन की निश्चल देह में जैसे हरकत सी हुई, लगा उन का आशीर्वाद सा बरसा… आचार्य श्री के यम सल्लेखना ग्रहण किये जाने के बाद से ही बड़ी संख्या मे मुनि गण, आर्यिकाये और संत, साध्वियॉ वहा एकत्रित हैं और पूजा पाठ कर रहे हैं। विदुषी आर्यिका ज्ञान मति माता जी ने भी इस अवसर पर अपने शिष्य और पीठाधीश स्वामी रवीन्द्र कीर्ति और संघ्स्थ डॉ. जीवन प्रकाश के जरिये नमोस्तु कहलवाया।

यम सल्लेखना ग्रहण करने से पूर्व आचार्य श्री ने सभी से क्षमा याचना की, क्षमा दी, अपनी सारी पदवी त्यग दी, वहा स्थित मंदिर में दर्शन किये और अन्तत; यम सल्लेखना ग्रहण की। तपस्वी दार्शनिक संत आचार्यश्री विद्द्यासागर के अनुसार जैन समाज में सल्लेखना का नियम अद्वितीय है। 12 वर्ष पूर्व से ही उसकी साधना की शुरुआत होती है। रात व दिन को एक बनाती है। आत्मा अजर-अमर है, क्योंकि यह एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है। सल्लेखना करने वाला कभी भावुक नहीं होता। वह संतोष और धैर्य, निराकुल भाव के साथ इस पथ पर जाता है। “शांति हमारा स्वभाव है, लेकिन शांति को छोड़कर नहीं भीतर की आंखें खोलकर सल्लेखना के पथ पर जाना है।”

संत विनोबा भावे की सल्लेखना के दौरान वर्धा में गांधी आश्रम में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनसे कहा था कि देश को उनकी जरूरत है। उन्हें आहार नहीं छोड़ना चाहिए। तो संत विनोबा भावे ने कहा था कि मेरे और परमात्मा के बीच में अब किसी को नहीं आना है, क्योंकि अब मेरी यात्रा पूर्ण हो रही है।

जैन दर्शन और मानवीय मूल्यों के प्रसार में आचार्य श्री का योगदान अनुकरणीय रहा है। २२ अप्रैल १९२५ को जन्में आचार्य श्री ने २१ वर्ष की आयु में मुनि दीक्षा ग्रहण की और पिछले लगभग ७५ वर्षों से घोर तप साधना में लीन रहे। युवावस्था में सन् 1942 में जब भारत छोड़ो का देशव्यापी आन्दोलन चला तो वे भी इसके आह्वान से अछूते नहीं रह सके। लेकिन धीरे धीरे वे अनासक्ति वैराग्य और ज्ञान के पथ की और चल निकले। २१ वर्ष की आयु में उन्होंने मुनि दीक्षा ग्रहण की। आचार्य श्री ने अनेक पुस्तके लिखी, जैन संप्रदाय के आचार्य विद्द्यानंद एक प्रमुख विचारक, दार्शनिक, लेखक, और एक बहुमुखी जैन धर्म साधु रहे हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन जैन धर्म द्वारा बताए गए अहिंसा व अपरिग्रह के मार्ग को समझने व समझाने में समर्पित किया है। वे आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के परम शिष्य रहे हैं और उन्हीं की प्रेरणा एवम् मार्गदर्शन से कई कन्नड भाषा में लिखे हुए प्राचीन ग्रंथों का सरल हिन्दी व संस्कृत में अनुवाद कर चुके हैं। प्राकृत भाषा के प्रचार प्रसार में उन का योगदान अमूल्य रहा हैं उन्होंने जैन दर्शन से संबंधित कई किताबें और लेख भी लिखे हैं।

नमोस्तु गुरूवर।।। विदा गुरूवर।।। आपकी शीतल छाया हमारे उपर बनी रहे।।

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