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सुख का मूल: संतोष (मुनि प्रमाणसागर जी महाराज)

संकलन:

श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ

संसार का हर प्राणी सुख चाहता है। जब कभी हम किसी सुखी व्यक्ति के विषय में विचार करते हैं तो हमारी दृष्टि में आता है कि सुखी वह है जो स्वस्थ है, जिसका शरीर निरोगी है। थोडा आगे बढते हैं तो हमें लगता है कि जिनके पास धन-सम्पत्ति है, संपदा है, प्रतिष्ठा है, वर्चस्व है, वह व्यक्ति बहुत सुखी है। जिसकी अच्छी संतति है, अच्छे पुत्र-पौत्र हैं, भरापूरा परिवार है वह सुखी है। जिसकी अनूकूल पत्नी है, जिनका एक-दूसरे के प्रति व्यवहार आत्मीयता पूर्ण है, वह व्यक्ति सुखी है।

सुखी वह नहीं है जिसके पास अपार धन-सम्पदा और बाह्य साधन हो, सुखी केवल वही हो सकता है, जो हर हाल में मस्त और संतुष्ट रहकर जीवन जीने की कला जानता है।

हमने बचपन में एक कहावत सुनी है-‘संतोषी सदा सुखी’। जो संतोषी है वह हमेशा सुखी है और संतोषी के मन में कोई व्यर्थ चाह नहीं होती और असंतोषी का मन कभी चाहत से मुक्त नहीं होता। जहाँ चाह है वहाँ दुःख ही दुःख है।

रहते हो झोपडी में मगर महलों की चाह है
ये चाह ही तेरे लिये काँटों की राह है
इस चाह को तू मार ले बस हो गया भजन
आदत बुरी सुधार ले बस हो गया भजन
मन की तरंग मार ले, बस हो गय भजन

संसार का हर प्राणी दूसरे की तरफ देख रहा है और जबतक दूसरे की ओर देखने की वृति बनी रहेगी, तबतक संतोष/सुख की अनुभूति तीनकाल में असम्भव है। रविन्द्रनाथ टैगोर ने बडी सार्थक पंक्तियाँ लिखी हैं-

छोडकर निःश्वास कहता है नदी का यह किनारा |
उस पार ही क्यों बह रहा है जगत भर का हर्ष सारा ||
किंतु लम्बी श्वास लेकर यह किनारा कह रहा है |
हाय रे, हर एक सुख उस पार ही क्यों बह रहा है ||

असंतोष का दूसरा कारण है-जीवन जीने का अस्वाभाविक तरीका। आज के मनुष्य ने कृत्रिम अपेक्षाओं का विस्तार बहुत कर लिया है। हमने अपने सामाजिक स्तर को बनाने के नाम पर बहुत कुछ ऐसी बातें ओढ ली हैं जिसका जीवन के मूल से कोई संबन्ध नहीं है। केवल ऊपरी दिखावे और फालतू शान के नाम पर हमने उन्हें अपनाया है, और जब हम उन्हें पूरा करने की कोशिश में लगते हैं तो हमारे जीवन का संतुलन बिगडता है।

हम चाहें कितनी सम्पत्ति क्यों न जोड लें, और यह मानकर चलें कि यह हमारी आने वाली पीढी के काम आयेगी। यह तय है कि किसी के परिजनों की सम्पत्ति किसी के काम नहीं आती। तुम्हारी सम्पत्ति तुम्हारी पीढी के काम नहीं आयेगी। तुम्हारी पीढी के काम में केवल उनका पुण्य आयेगा। कोई कितनी भी सम्पत्ति एकत्रित क्यों न कर ले, अपने वारिसों के लिये, अपने वंशजों के लिये छोडकर जायें, पर वे उसका उपभोग तभी कर पायेंगे जब उनके पल्ले में पुण्य होगा। एक कहावत है-

पूत कपूत तो का धन संचय |
पूत सपूत तो का धन संचय ||

तुम्हारा पुत्र अगर सपूत होगा तो खुद अपने बल पर सब अर्जित कर लेगा, और यदि कपूत होगा तो सबकुछ मिटा देगा। तो फिर किसके लिये संग्रह? किसके लिये संचय?

असंतोष का चौथा कारण है – तृष्णा, लालसा और वासना से लगाव। तृष्णा मनुष्य को सदैव अतृप्त बनाये रखती है। तृष्णा और तृप्ति दोनो एक साथ नहीं रह सकती। तृष्णातुर मनुष्य को चाहे जितना भी लाभ क्यों न हो जाये उसे कभी तृप्ति और संतुष्टि नहीं होती।

जीवन को समझ कर उसके मूल उद्देश्य से जुडें। आत्मकल्याण ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिये। ध्यान रखें, धन-पैसा जीवन निर्वाह का साधन है, साध्य नहीं।

सुख और संतोष पाना चाहते हो तो हमेशा पाँच बातों का ध्यान रखो-

1. यथार्थ का बोध
2. सकारात्मक सोच
3. भावात्मक दृष्टि
4. संयमी प्रवृत्ति और
5. इच्छाओं पर नियंत्रण

जीवन के यथार्थ को समझने की कोशिश करें। सदैव इस बात को अपनी दृष्टि में रखें कि जिसने जन्म लिय है उसकी मृत्यु निश्चित है। न हम कुछ लेकर आये हैं, न हम कुछ लेकर जायेंगे। न कोई हमारा है, न किसी के हम हैं।

दूसरी बात है-सकारात्मक सोंच। नकारात्मक न देखें। आप जबतक अपने से ऊपर वालों को देखेंगे, तबतक आपके मन में असंतोष रहेगा। इसमें तुम्हें असंतोष, आकुलता, आतुरता, व्यग्रता और छटपटाहत के अलावा और कुछ भी नहीं मिलेगा। इससे तुम्हारा चित्त उद्विग्न होगा। तुम्हारे मन में खिन्नता आयेगी, तुम्हारा जीवन खम हो जायेगा।

असंतोष एक प्रकार का मानसिक ज्वर है। उस मानसिक ज्वर के कुछ लक्षण होते हैं। जैसे- ज्वरग्रस्त व्यक्ति आशक्त हो जाता है, चलफिर नहीं सकता। ऐसे ही असंतोषग्रस्त व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का एहसास नहीं हो पाता। वह आध्यात्मिक स्तर पर अशक्त हो, मानसिक रूप से रोगी हो जाता है। उसके मन में पडोसियों को देखकर, जलन, कुढन की भावना हो जाती है। उसके मन से घृणा, वैमनस्य की प्रवृत्ति उत्पन्न होने लगती हैं। उसके मन में सदैव प्रतिशोध की भावनाएँ जन्म लेने लगती हैं। यह बडी घातक बीमारी है इससे उसकी सारी शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं। संतुष्ट व्यक्ति का हृदय अत्यंत निर्मल होता है। वह हर काम को बहुत उत्साह, साहस और स्थिरता से करता है।

तीसरी बात ‘भावात्मक दृष्टि’ रखिये नकारात्मक सोच से बचिये। जो तुम्हारे पास है वह कम नहीं है। तुम यदि देखो कि जो तुम्हारे पास है, उसमें तुम बहुत अच्छा जी सकते हो। जो नहीं है उसके पीछे तुम दौडोगे तो सिवाय खिन्नता, आकुलता, व्याकुलता के कुछ मिलने वाला नहीं है।

अंतिम सूत्र है-‘संयमी वृत्ति’ और ‘इच्छाओंका नियंत्रण’। विलासितापूर्ण वृत्ति मन को असंतुष्ट करती है, दुःखी भी करती है, विषय-भोगों की आग में झोकने को प्रेरित करती है। अगर व्यक्ति की प्रवृत्ति संयमी हो जाती है तो वह व्यक्ति संतुष्ट हो कर जीता है। संयमी व्यक्ति के जीवन का आदर्श होता है-‘सादा जीवन उच्च विचार, यही है सुखी जीवन का आधार’।

आर्थिक नुकसान ज्यादा मूल्यवान नहीं है, सबसे ज्यादा मूल्यवान मानसिक शक्ति है। यदि मानसिक शक्ति जीवित है, अन्दर का उल्लास जीवित है तो तुम कितने भी नीचे गिरकर ऊपर उठ सकते हो। मन का उल्लास खत्म हो जाये या मानसिक शक्ति का हास हो जाये तो कितने भी ऊपर क्यों न रहो, नीचे आने में देर नहीं लगती।

बन्धुओं, गरीब वह नहीं जिसके पास कुछ नहीं। गरीब वह है जिसे बहुत कुछ पाने की चाह है। भूखा वह नहीं, जिसके पास खाने को कुछ नहीं और खाने की चाह भी नहीं। भूखा तो वह है, जिसने दो लड्डू खा लिये है, दो थाली में है, फिर भी पडोसी के दो लड्डू हथियाने में लगा है।

शास्त्रकारों ने पूछा-को दरिद्रो, यस्य तृष्णा विशाला। दरिद्र कौन है? जिसके मन में तृष्णा ज्यादा है, चाह ज्यादा है। जो चाह करता है, वह भिखारी होता है। जो चाह को मार देता है वह शहंशाह हो जाता है।

कुछ भी नहीं है तेरा, दो गज जमीं है तेरी।
मिल जाये वह भी तुझको ये भी नहीं जरूरी॥

सारी जिन्दगी हम दौडते है, इतनी सी जमीन के खातिर। इस यथार्थ को जो समझता है, उस व्यक्ति के मन में कभी तृष्णा, आकांक्षा, चाह और असंतोष जन्य दुःख उत्पन्न नहीं हो सकते। लेकिन क्या करें, हर इंसान को दौडने की आदत है।
जन्म से लेकर मरण तक दौडता है आदमी, दौडते ही दौडते दम तोडता है आदमी
आँख गीली ओठ ठंडे और दिलों में आँधियाँ, तीन मौसम एक ही संग ओढता है आदमी
सुबह पलना शाम अर्थी और खटिया दोपहर, तीन लकडी चार दिन में तोडता है आदमी
एक रोटी दो लंगोटी तीन गज कच्ची जमीं, तीन चीजें चार दिन में तोडता है आदमी
है यहाँ विश्वास कितना आदमी का मौत पर, मौत के हाथों सभी कुछ छोडता है आदमी

गीता में इसे मानस तप कहा गया है। हमारे आचार्यों ने इसे ही साक्षी-भाव और ज्ञान-धारा के नाम से कहा है। बन्धुओं, भारत की संस्कृति में जिस अध्यात्म का दिग्दर्शन किया गया है वही हमारे जीवन का मूलमंत्र है। इस आध्यात्मिक-मार्ग पर चलकर हम अपने जीवन को सुख की मंजिल तक पहुँचा सकते हैं।

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